अभिभावकीय भागीदारी बिन नहीं मुकम्मल होगी सही शिक्षा

bindas bol

व्यापक अर्थ में शिक्षा उससे ऊपर की चीज है जो स्कूल-काॅलेजों में पढ़ाई, सिखाई जाती है। बेशक शैक्षिक संस्थानों के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पाठ्यक्रम मार्किट की जरूरतों के अनुसार, रोजगार दिलाने सहायक हो सकते हैं। किसी ने यहां तक कहा, असल पढ़ाई तो काॅलेज की चारदिवारी छोड़ देने, डिग्री हासिल करने के बाद शुरू होती है। एक अन्य ने कहा कि स्कूल, काॅलेज से हम जो सीखते हैं उससे ज्यादा अहम वह होता है जो कक्षा से बाहर और वहां आते-जाते सीखा जाता है। यानी बहुत कुछ है अकादमिक दुनिया से बाहर जिन्हें जाने-गुने बिना जीवन संपूर्णता से नहीं जिया जा सकता। कारोबारी हुनरों का समावेश किए एक लोकप्रिय किताब है ‘‘व्हाट दे डोंट टीच इन हार्वर्ड’’ यानी कौन सी बाते हैं जो जानेमाने, विश्वस्तरीय बिज़नेस संस्थान, हार्वर्ड बिज़नैस स्कूल में नहीं पढ़ाई जातीं। इवान ईलिच तथा कुछ अन्य विचारकों की राय में तो तमाम औपचारिक शिक्षा व्यक्ति की उन मूल वृत्तियों की संवृद्धि में बाधक है जो उसे पूर्ण व्यक्तित्व प्रदान करती हैं, और जो उसे सही ढ़ंग से जीने के लिए जरूरी हैं। व्यक्ति की एक ढ़र्रे में कंडीशनिंग होने से वह सहज तौरतरीकों से जीने में अक्षम, रोबोटिक हो जाता है। इस मान्यता की पुष्टि में कहा जाता है कि जिन शख्सों ने दुनिया को सर्वश्रेष्ठ, कालजयी साहित्य, संगीत आदि दिया वे अकादमिक दृष्टि से फिसड्डी रहे; ऐसी फेहरिस्त में संत कबीर, शेक्सपीयर भी हैं।

तो भी व्यावहारिक जीवन में गुजरबसर के लिए और जिस स्टेज तक अपने ढ़ंग से जीना शुरू कर सकें तब तक के लिए, बच्चे को औपचारिक शिक्षा चाहिए ही। प्रश्न है, सार्थक जीवन के लिए उसे जो भी जानना, सीखना, बूझना है, स्कूल काॅलेज से इतर उसके स्रोत क्या होने चाहिएं। अपनी दुविधाओं, संशयों के निराकरण के लिए विश्वसनीय साधन क्या हैं।

एक आपबीती है। एक करीबी बंधु के बच्चे को बारहवीं में तनिक कम नंबर मिलने सेे दिल्ली में बीटेक नहीं मिल रही थी। हमने बाहर का रुख लिया। पंजाब के एक अच्छे काॅलेज में बात बनती दिखी। किंतु बालक को इंजीनियरी की उस ब्रांच में प्रवेश नहीं मिल रहा था जिसमें वह चाहता था। अपने पिता और मेरी सलाह के बावजूद वह आश्वस्त नहीं हो रहा था कि जिसमें सुलभ है वह भी अच्छी है। उसने फोन पर अपने एक मित्र से सलाह लेने की इच्छा जताई। चंद क्षणों में उसने अपना दोटूक निर्णय बताया, उसे यह कोर्स मंजूर नहीं था, कहीं और देखना पड़ेगा।

आज के बच्चों की फितरत है, जो भी जानना, सीखना, समझना है साथियों और सोशल मीडिया से, मातापिता से नहीं। बेशक कई मातापिता जमाने की जरूरत के अनुसार उचित कोर्स के चयन में सही राय देने में सक्षम नहीं होते और सक्षम मातापिता भी कोर्स के चयन में चूक कर सकते हैं। लेकिन खुले आंख-कान वाले उन अभिभावकों की भी बच्चे कहां सुनते हैं जो शिक्षित हैं, जिन्हें शिक्षा, रोजगार की बारीकियों की कमोबेश जानकारी है। आगे किसी कोर्स के चयन में ही नहीं, अन्य बड़े मामलों में भी क्या बच्चों को अपने मातापिता पर भरोसा है, क्या वे उन्हें इस योग्य भी समझते हैं? अपने मातापिता और परिजनों के निर्णयों के प्रति वे कितना विश्वस्त हैं? पांच साल के नन्हें को जो अकेले कमरे में पढ़ने, कंप्यूटर में लगे रहने और सोने के लिए छोड़ देने के कुपरिणामों के बारे में विचार करेंगे तभी बेहतरी आएगी। मातापिता बच्चों के सर्वाधिक विश्वासपात्र हो सकते हैं किंतु उनकी निरंतर अनसुनी और उनकी सदाशयताओं पर उंगली उठने की दुर्दशा के लिए मुख्यतया अभिभावक स्वयं जिम्मेदार हैं।

हर जगह पाॅलिटिक्स
एक बच्चे ने पिता से पुछा, पाॅलिटिक्स क्या है। पिता ने जवाब दिया, उचित मौके पर बताऊंगा। कुछ रोज बाद पिता-पुत्र एक पहाड़ी पर थे, बच्चा ढ़ाल में ऊपर की ओर था। बच्चे ने पूछा मैं आपके पास लंबा घूम कर आऊं क्या, या ऊपर से कूद जाऊं; धड़ाम से गिरने का खतरा जो था। पिता ने सलाह दी, निश्चिंत रहों, मैं हूं ना, छलांग लगाओ। बच्चे ने पुनः आशंका जताई, गिरूंगा तो भारी चोट आ सकती है। पिता ने यकीन दिलाया, हम हैं। ना, नीचे से थाम लेंगे। बच्चा कूद पड़ा, और जैसे ही बच्चा लुढ़कते हुए जमीन पर पहुंचा, पिता झट से पीछे हट गया। बच्चे के हाथ-पांव जगह-जगह छिल गए। बच्चे ने गुस्से से पूछा, ऐन वक्त आप पीछे हट गए। पिता का उत्तर था, मैं तुम्हें समझाना चाहता था, पाॅलिटिक्स किस चिड़िया का नाम है। घर में जोड़तोड़ और तिकड़मों से कुछ भी हासिल करने का क्रम चलता रहेगा तो बच्चे उसी रंग में ढ़ल जाएंगे।

अपने एक मित्र कहा करते थे, अपने बेटों को मैं ज्यादा नहीं पढ़ाऊंगा। पूछने पर कारण बताते थे, ज्यादा पढ़-लिख जाएंगे तो योग्य बन कर विदेश चले जाएंगे, बुढ़ापे में हमारी देखरेख के लिए साथ नहीं रहेंगे, हमारी दुर्गत हो जाएगी। और फिर, अपना बरसों का जमा-जमाया धंधा भी संभाल लेंगे। यानी अपने भविष्य के सुख की खातिर आप अपनी संतान की आकांक्षाओं में मददगार नहीं बनेंगे। घर-परिवार में ऐसे मौके आते रहते हैं जब मातापिता का आचरण बच्चों पर ताउम्र पाॅज़िटिव छाप बना लेता है। बच्चों को सन्मार्ग में रखने और उनके दिलोदिमाग में सही मूल्य बैठाने में अभिभावक अतुल्य भूमिका निभा सकते हैं। महात्मा गांधी कहते थे, गुणी मातापिता के समान कोई शिक्षक नहीं हो सकता।

अभिभावक रोल माॅडल बनें
शांति, ज्ञान या रुपया — आप किसी को वही दे सकते हैं जो आपके पास हो। जो शांत प्रवृत्ति का है, उस के पास जा कर आपको शांति मिलेगी। ‘‘वह थाम किसी को सकता, जो खुद ही बहता जाए?’’ जो माता या पिता दिनरात फेसबुक, चैटिंग, गप्पबाजी या परदोष खोजने में मशगूल रहते हैं, उन्हें बच्चे को इनसे दूर रहने की सलाह देने का अधिकार नहीं है। सिगरेट या अल्कोहल के सेवन में डूबा पिता अपने बेटेे को इनसे दूर रहने की किस मुंह से कह सकता है, उसकी सलाहों में नैतिक बल कहां से आएगा? एक फकीर का प्रसंग है। अत्यधिक चीनी खाने वाले बेटे की लत से परेशान एक मां बेटे सहित उस फकीर के पास समाधान के लिए गई। फकीर ने उसे अगले दिन आने को कहा। अगले दिन दोबारा फकीर ने अगले दिन आने को कहा। इस प्रकार पांच दिन हो गए तब जा कर फकीर ने उपाय बताया, जिससे लाभ हुआ। आखिर में मां ने फकीर से पूछा, आपने पहले ही दिन उपाय क्यों नहीं किया। फकीर का कहना था — मैं स्वयं अत्यधिक गुड़ खाया करता था। अभ्यास करते-करते जब मैंने स्वयं गुड़ को तिलांजलि दे डाली तभी मैं इसके त्याग की सलाह देने का अधिकारी बना।

श्रेष्ठ अभिभावक सद्भावनाओं, प्रगतिशील विचारों और कार्यों से अपनी संतान और अन्य बच्चों के रोल माॅडल बनते हैं। क्या उचित-अनुचित या अनुकरणीय है, इस बाबत उन्हें बच्चों को संदेश नहीं जारी करने पड़ते, उनका व्यवहार और कार्य बोलता है। मातापिता और परिजनों के प्रति आपका कैसा भाव रहा आप जानते हैं, आप जिन अदाओं में उनके साथ पेश आते रहे, आपकी संतानें इसकी साक्षी हैं। इसके विपरीत, आपकी सोच और कर्म खुदगर्जीे से सराबोर रहेंगे तो आपके गिर्द संवेदनहीनता और निष्ठुरता पसर जाएगी, और संताने भी इन्हीं फिजाओं में ढ़ल जाएंगी। बच्चे बहुत कुछ जाने-अजाने विरासत से पाते हैं। स्वाभाविक है, युवा मातापिताओं के पास आत्मसुधार के अधिक अवसर हैं, इसका लाभ भावी पीढ़ी को मिल सकता है।

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दैनिक वीर अर्जुन के ‘बिंदास बोल’ कॉलम में 14 जुलाई 2019 को प्रकाशित आलेख पर आधारित।
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