आत्मसम्मान विकृत हो जाए तो अहंकार में बदल जाता है

कुदरत ने हर किसी को अथाह समझदारी और ताकत दी है। किंतु आपके समझदार होने से दूसरा व्यक्ति बेवकूफ नहीं हो जाता। आत्मसम्मान का भाव हमें हौसले देता है, लेकिन दूसरों को हेय समझेंगे तो आप ही भाड़ में चले जाएंगे।

पति-पत्नी, पिता-बेटा, भाई-बहन, पड़ोसियों या मित्रों में जरा सी कहासुनी के बाद दोनों पक्षों के बीच संवाद ठप होने के अनेक उदाहरण मिलते हैं। अमुक समारोह में सहभागिता की आपकी प्रबल इच्छा थी, कुछ आवश्यक कार्य भी सधते, फिर भी आप नहीं गए, चूंकि आपको औपचारिक निमंत्रण नहीं मिला। आयोजकों से घनिष्ठता को भी आपने नाक कट जाने के डर से ताक पर रख दिया। दोनों मामलों में अहंकार की जीत हुई।

विरासत में मिला या आपने स्वयं अर्जित किया, जो भी आपका है, उस पर अभिमान न तो अस्वाभाविक है न अनुचित। इस अभिमान का अर्थ है आत्मसम्मान, जो व्यक्ति के होने को अर्थ देता है, उसकी प्रगति को विस्तार देता है, उसे अपने चित्त और शरीर को स्वस्थ, सुंदर रखने के लिए आगाह करता है। सकारात्मक दृष्टि लिए ऐसा व्यक्ति आशा और स्फूर्ति से सराबोर रहेगा। उत्साही और प्रफुल्लित मुद्रा में रहने के लिए आत्मसम्मान के भाव को निरंतर पुष्ट और सिंचित करना आवश्यक है।

दिल में यह बैठ जाए कि घर, कार्यस्थल या समाज में अपनी कोई सार्थक भूमिका नहीं है तो जीवन बोझिल, अंधकारमय और नैराश्यपूर्ण हो जाएगा। आत्मसम्मान घटने से अपनी नैसर्गिक प्रतिभा में निखार लाकर जीवन को परिमार्जित करना तो दूर, अपनी क्षमताओं की पहचान भी नहीं होगी। कालांतर में ऐसे व्यक्ति की सोच और कृत्य जीवनविरोधी हो जाएंगे।

आत्मसम्मान और अहंकार की विभाजन रेखा महीन और धुंधली है। आत्मसम्मान का भाव विकृत हो जाए तो यह शुद्ध अहंकार में तब्दील हो जाता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को प्रत्येक स्थिति में समझदार तथा सामने वाले को हर मायने में बेवकूफ और स्वयं से कमतर आंकता है। आत्मसम्मान के भाव से अभिप्रेरित व्यक्ति जानता है कि प्रत्येक व्यक्ति में कुछ खूबियां होती हैं और उनका निरादर नहीं करना है। यह सोच उसे सन्मार्ग की ओर प्रशस्त रखती है। दूसरी ओर, अहंकारी व्यक्ति अपनी जय-जयकार और वर्चस्व सुदृढ़ करने की चेष्टा में चाटुकारों से घिरा रहता है। कड़वे सच के एवज में वह झूठी प्रशंसा सुनना चाहता है, और यही उसका स्वभाव बन जाता है।

पद, प्रतिष्ठा, पदवियां और भौतिक समृद्धि की क्रमवार बढ़त सामान्य व्यक्ति को भ्रमित करते हैं कि वह उसी अनुरूप श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर हो रहा है। यह भी कि वह इन साधनों के कारण महान नहीं बना, वह पहले से ही महान था। अहंकार से सराबोर, उसकी प्रत्येक बात ‘मैं’ से आरंभ होती है, ‘मैं’ से विस्तार पाती है और ‘मैं’ पर खत्म होती है। मैंने यह किया, वह किया। मैं था तो बात बन गई, मैं न होता तो अनर्थ हो जाता आदि।

लोकप्रियता को महानता का मापदंड मानते हुए अहंकारी अपने प्रभावक्षेत्र को सुदृढ़ करने की चेष्टा में रहता है। प्रभावशाली व्यक्तियों से जुड़ कर तथा प्रशंसकों की भीड़ जुटा कर उसके अहंकार को तुष्टि मिलती है। छद्म मित्रों से घिरे रहने से वह अपने असल हितैषियों को पहचानने में अक्षम होता है और मतांतर व्यक्त करने वाले व्यक्ति को अपना शत्रु समझता है। दूसरे की असहमति उसके लिए मायने नहीं रखती। वर्तमान स्थिति से अतृप्त रहना उसकी नियति बन जाती है। इसके विपरीत आत्मसम्मान से सराबोर व्यक्ति स्वयं सौहार्दपूर्ण, खुशनुमा और संतुष्ट रहेगा और अपने गिर्द इन्हीं भावों का प्रसार करेगा।

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यह आलेख दैनिक नवभारत टाइम्स के स्पीकिंग ट्री कालम में 23 जून 2020 को प्रकाशित हुआ।

लिंकलिंक- आनलाइन संस्करणः https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/religious-discourse/moral-education-about-self-respect-81009/

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