दिल्ली के जिस सरकारी संगठन में मैंने करीब उन्नीस वर्ष सेवाएं दीं वहां मेरा कार्य ऐसा था कि आगंतुकों और संस्थान के कर्मियों से अनवरत संपर्क रहता। मेरे कमरे में एक अन्य अधिकारी भी बैठते थे। अपनी स्वभावगत आदतवश दूसरों के हित में कोई ठोस राय देते अपने संवादों में मैं कदाचित शासकीय अपेक्षाएं लांघ जाता तो मेरे सहकर्मी मुझसे अर्ज करते, ‘‘अगले को आप बुद्धि क्यों देते हैं, वह इस योग्य नहीं। दूसरा, आपकी बातें उसके सिर के ऊपर से निकल जाएंगी। यह भी हो सकता है कि वह आपकी मंशा पर संदेह करने लगे। छोटी सोच के साथ वह जिस मुकाम पर है उसे वहीं रहने दीजिए’’!
अपनी असल सामथ्र्य से अपरिचित अधिकांश लोग अपने चारों ओर सरहदें बना लेते हैं कि फलां रेखा के भीतर ही उन्हें विचरित करना, रहना, सोचना, जीना-मरना है। नतीजन उनका समूचा जीवन इसी रेखा तक सीमित हो जाता है। इस रेखा को टापना उन्हें संदेहास्पद और भयकारी प्रतीत होता है। शातीर, धूर्त और जुगाड़ू लोग सीमित सोच वाले सीधे लोगों की नस पहचानते हैं और जम कर उनका फायदा उठाते हैं। विडंबना यह कि सीधे लोग चालू लोगों को ताउम्र नहीं समझ पाते, बल्कि उन्हें पूरा सहयोग देते रहते हैं। व्यापार जगत में बड़े सूरमाओं द्वारा अनेक तजबीजें अपनाते हुए छोटों को डकारने के किस्से आपने भी सुने होंगे। मसलन नब्बे के दशक में बड़े अखवारों ने मझौले और छोटे अखवारों का गला घोटने के लिए कीमत एकदम गिरा दी – दो रुपए। छोटे अखवारों का लोप हो गए। और जब अपना आधिपत्य स्थापित हो गया तो पुनः कीमतें धीमे-धीमे उठा कर पहले बल्कि उससे भी ऊपर के स्तर पर ले आए। तभी कहा जाता है, शोषण का सिद्धांत चराचर जगत की धुरी है, छोटी मछली ही बड़ी मछली का भोजन है, वगैरह।
दूसरे के भोलेपन को ताड़ कर उसका जमकर फायदा उठाने का एक अन्य पुराना प्रसंग है। मेरे आॅफिस के ठीक सामने, सड़कपार एक शहरीकृत गांव था, आज भी है। वहां के जिम्मेदार व्यक्ति बताते थे, फलां विशाल, नवनिर्मित बिल्डिंग तद्कालीन दबंग मुख्यमंत्री के बेटे की प्रापर्टियों में से एक है, हालांकि कागजों पर नाम उसके एक निष्ठावान कर्मचारी का है जो पहाड़ी ठाकुर है। वे कर्मचारी मामूली पढ़े लिखे, औसत दिमाग के हैं। यह भी बताते थे, मुख्यमंत्री के होनहार बेटे जब वहां चक्कर लगाते तो एक नहीं दो आलीशान कारें आतीं। एक से वे स्वयं उतरते तो दूसरी से कागजी मालिक, वैसे ही ठसकेदार लिबास और लग्जरी मिजाज में। आसपास के सभी लोग इस हकीकत को जानते थे।
बेनामी संपतियों के असल मालिकों के हाथ बहुत लंबे होते हैं। वे कानूनी अड़चनों से बचने की जुगतों में पारंगत होते हैं, उनके रोल में मोटा पैसा पाने वाले धुरंधर, विश्वस्त वकील भी होते हैं। बेनामी संपतियां जोड़ने जैसे कार्यों में लिप्त व्यक्तियों में एक गजब की क्वालिटी होती है, सीधे लोगों की परख करने, और गोटियों की तरह उन्हें इस्तेमाल करने की। सीधों में से कुछेक को अपना भक्त बना कर वे बांध लेते हैं और निजी स्वार्थ सिद्धि के लिए ताउम्र जब-तब उनका दोहन करते रहते हैं। दूसरों की सहज और भोली पवृŸिा का फायदा उठाने में पारंगत शख्स राजनीति, व्यापार, सरकारी महकमों आदि सभी क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
जो तटस्थ हैं वे उन पर भी आंच आएगी
अजान लोगों से भरपूर समाज में एक तबका उन सजग व्यक्तियों का भी है जो शक्तिशाली दिग्गजों द्वारा जनता को बेवकूफ बनाने के सिलसिले को बखूबी देखता, समझता है। इस जागरूक जमात की अमूनन अपनी राजनीतिक या अन्य मंशाएं नहीं हैं। लेकिन शोषण, अन्याय और क्रूरता ढ़ाए जाने के मामलों के प्रति वह आंखें मूंदे रहता है। कुछ सोचते हैं, भ्रष्टाचार के छŸो को छेड़ कर अपना सुख-चैन क्यों हराम किया जाए? भली जमात के कुछ अन्य की धारणा रहती है कि अंत में बात वहीं की वहीं रहेगी, क्यों उलझें? समाज में यदि कदाचार और भ्रष्टाचार के मामले नहीं थमते तो इसका एक प्रमुख कारण समर्थ व्यक्तियों द्वारा उसके विरुद्ध चुप्पी साध लेना है, और उन्हें देर-सबेर इसकी कीमत चुकता करनी होगी। पूर्व राष्ट्रकवि दिनकर की एक पंक्ति है, ‘‘जो तटस्थ हैं समय लिखेगा, उनका भी इतिहास।’’ अन्याय और दुराचार की उपेक्षा करने वालों को सुध नहीं रहती कि एक दिन अन्याय और दुराचार की ज्वाला उन्हें भी लील सकती है। ऐसा न भी मानें तो अनाचार देखने से आप अपनी आत्मा को स्वस्थ, निर्मुक्त नहीं रह सकते।
ग्राम्य विकास के कभी भी समुचित गति नहीं पकड़ पाने का मूल कारण यह रहा कि देहाती अंचलों गिनेचुने वाचाल किस्म के किसानों को नेता प्रलोभन से अपने पक्ष में कर लेते थे और छोटे किसान जानते हुए भी भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ में बोलने की जुर्रत नहीं करते थे। नतीजन कदाचारियों के हौसले, और मनमानियां बढ़ती रहीं। कस्बों में कंट्रोल की या सहकारी दुकान किसे आवंटित होनी है इसका फैसला उन्हीं स्थानीय, छुटभैए नेताओं के हाथ था जिनके निजी स्वार्थ होते।
शीर्ष नेतृत्व की कृपा से राहुल गांधी के बहनोई राॅबर्ट वाड्रा द्वारा कुछ वर्ष पूर्व लंबी-चैड़ी जमीन कौड़ियों के भाव अपने नाम आवंटित करवाने, संपतियां जोड़ने और हालिया पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की छत्रछाया में उनके रिश्तेदारों द्वारा बड़े पैमाने पर जमीन हथियाने के किस्से चर्चा में रहे। निगरानी एजेंसियों के निशाने पर ये मामले बरसों से थे। अब चूंकि दोनों मामलों में पुख्ता सबूत मिल गए हैं, पूछताछ अग्रिम चरणों में है। इंसान है कि उसके दिल पर लोभ या कदाचार के हावी होने पर उसे आगे का सब कुछ दिखना बंद हो जाता है। वह कल्पना नहीं कर पाता कि आज के दिन सदा नहीं रहेंगे और, अपने कर्मों का हर किसी को हिसाब चुकता करना पड़ेता है, अधिकांश को इसी जन्म में। लोभ जब बुलंदी पर होता है तो विवेक को नष्ट कर देता है। इस संदर्भ में, बेचारे नहीं रहे साहित्यिक रुझाान के रहे अपने एक मित्र सुरेश काला की पंक्तियां हैं, ‘‘शराब-सुल्फे के कारोबार में/मुनाफा तो बहुत है मगर/कानून के लंबे हाथ हैं/वे सोचते रहे, नफा और कानून/कानून और हम।’’ दिल्ली में आयोजित काॅमनवैल्थ खेलों में आननफानर में करोड़ों-अरबों खर्चने के बाद माजरों की कुछ परतें उधड़नी शुरू हुईं थी कि कड़ी में जुड़े तीन व्यक्तियों ने आत्महत्या कर डाली थी। राॅबर्ट वाड्रा आदि उस तबके के शख्स हैं जिनके दिलोदिमाग में सदाबहार नफा का जून सवार रहा। आगे इनका क्या होगा, वक्त ही बताएगा। याद रखा जाना चाहिए कि अंधकार चांद के उदय होने से नहीं, सूर्य के निस्तेज होने से होता है। जैसा हम जानते-समझते हैं उसे डंके की चोट से कहने का साहस नहीं करेंगे तो हमारी आत्मा हमें धिक्कारेगी।
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दैनिक वीर अर्जुन के बिंदास बोल स्तंभ में 21 जुलाई 2019 को प्रकाशित