हालिया मोबाइल में प्राप्त एक मैसेज में किताबों में तल्लीन मालूम पड़ते एक बालक को दिखाया गया। उसने करीने से, रस्सी से मोबाइल फोन को लटका रखा है, परदे के पीछे ऐसे कि किसी को भनक न पड़े। जब वह आश्वस्त होता है कि कोई उसके कमरे में यकायक नहीं प्रकट हो जाएगा तो वह मोबाइल के मार्फत फेसबुकी दुनिया में मशगूल हो जाता है। पिता के भीतर आने की आहट से वह सतर्क होता है, मोबाइल छोड़ देता है, जो परदे के पीछे अदृश्य हो जाता है। पिताश्री पढ़ाई में बालक की तन्मयता से गदगद हो कर उसका माथा चूमते हैं, दुनिया में उसकी तारीफ के पुल बांधते रहते हैं। यह सिलसिला चलता रहता है।
पिछले साल दिल्ली के कई प्रमुख चैराहों पर एक होर्डिंग दिखता था, इसमें लिखा था, ‘‘ऊपर वाला सब देख रहा है’’। हो सकता है इसके पीछे दिल्ली सरकार की मंशा भ्रष्ट आचरण या कदाचार में लिप्त व्यक्तियों को आगाह करना हो कि सुधर जाओ। इश्तहार जोरदार और अर्थभरा था चूंकि इसमें जिंदगी की वह सचाई थी जिस पर सभी को गौर फरमाना निहायत जरूरी है किंतु अफसोस, इस बाबत कोई नहीं सोचता। अनाचार के कृत्य करने में तब तक कोई हर्ज नहीं जब तक अगल-बगल देखने, सुनने वाला न हो। संतों ने कहा है, असल सत्कार्य वह है, पुण्य आपको तभी मिलेगा जो अपने को फ्रंट में लाए बगैर, गुमनामी में करते हैं, जब आपको पता ही न हो कि आपके किए का फायदा किसे मिलेगा। ऐसी आदत बन जाएगी तो गांठ में बांध लीजिए, आपकी जिंदगी खुशनुमां सफर में तब्दील हो जाएगी।
घर से शुरू किया जाए। घरेलू कामवाली फर्श को तभी चटकाती है जब कोई सयाना सामने होता है। आपके संज्ञान में होना चाहिए कि वह जीजान से काम करती है। कोई न देखे तो बच्चों को दूध पिलाने के एवज में नौकरानियों द्वारा दूध या खाना खुद ही चट कर जाने के किस्से आपने देखे-सुने होंगे। सरकारी-गैरसरकारी महकमों की बेहाली देखें। कार्मिकों की फितरत यों बन चुकी है कि कायदे का, सही में काम तभी करना है जब डंडा लिए कोई सर पर खड़ा हो या ऊपर तलवार लटक रही हो। कुछ उसी तर्ज पर जैसे हैडमास्टर के आने पर समूची क्लास के छात्र खुसर-फुसर छोड़ कर शांत भाव से किताबों में आंखें गड़े रहने का उपक्रम करते हैं। आॅफिस या फैक्टरी में मुख्यालय से आला अधिकारी या मंत्री पधार रहे हैं तो बिल्डिंग का कायाकल्प हो जाएगा, लिपाई-पुताई पर ही बेतहाशा खर्च कर लिया जाएगा। कोई देखेगा, इसकर। उनके चले जाने के बाद वही ढ़ाक के तीन पात।
सभी दूसरे को जताने के मकसद से कार्य करेेंगे तो समाज आगे नहीं बढ़ने वाला। एक राजा का प्रसंग है। उसमें इच्छा जागी कि दूध के पोखर में स्नान किया जाए। राजा ठहरा, ऐलाल करा दिया कि अगली सुबह प्रत्येक घर से एक एक लोटा दूध उस नवनिर्मित पोखर में डाला जाए। हर किसी के दिमाग में खुराफात सूझी कि इतने दूध में यदि मैं दूध के बदले एक लोटा पानी डाल दूं तो किसी को नहीं पता चलेगा। हर किसी ने इसी भांति सोचा। अगले दिन राजा पोखर देखने गया तो पोखर पानी से लबालब भरा था।
नामालूम संप्रति हम किस दौर से गुजर रहें हैं। उनकी क्या कहिएगा, जो सबसे ऊपर वाले या ऊपर वालों की तो क्या, अगल-बगल वालों की भी परवाह नहीं, जिनके दिल में आंखों की लाज भी जाती रही। पार्क के झुरपुटों की छोड़िए, सार्वजनिक बसों या मेट्रो में, माॅलों के गलियारों-सीढ़ियों में, चैराहों पर सरेआम चुम्मा-चुम्मी करते जोड़े मिलेंगे। बरसों पहले जानकार लोग मुंबई के बहुत कम रेट वाले उन छोटे-छोटे कोठों की बताते थे जहां दरवाजे के बदले परदे लगे होते हैं। बाहरी सभ्यता पर आंच न आए, इसलिए ड्यूटी पर तैनात पुलिस वाले को बीच बीच में आकर कोठे में व्यस्त शौकीनों को टोकना पड़ता था, ‘‘अबे, परदा तो ठीक से ढ़क दे’’!
कुछ भी करते रहें, कोई नहीं देख रहा है तो सब ठीक है, इस गलतफहमी ने एक से एक धुरंधर नेताओं, बदमाशों, कारोबारियों, बाबाओं, पादरियों व अन्य धर्मगुरुओं को दिन में तारे दिखा दिए। कई सलाखों के पीछे पहुंच गए हैं, कइयों का नंबर आने वाला है। हमारे प्रधानमंत्री बारबार ऐलान करते हैं, किसी भी भ्रष्टाचारी, कदाचारी को नहीं बख्शा जाएगा; वे जो बोलते हैं कर भी रहे हैं। धरपकड़ के बाद कदाचार में लिप्त व्यक्तियों की मिट्टी पलीत होने के अलावा अंदुरुनी तौर पर इनके साथ जो गुजरती होगी इसका अंदाज आप नहीं लगा सकेंगे। समाज के सामने जो उदाहरण प्रस्तुत होता है वह अलग।
अर्ज है, अपना समाज और देश वैसी तरक्की नहीं कर पाया जितना हममें सामथ्र्य थी, वह इसलिए कि कुछ भी करते हुए हमारा ध्येय सामने वाले को जताने पर रहा, अपनी अंतरात्मा के स्वरों को नहीं सुना। दूसरे को लगना चाहिए कि हम कितने स्मार्ट हैं, समृद्ध हैं, खुले विचारों के, मददगार और प्रगतिशील हैं, भीतरी तौर पर कैसे भी हों। दान देना है तो दूसरे को जताते हुए, ढ़ोल पीट कर। मंदिर में एक सीढ़ी निमिŸा दान देना है तो उस सीढ़ी पर नाम खुदा होना चाहिए – नही ंतो कोई फायदा नहीं, इससे तो न देना ही बेहतर है!
‘‘कोई देख रहा है, इसलिए हम अनुचित, आपŸिाजनक, अवांछनीय कार्य नहीं करेंगे’’ – ईमानदारी से कहें तो यह जुमला बहुत ही घटिया सोच वाले शख्स की होती है। अर्ज है, यदि जिंदगी पशुओं की भांति नहीं गुजारनी है, ठीक से जीना है तो ऊपर वाले को छोड़िए, सबसे उपर वाले की सुन लें। एक शानदार सच्चाई यह है कि ऊपर वाले का अंश आपके भीतर बैठा है – आपकी अंतरात्मा। याद रहे, दुनिया की सबसे बड़ी अदालत आपके भीतर है।
ऊपर वाले या वाली की मेहरबानी का एक प्रसंग
ऊपर वालों और सबसे ऊपर वाले की इनायत से बहुतेरों की जिंदगी खुशनुमां रहती है! बहुमंजिली बिल्डिंग की तीसरी मंजिल से एक नवयुवती नीचे झांक रही थी। झांक क्या रही थी, सड़क किनारे बैठे हस्तरेखा विशेषज्ञ के समक्ष हथेली फैलाए अपने युवा प्रेमी को निहार रही थी। ज्योतिषी उसे कुछ इस प्रकार बता रहा था, ‘‘बच्चा, तेरी खुशियां, तेरे गम, तेरी किस्मत, सब ऊपर वाले की इच्छा पर निर्भर है’’। प्रेमी की नजर ऊपर खिड़की से ताकती प्रेमिका पर अटक गई थी। उसने भविष्यवक्ता की दूरदर्शिता की दाद दी। फिर वह जेब से निकाला सौ रुपए का नोट पंडितजी को थमा रहा था।
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दैनिक वीर अर्जुन में 25 अगस्त 2019 को प्रकाशित
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