महिलाओं के विकास में बाधा न बनें ‘मुक्ति’ आंदोलन

  1. आज नवयुवतियां और युवा किस उम्र में विवाह कर रहे हैं, उन्हें बच्चे कब और कितने चाहिएं – चाहिएं भी या नहीं?
  2. और महिलाओं को मुक्ति किससे चाहिए?अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) और महिला सशक्तीकरण के संदर्भ में  इस पर पुनर्विचार आवश्यक होगा।
  3. महिलाओं की प्राथमिक भूमिका:  धरती पर जीवन विलुप्त न हो, आबादी का पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता सिलसिला ठप्प न हो, इस आशय से प्रकृति की व्यवस्था में सन्तानोत्पत्ति का मुख्य जिम्मा मादाओं का है। मनुष्यों में ही नहीं, समस्त प्राणि जगत में नन्हों की पैदाइश और परवरिश का दारोमदार मादा वर्ग पर है। प्रकृति ने वनस्पतियों और मनुष्यों में तमाम मादाओं को रंग-रूपों, अदाकारियों और लावण्य से सराबोर इसलिए रखा ताकि शुक्राणुयुक्त ‘नर’ उनकी ओर आकर्षित हों और प्रजनन जारी रहे। सुंदरता उनका आभूषण नहीं, आवश्यकता है। इसी विधान की अनुुपालना में जहां चार वर्षीय नन्हीं को माथे की बिंदी से सैंडल तक मैचिंग चाहिए वहीं उसके हमउम्र भाई को कुछ भी चलता है।

दक्षिण कोरिया, हांगकांग, सिंगापुर, उक्रेन, इटली, रूस, उक्रेन, स्पेन, इटली जापान, मालदीव सहित जिन देशों में प्रजनन दर निम्न, अतिनिम्न, शून्य या ऋणात्मक है, वहां की सरकारें गंभीर चिंता में हैं, और विदेशियों को बुलाने-रिझाने व वहीं रचने-पचने के लुभावने अवसर प्रदान करती हैं। सन्तानोत्पत्ति का सिलसिला अविरल चलता रहे, इसी भाव से भारतीय संस्कृति में कमतर आयु के लोगों, विशेषकर नवविवाहित महिलाओं को ‘‘पुत्रवान् भव’’, ‘‘पुत्रवती भव’’ का आशीर्वचन देने की परिपाटी है।

स्थाई ठौर की आकांक्षा अनुचित नहीं:  प्रजनन, प्रसव और बाल देखभाल से जुड़ी महिलाओं की एक मूलभूत जरूरत टिकाऊ ठौर की है। सन्तानोत्पत्ति की पूर्वावस्था गर्भधारण से ही महिला को एक निरापद और अनुकूल आश्रय चाहिए ताकि संतति की संवृद्धि भलीभांति हो सके। फ्लैट या मकान के रूप में एक स्थिर ठिकाने की महिलाओं की चाहत औचित्यपूर्ण है। पारिवारिक रख-रखाव के निर्वाह में साधन जुटाने का दायित्व पुरुष का तय हुआ। घरेलू कार्यों के लिए महिला और बाह्य कार्यों के लिए पुरुष, यह कार्य विभाजन सभी आदि समुदायों का अलिखित, मान्य दस्तूर बन गया। सदियों चली इस व्यवस्था में महिला और पुरुष एक दूसरे के पूरक थे, उनमें आपसी प्रतिस्पर्धा या टकराहट का नहीं, साहचर्य तथा बंधुत्व का भाव था।

पश्चिम की देखादेखी:  कुछ पश्चिमी जीवनशैली की देखादेखी, और कुछ विदेशों में उपजे-पल्लवित नारी मुक्ति आंदोलनों के देशी गुर्गों द्वारा बरगलाए जाने से अपने देश की महिलाओं को संतति संबंधी उनके मुख्य दायित्व से विचलित कर दिया गया। पश्चिमी संस्कृति में संबंधों की वैसी अंतरंगता कभी न रही जैसा हमारे समाज में है, वहां बुजुर्गों को भरणपोषण और दुरस्ती के लिए सामाजिक सुरक्षा का मुंह ताकना पड़ता है।

भारत में संबधों की मजबूती:  एक भारतीय पर्यटक ने कब्रिस्तान में पति की कब्र पर पंखा झेलती विदेशी महिला को देखा तो दंग रह गया। जब कारण पता चला तो वह हतप्रभ रह गया; पति-पत्नी के बीच समझौता था  कि एक की कब्र सूखने से पहले उत्तरजीवी साथी दूसरा विवाह नहीं रचाएगा, इसीलिए यहां जल्दी से कब्र सुखाई जा रही थी।

संबंधों की मजबूती के लिए त्याग की भारतीय मिसालें पश्चिमी देशों की समझ से परे हैं। अनेक ‘सभ्य’ देशों में किशोरावस्था पार कर चुके बच्चों को पोसते रहना मातापिता को भारी पड़ता है। वे इस दलील पर बच्चों को घर से कूच करने की पेशकश करते हैं कि उनकी आमदनी नहीं भी है तो अपनी गुजर सरकार से मिलते बेरोजगारी भत्ते से करें।

भारतीय मूल्यों और तौरतरीकों को खारिज करने वाली वामपंथी सोच से अभिप्रेरित नेताओं, बुद्धिजीवियों का तुर्रा यह है कि (1) महिलाओं का सर्वोपरि लक्ष्य आर्थिक समृद्धि होना चाहिए; तभी वे सशक्त होंगी, उनका शोषण रुकेगा और उन्हें बराबरी का दर्जा मिलेगा वाला (2) समाज पुरुष प्रधान है और अपने अधिकारों के लिए उन्हें पुरुष-विरोधी लड़ाई में शामिल होना पड़ेगा।

रोचक यह है कि महिला मुक्ति आंदोलनों के कर्ताधर्ता प्रायः पुरुष होते हैं और सभी महिला आंदोलन पुरुष-विरोधी रुख अख्तियार कर लेते हैं। शहरों-कस्बों में आपको ऐसे संगठन मिल जाएंगे जिन्हें पुरुषों के खिलाफ मुद्दों की पुरजोर तलाश रहती है। महिलाओं के विरुद्ध घरेलू हिंसा का राग आलापते महिला सक्रियतावादियों को बहुओं द्वारा प्रताड़ित, अपमानित, तिरस्कृत वे सासें नहीं दिखतीं जो लाचारगी में कोर्ट के दरवाजे खटखटाने लगी हैं। मात्र आगरा में बहुओं के खिलाफ पच्चीस एफआईआर दर्ज हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में बहुओं द्वारा सासों पर दुराचार को घरेलू हिंसा माना है।

महिला सशक्तीकरण की सभी मुहिमों की मूल धारणा है कि महिलाएं निःशक्त हैं, जो स्वयं में विवादित है। घर, परिवार, गली, मोहल्ले, समाज, नगर, राष्ट्र स्तर पर जो निर्णय लिए जा रहे हैं उनकी पड़ताल करें; कितने ऐेसे क्षेत्र हैं जहां महिलाओं की अपेक्षाओं-इच्छाओं को दरकिनार किया गया? ग्रुशो मार्क्स की राय में हजार पुरुषों में मात्र एक ही नेतृत्व करता है जबकि शेष 999 पुरुष महिलाओं का अनुगमन करते हैं। अपने निजी दायरे का मुआयना करें, ऐसे कितने घर-परिवार हैं जहां महिलाओं की नहीं धकियाती। महिलाई क्षमताओं के बाबत कोई विवाद न थे, न हैं।

लैंगिक असमानताएं

महिला और पुरुष की शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक संरचना एक सी नहीं है, और इसीलिए उनके कार्यकलापों, प्राथमिकताओं और भाव व्यक्त करने के तौरतरीकों में भिन्नताएं हैं। विलियम हैज़लिट की राय में, महिलाएं बिना अधिक विश्लेषण के सहज ही एक निष्कर्ष पर पहुंच जाती हैं जो अमूनन सटीक होता है, जैसे पहली मुलाकात में ही पति या बेटे के मित्रों के मंसूंबों को भांप जाना; पुरुष को प्रायः इस सत्य का ज्ञान विलंब से, धोखा खाने के बाद होता है। मस्तिष्क के दोनों हिस्सों के सहज प्रयोग के कारण महिलाओं में एक स्वभावगत अंतर्दृष्टि विद्यमान होती है और वे आने वाले वक्त को बेहतर पढ़ लेती हैं। उनका उद्देश्य शारीरिक संपर्क की बजाए पारस्परिक संबंधों को सुदृढ़ बनाने में अधिक रहता है। महिला-पुरुष में तालमेल और सांमजस्य बना रहा इसीलिए प्रेमभाव का उद्भव हुआ, प्रेम की अंतर्धारा दोनों को जोड़े रहती है और दोनों मिलकर एक संपूर्ण अस्मिता निर्मित करते हैं। 17वीं सदी के कवि जान डन ने अपनी कविताओं में प्रेमी-प्रमिका की तुलना एक अविभाज्य इकाई से की है। वे कहते हैं, जोड़े में प्रत्येक पक्ष एक अर्धवृत्त के समान है, दोनों के एकीकरण के बिना संपूर्णता संभव नहीं है।

महिलाएं अपने स्वास्थ्य की अनदेखी न होने दें:  मन, चित्त, शरीर से स्वस्थ रहेंगे तभी अपना भला कर सकेंगे तथा घर-परिवार व दूसरों को संवार सकेंगे। संगत सही व्यक्तियों की हो; आपकी बेहतरी का ध्यान आपने स्वयं रखना है।

अपनी विकास यात्रा को अवरुद्ध न करें:  घर-परिवार को सुदृढ़ करने का जिम्मा निभाने से यह आशय नहीं कि महिलाएं निजी आकांक्षाओं को बिसार दें। शिक्षा, कौशल और अभिरुचि के अनुसार आकाश छूने का उन्हें भी अधिकार है। जूलिया रॉबर्ट्स का कहना अनुचित नहीं कि स्वतंत्र सोच वाली महिलाओं को उनके इरादों का पार्टनर चाहिए, न कि बिगड़ैल या अकर्मण्य व्यक्ति को दुरुस्त करने का प्रोजेक्ट। नौकरियों, साहित्य-कला, उद्यमों आदि में भारतीय महिलाओं ने शानदार उदाहरण प्रस्तुत किए हैं और वे अनेक नवयुवतियों के रोल मॉडल हैं।

किंतु उन्हें दिल में यह भी बैठाए रखना होगा कि वे समाज के अभिन्न, अविभाज्य अंग हैं और सामूहिक बेहतरी में ही उनकी बेहतरी निहित है।

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दैनिक आज में ‘‘विश्व बंधुत्व में महिलाओं का योगदान’’ शीर्षक से 11 मार्च 2021 को प्रकाशित आलेख का संशोधित संस्करण।  ………………………………………………………………………….

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