कैंसर से बचाव के लिए कुदरत की ओर मुखातिब होना पड़ेगा

हर छोटे-बड़े शहर में ढ़ेरों कैंसर के अस्पताल न मिलें तो उन अस्पतालों में कैंसर के विभाग जरूर होंगे। वजह – यह बीमारी बेतहाशा तेजी से इसलिए बढ़ रही है चूंकि हमारा खानपान, खाने-पीने के तौर तरीके बनावटी हो गए हैं। इस भयावह बीमारी से बचाव स्वयं को कुदरती जीवन में ढ़ालने से ही संभव है।

थमने का नाम नहीं लेता कैंसर दशकों से समूचे विश्व में चिकित्सकों, स्वास्थ्यकर्मियों तथा सरकारों की चिंता का विषय है। कैंसर की उत्पत्ति और दवाओं पर लगातार चलते शोध व मंथन, इलाज, निगरानी तथा देखभाल सहित भारी रकम खर्चने के बावजूद इस मर्ज से पीड़ित 70 फीसद व्यक्ति रोग लगने के पांच साल में दम तोड़ देते हैं। रोगियों को दिया जाने वाला मानक उपचार यानी कीमोथिरेपी, रेडिएशन और शल्यक्रिया विषाक्त होने के साथ साथ पीड़ादाई होते हैं। ऐसे में आशा की किरण दिखती है तो प्राकृतिक तौरतरीके और शाकाहार अपनाने के परिणामों से। हालांकि पिछले 16 वर्षों में कम साइड इफेक्ट वाली 42 दवाएं ईजाद किए जाने के बाद अमेरिका, डेनमार्क, स्वीडन और स्लोवाकिया जैसे विकसित देशों में कैंसरजन्य मौतों में घटत दर्ज हुई। नामी मेडिकल पत्रिका दि लांसेट में ऐसा उल्लेख है, तो भी विकासशील देशों में कैंसर पर काबू पाने की दिशा में सुधार मामूली रहा। विश्वस्तर पर कैंसर के इलाज व देखभाल सेवाओं पर 113 अरब डालर से अधिक खर्चने के बावजूद इस भयावह बीमारी से 2020 में एक करोड़ मौतें दर्ज की गईं तथा 2021 में यह राशि 147 अरब डालर तक पहुंच जाएगी।

संतोष है कि शारीरिक अभ्यासों, योग, ध्यान, सब्जियों-फलों के अधिकाधिक सेवन, मांसाहार त्यागने के अब तक संचालित वैज्ञानिक प्रयोगों में प्राकृतिक जीवनशैली की कारगरता साबित हुई है। प्रकृति के अनुरूप और शरीर द्वारा सहजता से अवशोषित होने के कारण शाकाहार कुल मिला कर मांसाहार से बेहतर और स्वास्थ्यकर है। इसीलिए अमेरिकन इंस्टिट्यूट फार कैंसर रिसर्च की संस्तुति है कि भोजन में मांसाहार का अंश एक-तिहाई से अधिक ठीक नहीं है।

स्थूलतौर पर कहें तो शरीर के जिन अंगों-प्रत्यंगों से निरंतर कार्य न लिया जाए उनमें रक्तबहाव और हरकत क्षीण होते-होते खत्म हो जाते हैं और वे मृतप्रायः हो जाते हैं। शरीर के निष्क्रिय अंदुरुनी स्थल कैंसर की कोषिकाओं को पनपने का अनुकूल वातावरण प्रदान करते हैं। इसीलिए स्वस्थ रहने के लिए शारीरिक व्यायाम पर खास जोर दिया जाता है। बैठे ठाले पुरुषों में कालन, एंडोमीट्रियल या छाती का कैंसर और उम्रदार महिलाओं में छाती का कैंसर अधिक होता है। लोकस्वास्थ्य विशेषज्ञ तथा सीडीसी के पूर्व निदेशक टाम फ्रायडन की राय में, ‘‘शारीरिक सक्रियता से भले ही आपके वजन में गिरावट न आए किंतु आप में कैंसर, दिल की बीमारियों, स्ट्रोक और अथ्र्राइटिस का जोखिम घट जाएगा, इसे आप अद्भुत दवा मान सकते हैं।’’ कैंसर के इलाज में रासायनिक दवाओं के खामियाजे और सीमित, अल्पकालिक लाभ का सत्य विशेषज्ञों सहित अनेक स्वास्थ्यकर्मी स्वीकारने लगे हैं और अपने अधिकार क्षेत्रों में इलाज के लिए उन्होंने दवाओं के एवज में या इनके साथ व्यायाम, योग, प्राकृतिक जड़ी बूटियों और सब्जियों-फलों का समावेश आरंभ किया है। फलीदार सब्जियों में मौजूद फाइटोकैमिकल कैंसर से हुई क्षति की असरदार तरीके से भरपाई करते हैं; विभिन्न प्रयोगों में ट्यूमरों की वृद्धि अवरुद्ध होने की पुष्टि हुई है। कैंसर से निबटने में टमाटर, चाय, अंगूर की भी भूमिका है। टमाटर को लाल बनाता (संभवतः लिकोपीन) विभिन्न कैंसरों खासकर प्रोस्टेट कैंसर का जोखिम घटता है। ग्रीन टी के सेवन से बड़ी आंत, लीवर, छाती, ऊतकों, त्वचा तथा अन्य कैंसरों में लाभ देखे गए हैं। अंगूर में विद्यमान रेज़्वेरेट्राल में सशक्त एंटीआक्सीडेंट और एंटीइन्फ्लेमेटरी गुण हैं।

कैंसर में खासकर फायदेमंद खाद्यों में अदरख, हल्दी, नींबू और खीरा हैं। हल्दी में मौजूद कक्र्यूमिन विभिन्न प्रकार के कैंसरों तथा अन्य कई बीमारियों के आक्रमण, प्रसार और विनाश में लाभकर है। जार्जस्टेट यूनिवर्सिटी ने विभिन्न परीक्षणों के आधार पर अदरख और हल्दी के सेवन को कीमोथिरेपी से सौगुना अधिक प्रभावी बताया है। अमेरिकी कैंसर शोध संस्थान का कहना है कि गहरे रंग की पत्तेदार सब्जियों व फलों में कैंसर से मुकाबला करने वाले पोषक तत्व अधिक होते हैं। संस्थान की यह भी संस्तुति है कि विटामिन आदि की गोलियां-शर्बतों आदि की तुलना में सब्जियों-फलों का नैसर्गिक सेवन कई गुना बेहतर है। पानी और तरल पदार्थों के सेवन में कोताही ठीक नहीं, ये विषाक्तता को हल्का कर मूत्र के जरिए शरीर से निष्कासित करने में सहायक रहते हैं।

कैंसर के नियंत्रण को दुष्कर बनाता इसकी कोशिकाओं का चलायमान, बेढ़ंगा स्वरूप है। अमेरिका के भौतिकी साइंसिज़ के औंकोलोजी सेंटर की राय में सामान्य गैर-मैलिग्नेंट (मैलिग्नेंट यानी कैंसरजन्य) कोशिकाओं की वृद्धि, और मौत एक निश्चित तौरतरीके से होती है, इनका एक पैटर्न होता है, अतः इन्हें काबू में लाना सुकर रहता है। इसके विपरीत मैलिग्नेंट कोशिकाएं निरंतर विभाजित होते-होते बेतहाशा तेजी से प्रसारित होती रहती हैं, ये मरती भी नहीं हैं। ये कोशिकाएं सूक्ष्म छिद्रों से भी आरपार हो जाती हैं और गैर-मैलिग्नेंट कोशिकाओं की तुलना में शारीरिक वातावरण में जोरदार असर डालती हैं। दूसरी बड़ी अड़चन कैंसर के मामलों का अंतिम चरण में पकड़ में आना है; रोग बढ़ जाने पर इसे काबू करना प्रायः दुष्कर होता है। इसीलिए किंग हैल्थ पार्टनर्स कांप्रिहैंसिव केयर के निदेशक डा0 आनंद पुरुषोत्तम का कहना है कि कैंसर नियंत्रण कार्यनीति का दारोमदार जांच केंद्रों के व्यापकीकरण और सुदृढ़ीकरण पर होना चाहिए; उन्हें उपलब्ध फंड की अपर्याप्ता पर रोष है, ‘‘कैंसर के प्रबंध में आवश्यक धनराशि से आधा भी बमुश्किल उपलब्ध रहता है।’’

कैंसरग्रस्त व्यक्ति से दरकिनार हो जाना अमानवीय कृत्य है, उसे नैतिक संबल की अधिक जरूरत रहती है। उसके समक्ष रुआंसी आंखों से पेश न आएं, बल्कि उसके मन में बैठाएं कि मनुष्य का आत्मिक बल उसे किसी भी विषम परिस्थिति से उबार सकता है। उसे अलग-थलग छोड़ने के बजाए उससे आपसी व अन्य सरोकार साझा करें, उसे डाक्टर के पास लाने-ले जाने में, कभी-कभार भोजन खिलाने या पहुंचाने में मदद करें।

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दैनिक नवज्योति के संपादकीय पेज पर 4 फरवरी 2021 को प्रकाशित। लिंकः http//epaper.net/clip/70144

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