अति चिंतित रहने का अर्थ है महाशक्ति की व्यवस्था में संदेह करना। उस पर विश्वास रखें। हां, अपने कार्य निष्ठा से संपन्न करते जाएं।
चिंतन मस्तिष्क की स्वाभाविक क्रिया है। गर्भ में भ्रूण के निर्माण और प्राण आने के क्षण से ही मनुष्य की चेतना जाग्रत हो जाती है। यही चेतना उसके मस्तिष्क को सक्रिय रखती है। इसमें सतत विचारों और भावों का अविरल प्रवाह बना रहता है। महाभारत में अभिमन्यु द्वारा जन्म लेने से पूर्व ही सुन-सुन कर युद्ध कला में पारंगत हो जाने का उल्लेख है। गर्भस्थ शिशु की सोच स्वस्थ रहे, इस आशय से गर्भवती महिला को सकारात्मक विचार धरे रखने, अच्छी संगत में रहने और सद्साहित्य के अनुशीलन की संस्तुति की जाती है।
जीवन है तो चिंतन अपरिहार्य है। औसत मस्तिष्क में प्रतिदिन लगभग चौसठ हजार विचारों का आना-जाना बताया गया है। इन विचारों-भावों की प्रकृति और तीव्रता कैसी होगी यह उन जीवन मूल्यों और धारणाओं पर निर्भर है जिन्हें हम संजोते, सहेजते रहे हैं। मस्तिष्क का स्वभाव है कि जिस विचार या भाव की इसमें प्रतिष्ठा कर देंगे वही फल-फूल कर अपना वर्चस्व स्थापित कर देगा और इस कोटि से बेमेल विचार उसे स्वीकार्य न होंगे, उनका प्रवेश अवरुद्ध कर दिया जाएगा। अवांछित, अस्वस्थ विचार मन में घर जाएं तो उचित विचार की स्थापना दुष्कर होगी। अतः आवश्यक है कि जिस विचार या भाव को मस्तिष्क में स्थान दिया जा रहा है वह तर्कसम्मत, श्रेष्ठ और सुफलदाई हो। मनुष्य सौभाग्यशाली है कि प्रभु ने उसे मनमंदिर में कोई भी विचार या अभिलाषा आरोपित करने की अद्भुद सामर्थ्य प्रदान की है। हम इस बहुमूल्य उपहार को समझते हुए श्रेष्ठ, स्वस्थ विचारों और सुफलदाई मान्यताओं का चयन कर सकते हैं।
विचारों और भावों को नियंत्रित नहीं कर पाना अति चिंता (ओवर थिंकिंग) का लक्षण है। हालांकि मन को नियंत्रण में रखना सुदीर्घ साधना की ही परिणति है किंतु यह संभव, और बेहतरी के लिए आवश्यक है। अति चिंता मानसिक विकार है, और हमारे अनेक दुखों की जननी है। चिंतित व्यक्ति दूसरों पर बोझ बनता है, घर-परिवार, समाज में उससे दूरस्थ रहने की चेष्टा की जाती है।
कठिनाइयों से विचलित हो कर अतिचिंता में डूबे रहना कुछ व्यक्तियों की मनोवृत्ति बन जाती है जो कालांतर में उन्हीं के लिए घातक बन जाती है। वे नहीं समझते कि अधिसंख्य समस्याएं मनोकल्पित, निराधार होती हैं। दूसरी बात, ये अल्पजीवी होती हैं। ये कभी उतनी गंभीर नहीं होतीं जितना उन्हें मान लेते हैं।
सामान्य कठिनाइयों को जीवन मरण का प्रश्न न बनने दें। अति चिंता समाधान दिलाना तो दूर, समस्या को और जटिल बना देती है, मनोबल गिराती है, ऊर्जा का ह्रास करती है। चिंता यह भी दर्शाती है कि व्यक्ति का ईश्वरीय व्यवस्था में विश्वास नहीं है।
इस दिव्य जीवन पर चिंता की काली छाया न पड़ने दें, यह राकिंग चेयर की भांति है, वहीं आगे-पीछे डोलाती रहेगी, आगे नहीं बढ़ने देगी। परफेक्शन की नहीं सोचें।
संयत, शांत रहना सीख जाएंगे तो चिंता से ग्रस्त नहीं होंगे। अनावश्यक विचारों को मन से निष्कासित कर डालें, भविष्य की सुध लें। बुद्ध का संदेश है, उतना क्षति हमें कुछ और नहीं पहुंचा सकती जितना हमारे अपने ही अनियंत्रित विचार।
.. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. ..
इस आलेख का संक्षिप्त रूप ‘अतिचिंता’ नाम से 31 जनवरी 2025, शुक्रवार को दैनिक जागरण के ऊर्जा कॉलम (संपादकीय पेज) में प्रकाशित हुआ।
…. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. …. ….