आदि काल में पृथ्वी की संकल्पना अंतरिक्ष में मात्र एक ग्रह के रूप नहीं बल्कि समस्त ब्रह्मांड के बीचों बीच स्थित महाग्रह के रूप में की गई। सूर्य सहित सभी ग्रहों-उपग्रहों की भूमिका श्रेष्ठतम पृथ्वी के मुकाबले गौण समझी जाती थी। भारतीय धारणा की भांति यूनानी, चीनी आदि पुरातन संस्कृतियों में देखे-समझे जा सकने वाले विश्व के समस्त पदार्थों का निर्माण जिन पंचतत्वों से हुआ उनमें पृथ्वी का का स्थान सर्वोपरि था – शेष थे जल, वायु और अग्नि (कालांतर में इनमें ईथर का समावेश किया गया)।
मनुष्य सहित समस्त प्राणि-वनस्पति जगत को आश्रय, पोषण व विकास के उपचारात्मक साधन प्रदान उपलब्ध करती मां धरती सदा से कौतुहल और रहस्यमय अस्मिता रही है। इसीलिए आदिमानव इसे समझने के बजाए इसे एक महाशक्ति के रूप में पूजता था। पारिस्थिकीय श्रृंखला (इकोलोजिकल चेन) में जो गजब का तारतम्य है उसके लिए कोई भी शब्द अपर्याप्त हैं। जीवन के स्रोत – और ऐसी अस्मिता के रूप में जहां अंततोगत्वा सभी जीवों का विलय हो जाता है – सभी पंथों की अर्चनाओं, प्रार्थनाओं में देवी स्वरूप पृथ्वी का अह्वान किए जाने की परिपाटी है। आवासीय भवन से ले कर वैज्ञानिक प्रयोगशाला के निर्माण का श्रीगणेश भूमिपूजन बिना संपन्न नहीं माना जाता।
पृथ्वी के बाबत मनुष्य का सीमित ज्ञान
अनवरत शोध के बावजूद पृथ्वी की बहुस्तरीय संरचना और मानव-धरती के अंतर्ससंबंधों की समझ मनुष्य को सतही है। धरती की अंदरुनी सतहों को छोड़िए, सर्वोपरि सतह पर मौजूद विभिन्न जातियों-प्रजातियों प्राणियों-वनस्पतियों तथा खनिजों सहित अनेक संसाधनों की प्राथमिक जानकारी भी अब तक हासिल नहीं हो पाई है। विक्टर शॉबर्गर ने कहा था, ‘‘हमारी आदि मां धरती ऐसी जैविक अस्मिता है जिसकी कार्यपद्धति विज्ञान की समझ से परे है। जो भी जीव उस पर रेंगते-उड़ते हैं वे सब उस पर पूर्णतया निर्भर हैं और यदि धरती पर आंच आती है तो समूचे प्राणि जगत का विनाश हो जाएगा। आदि मानव को केवल यह मालूम था कि वह पृथ्वी का अभिन्न अंग है।
उपचारी शक्तियांः धरती की अथाह शोधनकारी और उपचारात्मक सामर्थ्य के बाबत आल्मा हुशेन्स ने कहा, ‘‘एक दिन हर किसी को समझ आ जाएगा कि दवाओं की मल्कियत धरती की ही है चूंकि औषधियां उसी के बगीचे से आती हैं।
सृजना का स्रोतः साहित्यकार, कलाकार व सृजनकार्य से जुड़े अन्य व्यक्ति श्रेष्ठ कलाकृतियां निर्मित करने के लिए और प्रेरणा व सुकून की चाहत में प्रकृति (यानी धरती) की ओर अक्सर मुखातिब होते रहे हैं। रैचेल कार्ससन मानते थे कि जो व्यक्ति प्रकृति के सौंदर्य का आस्वादन लेते हैं उनकी जिंदगी में कभी एकाकीपन या उकताहट की भावना नहीं आती।
पृथ्वी की अवधारणा न केवल उर्वरता, प्रजनात्मकता और मातृत्व के प्रादुर्भाव से संबद्ध है (ऋग्वेद में इसे महीमाता की संज्ञा दी गई है) अपितु इसे विकृतियों के निवारण का सशक्त साधन माना गया है। प्राकृतिक चिकित्सा की एक शाखा (मृदा चिकित्सा) में सभी व्याधियों का उपचार मिट्टी से किया जाता हैै। आदि मानव धरती पर बैठता, विश्राम करता व सोता था, नंगे पांव चलता था, मिट्टी से निरंतर संपर्क के कारण वह स्वस्थ रहता था। ज्ञातव्य है कि धरती में एक विद्युत प्रणाली मौजूद है जो हमारे शरीर की विद्युत प्रणाली से मेल खाती है और मनुष्य के लिए हितकर है। इस दिशा में आगामी शोध धरती के सानिध्य से मिलने वाले लाभों पर प्रकाश डालेंगे। यह देखा गया है कि जो लोग धरती से स्पर्श में रहते हैं वे स्वस्थ, अधिक जीवंत, उमंगपूर्ण रहते हैं, उन्हें अनिद्रा और क्रानिक दर्द की शिकायत विरले ही होती है बजाए उनके जो धरती की ‘ग्राउंडिंग’ के संवहन से संपर्क काट लेते हैं। मां धरती को अपनी सन्तति का सानिध्य सुहाने पर खलील जिब्रान कहते हैं, ‘‘यह कदाचित न भूलें कि धरती आपके नंगे पांवों के स्पर्श से … झूम उठती है।’’ यही वजह है, धरती को मां का स्थान दिए जाने की परिपाटी की झलक अनेक संस्कृतियों मिलती है। भारतीय मान्यता के अलावा दक्षिण अमेरिका में पंचमामा, पुराने मिडिल ईस्ट में की, निन्हुसाग, निन्टू, मम्मा या अरुरु, सरहद के एषियाई देषों में फ्रा माए थोरानी, विक्का में गाइया, आयरलैण्ड में दानू, तथा अन्यत्र गैया-जैना, पपट्वानुकु आदि की प्रथाएं दर्षाती हैं कि धरती के प्रति वैसा ही भक्ति, श्रद्धा और ममता का भाव रखा जाता था जैसा मां के प्रति।
सही मायनों में धरती वह स्थान है जो हमने आने वाली पीढ़ी से लीज़ पर लिया है। अतः यह लाजिमी है कि हम न तो इसके नैसर्गिक रूप के साथ छेड़छाड़ नहीं करें न ही इसके संसाधनों से खिलवाड़ करें। निहित स्वार्थ और निजी लाभ को सर्वोपरि मान कर हम मृदा, जल और वायु को दूषित कर रहे हैं। इसी ओर इंगित करते हुए रॉबर्ट ऑरबेन ने व्यंग्य में कहा, ‘‘वायु इतना अधिक प्रदूषण हो चुका है कि यदि हम इसे फेफड़ों में संचित नहीं करते तो जगह कहां थी।’’ कृषि के प्रकरण में, पर्यावरण के असंतुलन और मौसम में हेरफेर के चलते किसान भाई अक्सर दुविधा में पड़ जाते हैं कि कब वे बोआई करें और कब कटाई करें। वातावरण को डांवाडोल करने वाले अन्य कारक हैं नई तकनीकों और उपकरणों क अत्यधिक (बल्कि अनावष्यक) प्रयोग – ए.एम. एडीसन यहां तक कह गए कि आधुनिक प्रौद्योगिकी को पर्यावरण से क्षमायाचना करनी चाहिए, अनियोजित शहरीकरण। प्रकृति की व्यवस्था से छेड़छाड़ के दुष्परिणाम जगजाहिर हो चुके हैं। तो भी हम चेत नहीं रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र ने विश्व स्तर पर पर्यावरण संरक्षण, लुप्त होती प्रजातियों तथा बहुजैविकता जैसे मुद्दों पर विभिन्न राष्ट्रों की अनुपालनार्थ अनेक नीतिगत निर्णय लिए। पृथ्वी की अक्षुण्णता बनाए रखने हेतु हमें उसकी वृहत् ‘इच्छाओं’ के अनुसरण में स्वयं को ढ़ालना और उसके अनवरत संपर्क में रहने की पुरानी परिपाटी को बहाल करना अनिवार्य होगा। पृथ्वी के नैसर्गिक स्वरूप को बनाए रखने के बाबत जागरूकता बढ़ाने की दृष्टि से प्रति वर्ष 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस के रूप मनाया जाता है। धरती के संरक्षण कार्य की पुनरीक्षा के साथ जागरूकता बढ़ाई जाती है कि अहम पृथ्वी के मूल स्वरूप को बनाए रखने के प्रयास करें। धरती में विलय न होने वाले प्लास्टिक व अन्य पदार्थों के निर्माण व उपयोग घटाने या न करने तथा देहाती, खुली भूमि पर घर में बची सब्जियों-फलों के बीज कहीं भी डालने की आदत से हम धरती की बेहतरी में सहयोग कर सकते हैं।
पृथ्वी की संतान होने के नाते और भावी पीढ़ी को सुरक्षित, स्वच्छ परिवेश सुलभ कराने के परम उद्देष्य को ध्यान में रखते हुए हमे न केवल पर्यावरण अनुकूल प्रतिज्ञा करनी होगी किंतु ऐसे कार्य करने होंगे जिनसे धरती मां और उसकी अन्य संतानें आहत नहीं हों।
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