अच्छी सेहत के लिए मन को टिकाए रखें, शरीर को चलाते रहें

आप जितनी भी जिम्मेदारियां निभाते हैं, याद रहे, इस ढ़ाई हाथ की काया की दुरस्ती का जिम्मा भी आपका और केवल आपका है। आपकी पूछ तभी तक है जब तक आप जिंदा, और चलते-फिरते, स्वस्थ हैं। मौत होते ही, घर के, अन्य करीबी भी आपका नाम लेने से कतराएंगे। कहेंगे, ‘इसे’ या ‘मिट्टी’ को ले जाने में देरी न करें। यह शरीर ही एकमात्र परिक्षेत्र है जहां आपने शेष जिंदगी गुजारनी है।

स्वस्थ रहना कितना जरूरी है उनसे पूछें जो बेचारे बीमारी से पिंड नहीं छुड़ा पा रहे हैं।

शरीर की संरक्षा – नैतिक कर्तव्य: बीमारी में जीवन के छोटे-बड़े कोई भी कार्य भलीभांति संपन्न नहीं होते, कुछेक ठप्प पड़ जाते हैं। आना-जाना, खानपान, घूमना-फिरना, मेल मुलाकात, सारे मजे किरकिरे हो जाते हैं! बीमारी में कुछेक की जिंदगी तो नरक बन जाती है, कुछ अभागे चल बसते हैं।

इसीलिए हर कोई स्वस्थ रहने की कामना संजोए रखता है, अपनी समझ के अनुसार प्रयास भी करता है। बहुमूल्य मानव शरीर की हिफाजत में, खासकर जब ठीकठाक चल रहा हो, ढ़ील बरत दी जाती है। इस सोच से भी हमारे ग्रंथों में शरीर को ईश्वर की प्राप्ति का माध्यम घोषित कर दिया गया, शरीरमाद्यम् धर्म खलु साधनम् यानी धर्म के मार्ग पर प्रशस्त रहने में शरीर की भूमिका सर्वप्रथम है, इसकी समुचित संरक्षा करना आपका नैतिक और धार्मिक दायित्व है।

ये डॉक्टर हैं या शातीर सेल्समैन

आपकी सेहत की किसी को परवाह नहीं, डाक्टरों, अस्पतालों को भी नहीं, डाक्टर पर अपनी उधेड़बुन में हैं। आपकी सेहत का खयाल आपसे ज्यादा कोई क्यों रखेगा? चिकित्सा में सेवा भाव तो गुजरे जमाने की बात हो गई। किसी दूसरे की तुलना में आप अपनी सेहत को सही से समझते या समझ सकते हैं। दूसरे या अपने ही शहर में बाएं-दाएं मुड़ने की आप गूगल से पूछते हैं, अपने स्वास्थ्य और खानपान की क्यों नहीं पूछते? डाक्टरी पेशा पैसा झटकने में माहिर है। मेडिकल पढ़ाई के बाद वह डॉक्टर नहीं, घाघ सेल्समैन बन जाता है। कारपोरेट अस्पतालों का प्रोटोकोल है, कमरे में आते हर रोगी को सलाम ठोकना है, उसे केवल कस्टमर समझना है।

वह सीन याद करें जब इमरजेंसी हालत में रोगी अस्पताल पहुंचता/ पहुंचाया जाता है। सबसे पहले वह किस का मुआयना करता है, मर्ज का या आपकी जेब का? सरसरी जांच के साथ पूछेगा, इंश्योरेंस है क्या? नहीं है तो माली हालत को तौलते हुए खर्चा बताएगा, इतने लाख अभी जमा कर दीजिए। अभी नहीं है तो चलो, कल सुबह तक जरूर कर देना। उसी हिसाब से इलाज की दिशा तय की जाती है।

ध्यान कमाई पर है तो मर्ज को समझने में दिमाग क्यों लगाएं? और कैसे रोगी को टिकाऊ, किफायती इलाज मिलेगा? निदान और उपचार में डाक्टर गल्तियां कर बैठते हैं। रोगी और परिजनों में उपभोक्ता अधिकारों के प्रति सजगता बढ़ रही है, वे डाक्टरी निर्णयों को चुनौती देने लगे हैं। करीब पांच प्रतिशत डाक्टरों के खिलाफ मेडिकल चूकों, लापरवाही या गलत उपचार के सिविल और आपराधिक मामले विभिन्न न्यायालयों में चल रहे हैं।

खसोटी अस्पताल: डाक्टरों का खसोटिया, अनैतिक आचरण नई बात नहीं। इसे जगजाहिर करने की एक ऐतिहासिक पहल का श्रेय डा0 डेविड वर्नर को जाता है। नर्सकर्मी कैरोल थुमन और जेन मेक्सवेल के सहयोग से मूल स्पैनिश में लिखी, 1970 में प्रकाशित उनकी पुस्तक, व्हेयर देयर इज नो डाक्टर (जहां कोई डाक्टर नहीं है) में फार्मा उद्योग और डाक्टरी बिरादर की सांठगांठ का खुलासा पेश है। इसमें बताया गया है, अधिसंख्य सामान्य बीमारियों का इलाज घरेलू नुस्खों से सहजता से कैसे कर सकते हैं, अस्पताल जाना जरूरी नहीं। भारी मांग और उपयोगिता के चलते यह पुस्तक 100 से अधिक भाषाओं में प्रकाशित हुई। अपने देश में, अंग्रेजी-हिंदी के अलावा 10-12 भारतीय भाषाओं में इसके संस्करण वोल्यूंटेरी हैल्थ एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने प्रकाशित किए हैं।

डाक्टरी कदाचार का भंडाफोड़ करने का दूसरा बीड़ा एम्स दिल्ली से पीजी किए डा0 अभय शुक्ला और डा0 अरुण गादरे ने उठाया। एम्स दिल्ली में 2016 में रिलीज हुई उनकी पुस्तक वायसिस ऑफ कौंशेस फ्रॉम मेडिकल प्रोफेशन में विभिन्न सेक्टरों में कार्यरत करीब 75 डाक्टरों के चौंकाने वाली आपबीतियां प्रस्तुत हैं। कुछ के नाम पते भी हैं। पुस्तक में झूठमूठ आपरेशन करने और कमाई का मीटर चालू रखने की नीयत से मुर्दे को 3-4 दिन फालतू रखने जैसे कारनामों का उल्लेख है। डा0 शुक्ला महाराष्ट्र में स्वैच्छिक संगठनों के सहयोग से निष्ठा भाव से जनस्वास्थ्य के पुनीत कार्य में लगे हैं।

मानसिक रोगों की भारी चुनौतियां

स्वास्थ्य के रख-रखाव में भारतीय सोच के विपरीत, आधुनिक चिकित्सा ने मानसिक, भावनात्मक, आध्यात्मिक पक्षों की अनदेखी की है। समग्र स्वास्थ्य की परिभाषा में आध्यात्मिक बेहतरी को चौथे आयाम के रूप में डब्ल्यूएचओ ने भी 1998 में जा कर मान्यता दी।

आज की अधिकांश बीमारियों की जड़ विकृत सोच है; अनेक शारीरिक बीमारियां अस्पष्ट सोच से जुड़ी हैं। स्वस्थ रहने में तन से कहीं अधिक भूमिका मन की है। तन उसी निदेश का अनुसरण करता है जो मन जारी करता है। ग्रहण किए जाते भोजन की प्रकृति, इसका सेवन किस मुद्रा में करना है, इन बातों का आयुर्वेद में विशद उल्लेख है। तन-मन को कुछ भी परोसते रहेंगे तो जीवन की दिशा-दशा दुरस्त नहीं रहने वाली। भोजन को प्रसाद मान कर, एक एक कौर को प्रभु के प्रति आभार करते हुए ग्रहण करेंगे तो भरपूर लाभ मिलेगा

मन चंचल, चलायमान है, वायु से अधिक वेगवान। हमारी अधिकांश समस्याएं तन-मन के कुचालन और असंतुलन से संबद्ध हैं। तन को अधिकाधिक सक्रिय और मन को एकाग्र रखना है। मशीन की भांति शरीर के जिन अंगों-प्रत्यंगों को चलाते नहीं रहेंगे उनकी क्षणता क्षीण हो जाएगी। फ्रोजन शौल्डर, घुटने का प्रतिस्थापन जैसे मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। अधिसंख्यों की जीवनशैली बैठेठाले वाली है। इसके अलावा भौतिक सुख-सुविधाओं की तीव्र चाहत; दया, परहित, साहचर्य भाव जैसे सद्गुणों का अभाव तेजी से बढ़ रहे मानसिक विकारों का मूल है। व्यग्रता, आपाधापी, आक्रामकता के मामले निरंतर बढ़ रहे हैं। संयत रहना चुनौती बन गई है।

मन का वास तन में है तथापि तन-मन दोनों के स्वरूप, कार्य पद्धति और अंतिम परिणति भिन्न हैं। तन तात्कालिक सुख तलाशता है, मन विचारों-भावों के माध्यम से परमशक्ति से तादात्म्य बनाने में सक्षम है। तन कालांतर में पंचतत्वों में विलीन हो जाएगा, आत्मा प्रतिरूपी मन को परमात्मा में समा जाना है।

टिप्पणी: इस लेख का आशय डाक्टरों के प्रति अविश्वास या उनका अपमान करना नहीं है; समाज को क्षति रंगे सियारों से है। अपने अंतरंग मित्र डा0 गिरधारी नौटियाल; सेंट स्टीफेंस के फिजिशियन डा0 शैलेंद्र कुमार, ऑर्थो के डा0 मैथ्यू वर्गीज़, पूर्व  फिजिशियन डा0 पालजोर, सरीखे डाक्टरों की निष्ठाओं और सदाशयताओं से मैं अभिभूत रहा हूं

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इस आलेख का संक्षिप्त रूप 7 अप्रैल 2025, सोमवार (विश्व स्वास्थ्य दिवस) को दैनिक जागरण के संपादकीय पेज में प्रकाशित हुआ।

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One thought on “अच्छी सेहत के लिए मन को टिकाए रखें, शरीर को चलाते रहें

  1. लेख को पढ़कर मन अभिभूत हुआ। आजकल जिस प्रकार का प्रत्येक स्थान पर वातावरण व्याप्त है, उसका निदान उपरोक्त लेख के शीर्षक- “अच्छी सेहत के।लिए मन को टिकाए रखें, शरीर को चलाते रहें”, गागर में सागर भर दिया है।लेख का प्रत्येक पैरा अनुकरणीय है।

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