कम बोलेंगे तो शब्दों में वजन ज्यादा होगा। ज्यादा बोलना मतलब ज्यादा फंसाद, कलह और मनमुटाव। शब्द ऊर्जा है, इसे बेहतरीन कार्य के लिए संरक्षित रखें। जहां कम से काम चल जाए वहां अतिरिक्त ऊर्जा क्यों खर्ची जाए।
शब्द और मौन
शब्द मनुष्य के विचार और भावना के आदान-प्रदान का प्रभावी वाहन हैं। लिखित शब्दों के प्रयोग में विचार या मंथन आवश्यक होता है चूंकि शब्द अनुचित होने पर किरदार के विरुद्ध साक्ष्य रह जाते हैं। इसीलिए आज के सुविधा उन्मुख, जल्दबाजी के दौर में कोशिश रहती है कि जहां बोलने से कार्य सध जाए, वहां लिखित शब्दों के प्रयोग से बचा जाए। समझने के लिए बोलने से अधिक आवश्यक सुनना है। हमारी दो-दो आंखें और कान इसलिए हैं कि हम अधिक देख-सुन कर परिस्थितियों का आकलन बेहतर कर सकें। जिह्वा एक इसलिए है कि बोलें अधिक नहीं। कुछ परिस्थितियों में अपनी मंशा दूसरों तक पहुंचाने में मौन अधिक प्रभावकारी पाया जाता है। अधिक बोलेंगे तो स्वाभाविक है, अनावश्यक शब्द या अपशब्द फूटने और मनमुटाव की उत्पन्न होने की संभावना रहेगी। शब्द दो-टूक, कम होंगे तो संवाद बेहतर होगा।
मोबाइल फोन से बेड़ा और गर्क
शब्द प्रकृति की प्रचंड शक्तिशाली अस्मिता है, इनमें राहत देने और आहत करने की प्रचंड क्षमता है। अल्पभाषी का व्यक्तित्व अधिक संवरा हुआ और संयत होता है। दुर्भाग्य है कि लोकजीवन में अधिक बोलने की प्रवृत्ति सर्वव्यापी व्याधि का रूप ले चुकी है। चलते-फिरते, पढ़ते-लिखते, खाते, वाहन में बैठे या वाहन चलाते, मोबाइल पर या वैसे भी, स्नानागार या अर्चना के दौरान भी, बोलते रहने वाले सर्वबहुतेरे दिखते हैं। ऐसा व्यक्ति कहीं भी, कुछ भी कहने से नहीं चूकेगा। क्या छोटा बच्चा, क्या बुजुर्ग, मोबाइल फोनों ने और बेड़ा गर्क किया है। ढ़ेर सारी समस्याओं की जड़!
कम बोलेंगे तो आपके शब्दों में वजन बढ़ेगा, व्यक्तित्व निखरेगा। ज्यादा बोलने का अर्थ है फंसाद, कलह और मनमुटाव को निमंत्रण। शब्द ऊर्जा है, इसे बेहतरीन कार्य के लिए संरक्षित रखें। जहां कम से काम चल जाए वहां अतिरिक्त ऊर्जा क्यों खर्ची जाए। खलील जिब्रान ने कहा कि शांत रहने की उनकी प्रवृत्ति के लिए वे बातूनी लोगों के शुक्रियागुजार हैं। उन्हें जब-कभी बकबक करते रहने वालों की दुर्गत ठीक-ठाक समझ आ चुकी थी।
मौन और बकबक के बीच संतुलन
दूसरे छोर पर, जिह्वा पर पूर्ण नियंत्रण समस्याजनक है। पूर्ण चुप्पी साध लेंगे तो अनेक कार्य अवरुद्ध हो जाएंगे, हर्षोल्लास, चिंताएं, साझा नहीं होंगी, मन और चित्त से अस्वस्थ हो सकते हैं। हमारी अधिकांश समस्याएं अधिक बोलने या बिल्कुल नहीं बोलने से हैं। इस संदर्भ में एक विचारक ने कहा कि दुनिया के आधे व्यक्तियों के पास कहने को ठोस बहुत कुछ है किंतु स्वभाव, लिहाज, भय या अन्य कारणों से वे मौनी बन गए हैं। शेष आधे वे हैं जो सदा कुछ भी निरर्थक बोलते रहेंगे। बोलने और नहीं बोलने में उचित संतुलन आवश्यक है। कहां कब, क्या और कितना बोलना है और कहां बोलना ही नहीं है, यह समझ लेंगे तो जीवन जीवन सुख-चैन से गुजरना शुरू हो जाएगा।
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इस आलेख का संक्षिप्त रूप 5 जनवरी 2024, सोमवार के दैनिक जागरण (संपादकीय पेज) में प्रकाशित हुआ।
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उत्तम लेख।
अति का भला न बोलना अति की भली न चुप।
साथ ही, ‘न ब्रूयात् अप्रिय सत्यम्’।