समान उम्र-काठी के ‘‘क’’ और ‘ख’ दो शख्स हैं, एक ही महकमे में एक ही पद पर दोनों ने एक साथ नौकरी शुरू की थी। दोनों की पारिवारिक, सामाजिक पृष्ठभूमि कमोबेश एक सी है।
‘‘क’’ है कि हमेशा मुंह फुलाए, मानो मार खाया हुआ है। हर किसी से असंतुष्ट; हर जगह उसे खोट दिखते हैं। जो भी बोलेगा, आधा अधूरा, खुल कर नहीं। शायद अपने पर भी बोझ है वह, लोग उसकी बाट नहीं जोहता। दूसरी ओर ‘‘ख’’ है, खिलखिलाया चेहरा। जहां जाता है, फिज़ाएं रौशन हो जाती हैं।
आप क्या सोचते हैं, मन से किसके बीमार होने के ज्यादा आसार हैं।
हर साल 10 अक्टूबर का दिन विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। यह विचार करने का अवसर है, अपनी सोच या कार्यों से मन और चित्त को अस्वस्थ तो नहीं करते। आप उनमें तो नहीं जिन्हें हमेशा जीवनसाथी, भाई, भाभी, बहन, बहनोई, मातापिता, पड़़ोसियों, मित्रों, आफिस में सहकर्मियों, बास से, अधीनस्थ कार्मिकों से कोई न कोई शिकायत रहती है। शिकायती सोच आपको मन से बीमार बना सकती है।
वे लोग मन-चित्त से जल्द बीमार पड़ेंगे जो मुखौटाप्रिय हैं। समाज में एक प्रथा सी बन गई है-तन, मन, धन, विचार से हम जैसे भी हों, दूसरों को आकर्षक, फिट-दुरस्त, संपन्न और सुंदर दिखने चाहिएं। मान्यता है कि सफलता तभी मिलेगी जब प्रभावशाली, रुतबेदार और श्रेष्ठ दिखेंगे। विद्यार्थी को विषय की जानकारी कम भी हो, बिल्कुल न हो, प्रैक्टिकल की फाइल शानदार, जलबेदार होनी चाहिए। प्रकाशन के लिए शोधपत्र प्रस्तुत करने का विधान है कि आलेख चाहे तीन पन्नों का हो, भारी भरकम संदर्भ सूची, बरई नाम सही, नत्थी होनी चाहिए। जच्चा-बच्चा की दशा को दरकिनार कर, इसे छिपा कर कि बच्चे को निमोनिया या पीलिया हो गया है, ऐलान इतना भर होता है कि डिलीवरी फलां नामी अस्पताल में हुई है। नई खरीदी गाड़ी का चित्र या सुदूर प्रांत में तफरीह का दृश्य सोशल मीडिया पर झटपट पोस्ट कर दिया जाएगा। सैरसपाटा बीवी की जिद्द के आगे घुटने टेक कर, क्रेडिट कार्ड के बूते संभव हुआ, इसकर भनक नहीं लगने दी जाएगी।
बेचारा मुखौटाप्रिय शख्स नहीं समझता कि जीवन की अधिकांश समस्याओं की जड़ दोहरा आचरण है। दोगली जिंदगी जीने को अभिशप्त ऐसे व्यक्ति को याद रखना भी कष्टकारी होता है कि फलां व्यक्ति को क्या कह रखा है। आयु बढ़ने पर शांति और अंदुरुनी सांमजस्य बनाए रखना दोगले व्यक्ति को भारी पड़ता है, उसकी अंतरात्मा उसे कचोटते रहती है। अंतकाल में कोई उसका साथ नहीं देता और वह एकाकी पड़ जाता है। स्वनिर्मित, आंतरिक संघर्षों से जूझते रहना उसकी नियति बन जाती है।
इसके विपरीत, दूसरों के प्रति घृणा, ईष्र्या या वैमनस्य से मुक्त सहज व्यक्ति को कुछ छिपाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसे बाहरी चकाचैंध या लोकप्रियता नहीं लुभातीं, वह भावनात्मक और मानसिक तौर पर संतुलित और संयत रहता है। उसका व्यवहार और आचरण पारदर्शी होता है, सहज व्यवहार के कारण उसकी अंदरुनी शांति बरकरार रहती है। उसे ज्ञात होता है कि अपनी कठिनाई या दुविधा के खुलासे और उस पर खुली चर्चा से समाधान मिल जाते हैं। उसकी जिंदगी ऐलानिया नहीं, सही मायने में खुली किताब होती है। तथ्यों तक पहुंचने के लिए उसके शब्दों को काटना-छानना, घटाना या निथारना नहीं पड़ता। दिल में किसी बोझ से मुक्त जीवन का हर पल उसके लिए उत्सव बन जाता है।
दूसरी बात, मन और शरीर चूंकि एक ही अस्मिता के दो पाट हैं, मन के गड़़बड़ाने से शरीर भी अस्वस्थ रहने लगेगा। दिलचस्प बात यह है कि मन खुशनुमां मोड में रखना आप पर निर्भर है। जिस तरह की सोच रखेंगे, वैसे ही बन जाएंगे।
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