‘‘मोदी सरीखों’’ से मेरा आशय नेताई बिरादर से नहीं बल्कि उस खास मिजाज की बिरादर से है जिनके उठने-जगने, खानपान, लेनदेन, व्यवहार और सोच के अंदाज मूलतया आम जन के तौरतरीकों से जुदा होता है। उनके अंदुरुनी सरोकार और मंसूबे लोगों के पल्ले सहज नहीं पड़ते। यह भी कह सकते हैं जिस अलहदा माटी की इनकी सोच और कार्य रहते हैं उन पर सामान्य सार्वभौम नियम-विनियम लागू नहीं होते। कला, कारोबार, दर्शन, लेखन, साहित्य, अध्यापन, आदि किसी भी क्षेत्र में इस बिरादर के नुमाइंदे पाए जाते हैं। इŸाफाक है कि मोदी राजनीति में हैं।
पहले सोने-उठने के प्रकरण पर विचार किया जाए। जब स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति के लिए रात्रिवेला में सात-आठ घंटे सोना अनिवार्य है तो इसके साथ जोड़ देते हैं, ‘‘सामान्यतया’’ या ‘‘सामान्य व्यक्ति के लिए’’। गौरतलब है, शरीर विज्ञान के नियम अनिवार्यतः सभी पर लागू नहीं होते, चुनींदा लोग क्यों छूट जाते हैं? सच्चाई यह है कि स्वास्थ्य विज्ञान में इसकी व्याख्या नहीं है। और संबद्ध व्यक्तियों में ईमानदारी से यह स्वीकारने का माद्दा नहीं कि भाई हम स्वयं नहीं समझ पाते कि चार-पांच घंटे की नींद से कैसे कुछ शख्स बखूबी काम चलाते हैं; उनसे कम फिट-दुरस्त और फुर्तीले नहीं जिनकी आठ घंटे में कमी रह जाए तो बेचारे पूरे दिन अलसाए, थकेमांदे रहते हैं।
सर्वविदित है, हमारे प्रधानमंत्री चैबीस घंटों में तीन-चार घंटे ही सोते हैं। शांतिकुंज के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा के शयन की अवधि मात्र तीन घंटे रहती थी, रात्रि नौ बजे से बारह बजे तक – उसके बाद ध्यान, अर्चना आदि का सिलसिला शुरू हो जाता था। लोकप्रिय प्रवाचक सदगुरू सोने के घंटों पर एक विडियो में बता रहे थे, ‘‘मानो आप तीन घंटे सोते हैं’’ तुरंत उन्होंने नाटकीय संशोधन करते हुए कहा, ‘‘मेरे मुहं से गलत निकल गया, सात-आठ या जितने भी घंटे जितना आप ठीक समझते हैं।’’ सोने के लिए वास्तव में कितना घंटे न्यूनतम जरूरी हैं, इसकी अपनी सुविचारित राय की झलक उन्होंने पेश कर दी थी, बशर्ते शख्स उस खास बिरादर का हो जिन्हें कुछ अलहदा करना है।
रसायनों का असर
हालिया पूरा हुए लोकप्रिय टीवी सीरियल ‘‘चंद्रगुप्त’’ में चंद्रगुप्त की सेना को शत्रुराज्य की कूटनीति के कारण ऐसे मार्ग से गुजरना होता है जहां दोनों ओर कोई खास विषैले पौधे हैं। इस पौधे के कांटे इतने विषाक्त होते हैं कि हलकी खरोंच लगने पर जीवित रहना संभव नहीं। अपनी सेना में सबसे पीछे चल रहे चंद्रगुप्त को यह कांटा लग जाता है, किंतु इस तथ्य को वह स्वयं तक गुप्त रखता है, उजागर कर देने से सेना का मनोबल टूट जो सकता है। घंटे, दिन बीतते जाते हैं किंतु चंद्रगुप्त का बाल बांका नहीं बिगड़ता। विष चंद्रगुप्त पर बेअसर रहा। इसी प्रकार वैज्ञानिक परीक्षणों के हवाले हालिया एक व्हाट्सऐप संदेश में सेब के बीजों में जानलेवा साइनाइड के सूक्ष्मांशों में मौजूदगी और इनका कतई सेवन न करने की सलाह है। बता दूं, दो ऐसे व्यक्ति मेरे संज्ञान में हैं जो बरसों, बल्कि दशकों से सेब काट कर दूसरों को पेश करते हैं किंतु घातक बताए बीजों समेत बीच के गूदे का सेवन बेहिचक कर रहे हैं और एकदम फिट, दुरस्त हैं।
दूरदराज के दुर्गम स्थलों में आज भी आपको कुछ साधु-संत मिलते हैं जो बरसों से बीहड़ वातावरण में, लंबी-लंबी अवधि तक ध्यानमग्न रहते हैं। ये वे इलाके हैं जहां कुछ घंटे गुजारना भी शहरी लोगों को भारी पड़ेगा। दूसरी ओर साधु-संत हैं, जो मिला खा लिया, अन्यथा फांका ही रहा। उनकी भी गुजर बसर चल रही है। पर्वतीय उŸाराखंड में बदरीनाथ से तनिक किलोमीटर आगे माणा और उससे परे प्रागैतिहासिक स्थल सतोपंथ में ऐसे फक्कड़ मिलेंगे जो बर्फीली फिजाओं में पूरे वर्ष तपस्यामग्न रहते हैं। सर्दियों की कड़ाकी ठंड के बावजूद। यों दिल्ली समेत उŸार भारतीय इलाकों में सदा ठंडे पानी से स्नान करने वालों को भी आप जानते होंगे।
आरडीए का फंडा
स्वस्थ रहने के लिए हमें कितना खाना चाहिए, इस बाबत खाद्य विशेषज्ञों ने प्रत्येक पोषकतत्व की एक न्यूनतम जरूरी मात्रा (रिकमेंडिड डाइटेरी अलाउंस – आरडीए) तय की है जिसका सेवन न किए जाने से शरीर का रोगग्रस्त या विकृत हो जाना बताया जाता है। अपने यहां मैसूर स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान विभिन्न तबकों के लिए अनिवार्य पोषण के मानदंड सुनिश्चित करता रहता है। आपने यह भी देखा होगा कि शारीरिक गठन, आयु, स्वास्थ्य और उनके कार्य की प्रकृति में समानता के बावजूद दो व्यक्तियों द्वारा ग्रहण किए जा रहे पोषक तत्वों की मात्रा में कई मर्तबा दुगुने, तिगुने का अंतर होता है। स्पष्ट है, आरडीए सिद्धांत सभी पर लागू नहीं होता।
यों खाद्यान्न सेवन में भारी विषमता वाली बात (आइंस्टीन द्वारा प्रतिपादित) संहति-ऊर्जा के परिवर्तनीयता सिद्धांत से समझी जा सकती है। भोजन का अतिसूक्ष्म अंश जैसे गेहूं या चावल का एक दाना भी अथाह ऊर्जा से परिपूर्ण है और इसका उचित विधि से सेवन हफ्तों बल्कि और अधिक अवधि तक हमें जीवंत, स्वस्थ रहने के लिए काफी है। लोकजीवन में खानपान के पैमाने तो जिह्वा की संतुष्टि के हिसाब से बनाए गए हैं।
प्रश्न सोने के न्यूनतम घंटों का हो, पोषणतत्वों की मात्रा का, स्नान के जल के तापमान का, मनुष्यों का एक तबका यदि अलहदा मानकों पर चल कर स्वयं को हृष्टपुष्ट रखता है तो उन मानकों को खारिज नहीं किया जा सकता। भोजन को ग्रहण करने के बाबत विचार करें। यदि अन्न को प्रकृति का तोहफा मान कर, कृतज्ञताभाव से इर्दगिर्द के पक्षी, पशुओं के लिए एक अंश निकाल कर इसे ग्रहण करेंगे हैं तो इसका एक एक कण शरीर द्वारा अवशोषित होगा और हमें समुचित ऊर्जा प्रदान करेगा, साथ ही यह शारीरिक और भावनात्मक तृप्ति देगा।
जीवन यापन में मध्यम मार्ग से विलग शैली अपनाने वालों के मंसूंबों पर गौर फरमाया जाए। इनके सरोकार निजी स्वार्थों तक सिमट कर नहीं रह गए हैं। इनके आचरण, व्यवहार और सोच में अन्यों के प्रति सदाशयता, नेकी की झलक मिलेगी – मसलन उनकी सोच खानपान प्रधान नहीं रहता; लजीज खानपान, आकर्षक ड्रेस या लग्जरी गाड़ी पास न होने पर इनका चैन नहीं उड़ जाता। वे ईश्वरीय, या कह सकते हैं प्राकृतिक अस्मिताओं से जुड़े रहते हैं, ईश की प्राप्ति और परहित इनका परम सरोकार रहता है।
हम भूल जाते हैं कि मनुष्य मांसल लोथड़े का पुंज भर नहीं है, उसका असल स्वरूप आध्यात्मिक है, यही अविनाशी, दिव्य अंश हमें प्रभु (प्रकृति) से जोड़े रखता है। जीवन की उच्चतर अवस्था में रहने के लिए इसी तथ्य को अनुभूत किया जाना है। दिव्य अस्मिता में आहार, निद्रा, लोक व्यवहार के सामान्य नियम लागू नहीं होते। दिव्यता की उच्चतर श्रेणी के मनुष्यों के रखरखाव का दायित्व प्रकृति अपने हाथ में ले लेती है और उसे क्लांत, थकने-हारने नहीं देती। परालौकिक शक्तिों के साहचर्य के कारण ऐसा मनुष्य अथाह शक्तियों से सराबोर रहता है, उसके हौसले सदा बुलंदी पर रहते हैं। स्परण रहे, किसी भी मनुष्य में अपने दिव्य स्वरूप को निखारने, परिमार्जित, परिष्कृत करने की क्षमता है, उसका यह अधिकार भी है।
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दैनिक वीर अर्जुन के रविवारी काॅलम बिन्दास बोल में 22 सितंबर 2019 को प्रकाशित।