रिटायर हो जाने, उम्र बढ़ने, जिम्मेदारियां निपट जाने, कोई नियमित कार्य नहीं होने का मतलब नहीं कि शेष दिन झिकझिक कर गुजारने हैं। बस हौसले न छोड़ें, मन व दिल को बुढ़ाने न दें। सोच को तरोताजा करते हुए आज ही नई शुरुआत कर सकते हैं।
जीवन किसी का हो, दिन तो गिनती के हैंः पृथ्वी पर वनस्पतियों सहित सभी प्राणियों का जीवनकाल नियत है। स्थूल तौर पर जन्म, वृद्धि, परिपक्वता, क्षरण यानी क्रमगत गिरावट की अवस्थाओं से गुजरते हुए एक दिन उसका अंत होना है। तथापि मनुष्य में निहित अथाह सामर्थ्यशील सूक्ष्मतत्व के कारण उसकी नियति अन्य सभी जीवों से भिन्न है। यह सूक्ष्मतत्व इतना सशक्त, अद्भुद् और अबूझ है कि इसे ‘दिव्य’ मानना अनुचित न होगा। प्रचंड क्षमतायुक्त एक स्वतंत्र मस्तिष्क, विचार, संवेदनाएं और भावनाएं इसी सूक्ष्मतत्व के विभिन्न रूप हैं। जिस सीमा तक मनुष्य इन दिव्य क्षमताओं से तादात्म्य बनाए रखता है, उसी सीमा तक वह अपने भौतिक अस्तित्व को जीवंत रखने या बूढ़ा होने से रोक सकेगा। जिस शक्ति से संबद्ध हो गए तो उससे संबल स्वतः मिलता है।
उम्र तो सरकती रहेगी, हां बुढ़ापे पर नकेल कसी जा सकती है। बुढ़ापे का संबंध उम्र से कम, हौसलापरस्ती और जीवंतता से अधिक है। बेशक ‘वरिष्ठजन’ और ‘वृद्ध’ समानार्थी हैं किंतु दोनों पर्याय नहीं हैं। एक व्यक्ति आश्वस्त रहता है कि वह अमुक कार्य कर ही नहीं सकता, दूसरा आश्वस्त होता है कि वह फलां कार्य अवश्य कर लेगा; दोनों सही सोचते हैं और और जैसा सोच लेते हैं वैसा ही फल पाते हैं। साठ वर्ष का बूढ़ा और साठ वर्ष का युवा वाली उक्ति आपने देखी-सुनी होगी। पहला सेवानिवृत्ति के बाद परिजनों, मित्रों से मेलजोल कम करने लगा; उसे कभी बाएं हाथ में तकलीफ होती तो कभी दाएं पांव में। अधिसंख्य उम्रदारों की भांति अपनी संतानों के सरोकारों तक सीमित उसकी दास्तान कुछ यों रहती है – भूले भटके पधारे मुलाकातियों को विदेश में रचपच गए बेटे-बेटियों के किस्सों का आलाप; उसने उच्च्तर वेतन वाली दूसरी कंपनी जॉइन कर ली, नई बड़़ी परिसंपत्ति जोड़ ली, बच्चे नामी आवासीय स्कूल में भरती करा दिए गए, वगैरह। सुनने वाला न मिले तो गश्त करते कॉलोनी के चौकीदार को रोक कर, बल्कि उससे बतियाने से ज्यादा स्वयं को झूठमूठ समझाने की चेष्टा की जाती है कि बेटा लायक है, परदेश में है, खुश है, तरक्की की राह पर है। ऐसे उम्रदारों की जिंदगी का मुख्य एजेंडा बिजली, पानी, टेलीफोन के बिल चुकाने, डाक्टरी जांचों और इलाज के लिए अस्पताल जाने-लौटने तक सिमट जाता है। संवाद के नाम होली-दीवाली में बनी बनाई पोस्ट फॉरवर्ड करना, जन्मदिन पर ई-कार्ड। बनावटी जीवनचर्या उम्रदारों को एकाकीपन और डिप्रेशन की ओर ठेलती हैं। संप्रति देश के 60 वर्ष से ऊपर के 14 करोड़ व्यक्ति कमोबेश इसी दुर्गत में हैं।
बस, हौसले नहीं टूटने चाहिएंः इसके उलट, साठ वर्ष के युवा के लिए उम्रदारी का अर्थ यह नहीं कि घर-परिवार, समाज से दरकिनार हो कर गुमसुम, मायूस रहा जाए। उसे ज्ञान होता है कि इस आयु में संतान से लिपटे-चिपटे रहना दोनों पक्षों में से किसी के हित में नहीं हैं चूंकि युुवा पीढ़ी की अपनी प्राथमिकताएं हैं। समय की बदलती नब्ज को भांपते हुए वह नित नए घटनाक्रम और अभिनव वस्तुओं, तकनीकों, घटनाओं से बेरुख नहीं होगा, उनमें रुचि लेगा। उसे बची हुई जिंदगी भविष्य में गुजारनी है, यह विचारते हुए वह अतीत की स्मृतियों में नहीं खोया रहता। संतान की उपलब्धियों पर इतराते रहना उसकी आदत नहीं होती। पारिवारिक मामलों में वह अन्य सदस्यों के कार्य में हस्तक्षेप तो दूर, बिनमांगी सलाह भी नहीं देगा, वह जानता है इससे संबंधों में कटुता आ सकती है। जिजीविषा से अभिप्रेरित उम्रदराज को संशय नहीं रहता कि पेड़़ तले छोटे पौधे ठीक से नहीं पनपते। वैचारिक विपन्नता से उत्पन्न बेचारगी में वे उम्रदार प्रायः जूझते हैं जिन्होंने अपनी औसत बुद्धि संतान को उचित संस्कार नहीं दिए बल्कि किसी भी जोड़तोड़़ से पद, प्रतिष्ठा, पैसा जुटाना सिखाया। वही संतानें वयस्क होने पर आपका खयाल रखेंगी, यह कैसे संभव है। उनसे बंधी उम्मीदें टूटने पर आप कैसे झेलेंगे।
नजरिया बदलें, दुनिया बदल जाएगी: वास्तविक सुख-दुख से बढ़ कर वह सोच और नजरिया है जो व्यक्ति को प्रफुल्लित या मायूस बनाता है। भोपाल के एक मित्रकवि बलराम गुमास्ता की काव्य रचना है, ‘सूचना’। इसमें उनकी मां की मृत्यु की चार दिन बाद मिली जानकारी पर, मृत्यु पर नहीं, फूट फूट कर रोने का उल्लेख हैं। विडंबना है कि जिस परिस्थिति में कोई स्वयं को लाचार समझते हुए आत्महत्या कर डालता है या ऐसा विचार करता है, उससे बदतर, विकटतर परिस्थिति में दूसरा व्यक्ति विचलित ही नहीं होता! खेल नजरिए का है।
मनुष्य का जन्म, उसके विचार, उसका चिंतन और उसकी विवेकशीलता इहलोक की अस्मिताएं नहीं हैं, अतः इन तीनों के स्वरूप, उद्भव और कार्यप्रणाली के अनेक आयामों को भलीभांति समझने में विज्ञान गच्चा खाता रहता है। जब खलील जिब्रान ने कहा, विचार अंतरिक्ष का पक्षी है, पिंजड़े में वह फड़फड़़ा भर सकता है, पंख नहीं खोल सकता, उनका आशय उस परम शक्ति को जानने-समझने से था जिसके हम अभिन्न अंग हैं। मायावी अस्मिताओं के बदले उसी परमशक्ति में चित्त लगाएंगे तो उम्रदारी बोझ नहीं बनेगी।
जहां भी बन पड़ें, उपयोगी बनें: सृष्टि का विधान है, आपकी भूमिका तभी तक रहेगी जब तक आप दूसरों के लिए उपयोगी रहेंगे। परिवारजनों, परिजनों के लिए कुछ करने की मन में रहेगी तो रचनात्मक मुद्रा में कर्मरत, संतुष्टिपूर्वक जिएंगे, आपके ज्ञान और हुनर खूंटे नहीं होंगे। जिस मशीन से काम लेना बंद कर देते हैं वह कालांतर में कबाड़़ में तब्दील हो जाती है। कर्मरत रहेंगे तो आपके शारीरिक अंग-प्रत्यंग तथा मस्तिष्क की कोषिकाएं सुन्न नहीं पड़ेंगी, और दुरस्त रहने के लिए आपके पास एजेंडा होगा। उत्साह चरम हो तो शरीर के अंग प्रत्यंग साथ देते हैं। वही उम्रदार तन-मन से शेष दिन संतुष्टि से बिताते हैं जो सर्वप्रथम अपने बूते दैनंदिन कार्य संतोषजनक रूप से निबटाते हैं। यहां अभिप्राय घरेलू कार्य के लिए परनिर्भता घटाने से है। न भूलें, छिनताई और लूटमारी के गिरोह पहले अपने ‘शिकार’ का चहुतरफा आकलन करते हैं – गांठ में कितना है, आने-जाने वालों का क्या पैटर्न है, आदि। घरेलू कामकाजी को साथ मिला कर मंशा को अंजाम देना उनके लिए सहज हो जाता है। दूसरा, किसी बड़े मिशन से न जुड़े हों या कोई शौक न हो तो सत्संग, इच्छा के अनुकूल साहित्य का अनुशीलन, किचिन गार्डिन, पक्षी पालन जैसी गतिविधि में मनोयोग से जुड़ जाएं। तीसरा – निजी सरोकार, करुणाएं, हर्षोल्लास साझा करने के लिए अपनी टिकाऊ व्यवस्था नहीं है तो निर्मित की जाए। उम्रदारी के बावजूद बूढ़ा होना, न होना, आपके हाथ है।
घर-समाज के कार्यों में अपने विशिष्ट कौशल, अनुभव और सूझबूझ के योगदान से न केवल वे लोकहित में सहभागी बनेंगे बल्कि अपना जीवन सार्थक और खुशनुमां बनाएंगे।
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Excellent write up on the plight of elderlies.