श्राद्ध और कृतज्ञता भाव

हिंदुओं द्वारा प्रतिवर्ष मनाए जाते श्राद्ध इस वर्ष (2024 में ) 2 अक्टूबर, मंगलवार को पूर्ण हो रहे हैं । श्राद्धकर्म से जहां पितर तृप्त होते हैं वहीं हम धन्य होते हैं। मान्यता है कि इस दिन वे सभी पितरों को श्राद्ध दे सकते हैं जिन्हें अपने दिवंगत करीबियों की पुण्य तिथि ज्ञात नहीं है।

कृतज्ञता दैविक भाव है, यह हमें उस परमशक्ति से जोड़े रखता है जिसके हम अभिन्न अंग हैं। इस परालौकिक स्वरूप के कारण कृतज्ञता की अभिवृत्ति मनुष्य में अद्भुत, अथाह शक्ति का संचार करती है, इस भाव का व्यक्ति जीवन में अनायास आती कठिनाइयों और चुनौतियों के समक्ष असहाय नहीं होता बल्कि उसमें निहित सामर्थ्य जाग्रत हो जाती है और वह दुष्कर परिस्थितियों से बखूबी निबटने में सक्षम होता है। उसे अहसास रहता है कि वृहत्तर शक्तियों का सहयोग उसे अवश्य प्राप्त होगा।

छुटपुट सुविधा प्रदाताओं को पैसा चुकाने के बावजूद आप धन्यवाद देते हैं। किंतु जिस मां ने आपको नौ माह कोख में पोसा, फिर आपके कारण हजारों कष्ट, नटखटें, नखरे सहे, तथा जिस पिता ने उंगली पकड़ कर लिखना, चलना सिखाया, आपके बेहतर भविष्य के लिए बहुत कुछ दांव पर लगाया, उनके प्रति आपकी भावनाएं और निष्ठाएं कितनी हैं? श्राद्ध के दिनों विशेषकर इसका आकलन स्वयं के व्यक्तित्व में निखार लाने और उन्नयन के लिए उचित होगा।

हमारी वर्तमान अस्मिता के निर्माण में मातापिता, मित्रों, शिक्षकों, परिजनों, अन्य व्यक्तियों, संस्थानों का योगदान रहा। हालांकि छोटी अवस्था में लेते रहने का प्रकरण अस्वाभाविक न था। सयानी आयु में पहुंचने पर समझना होगा, सृष्टि की योजना में दाता का स्थान सदा ग्रहणकर्ता से कहीं ऊपर है। जिनसे हमने पाया, उसे चुकाने की चाहत नैतिक और लौकिक विधान की अनुपालना में है, यही कृतज्ञता भाव है। स्मरण रहे, विगत परिस्थिति में जितना पाया उसकी प्रतिपूर्ति उसका बहुगुणित लौटाने भर से नहीं बल्कि आज जो उपलब्ध है उन सभी के लिए कृतज्ञता भाव संजोए रखने से होगी। आवश्यक नहीं जहां से आपने पाया वहीं लौटाएं। कृतज्ञता भाव को अपनाने वाला आध्यात्मिक दृष्टि से संपन्न तथा परालौकिक अनुकंपा का पात्र बन जाता है।

सनातनी मान्यता है कि श्राद्ध अर्पण से हम उस सुदीर्घ अनुवांशिक कड़़ी की अनेक अस्मिताओं के प्रति आभार व्यक्त करते हैं जिसके हम अंतिम, सर्वाधिक परिष्कृत प्रतिरूप हैं।

श्राद्ध कर्म का वैज्ञानिक पक्ष:  ऊर्जा के अविनाशी सिद्धांत के अनुसरण में दूरभाष प्रणाली के पितापह ग्राहम बैल मानते थे कि अतीत के युगपुरुषों, दार्शनिकों, वैज्ञानिकों आदि के विचार उसी भांति ब्रह्मांड में उपस्थित रहते हैं जैसे कंप्यूटर चिप में अथाह जानकारी संग्रहीत रहती है। इससे बढ़ कर उन्होंने कहा, युगपुरुषों से उचित संवाद बिठा कर उनके ज्ञान और सूझबूझ का लाभ लिया जाना संभव है। दिवंगतों के सूक्ष्म रूप में अस्तित्व के बाबत सुधी वैज्ञानिक ग्राहम बैल की मान्यता श्राद्ध प्रथा के अनुरूप है। मान्यता है कि श्राद्ध के पक्ष में पितर अपनी जीवित संततियों के प्रति जिज्ञासावश भूलोक पर अवतरित होते हैं और उनके आचरण को देख कर तुष्ट होते हैं। पितरों के लिए श्रद्धा भाव से पहले उनके स्वागत में अनुकूल वातावरण तैयार किया जाता है, तदुपरांत पूर्वजों की आत्माओं का आह्वान किया जाता है।

दिवंगत आत्माओं की शक्ति:  यह भी मान्यता है कि दिवंगत होने पर आत्माएं अधिक सशक्त हो जाती हैं। विधिवत तर्पण देने, ब्राह्मणों को भोजन खिलाने आदि से श्राद्ध कर्म संपन्न होता है और पितर तुष्ट हो कर नवपीढ़ी को आशीर्वाद प्रदान करते हैं, और हम धन्य होते हैं।

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इस आलेख का संक्षिप्त प्रारूप 5 अक्टूबर 2021, मंगलवार के दैनिक आज के संपादकीय पेज 6 पर आत्मबोध कॉलम में प्रकाशित हुआ।

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