सयाना, सुलझा हुआ, धैर्यशील व्यक्ति भी प्रियजन के जीवित न रहने पर एकबारगी टूट जाता है। अपनी असल भूमिका को पहचानते हुए अपने नए संस्करण बतौर उभरेंगे तभी एक अर्थपूर्ण, संतुष्टिदाई जीवन बिता सकेंगे।
उस महिता के पति असमय गुजर जाने पर पड़ोसी, रिश्तेदार, अन्य परिचित जन, सभी आशंकित थे, आगे न जाने क्या होगा? बेचारी पेशन की मामूली आमदनी से तीन बच्चों के परिवार का भार कैसे उठाएगी? पति की कम आमदनी के चलते पहले ही तंगहाल और बुझी-बुझी रहती।
वक्त एक सा नहीं रहता: समय का खेल देखें। चंद दिनों में ठीकठाक नौकरी मिल गई, और घर में जरूरी सुविधाएं जुट गईं। धीमे धीमे उस महिला के हावभाव, चालढ़ाल खिल गए थे। बन-ठन कर ड्यूटी के लिए निकलती तो अगल-बगल की नजरें ठिठक जातीं। उसके शब्दों में हौसले झलकते और व्यवहार में आत्मविश्वास। कभी अनदेखी करने वाले अब उसकी गौर से सुनते। ऐसा नहीं कि पति के प्रति उसका बेरुखी का रिकार्ड रहा हो, बल्कि दांपत्य कर्तव्य निभाने में उसकी मिसालें दी जाती थीं। उस महिला को समझ आ गया था कि उसे शेष दिन भविष्य में गुजारने हैं और पति की अनुपस्थिति में जीवन की लौ को बुझने नहीं देना है।
जीने की ललक: जिजीविषा यानी जीने की ललक बहुत दमदार होती है। वार से बच गया अधमरा तिलचट्टा निष्प्राण हो जाने का स्वांग रचेगा और मौका पा कर जान बचाने के लिए सरपट ओने-कोने में ओझल हो जाएगा। आड़ी-तिरछी अखंडित चट्टानों के बीच पनपते, धीमे-धीमे भारी भरकम आकार ले चुके पीपल का पेड़ आपने भी देखा होगा। बयां न कर सकने वाली दुष्कर परिस्थितियों के बावजूद गिरते-उठते अनेक मरियल से दिखते शख्स बुलंदियों तक पहुंचे। लीक पर न चलने के कारण उन्होंने घोर तिरस्कार और अपमान के घूंट पिए। न भूलें, सोच के नए आयाम, गहराई और दूरदर्शिता उन्हीं को सुलभ हुई जो ऊबड़खाबड़, कष्टकर राहों से गुजरे। दूसरे छोर पर चुनौतियों से कतराने वाले व्यक्ति हैं जो ताउम्र एक ही पड़ाव पर ठहर गए।
डिप्रेशन की प्रकृति को समझें: विषाद से उबरने के लिए स्वयं को नई परिस्थिति में ढ़ालना होगा, इस आशय से अपने अभिनव रूप में उभरना होगा। ऐसों से उलट एक तबका उनका है जो परिजन के विरह में हमेशा के लिए गुमसुमी में चले गए और तमाम सांसारिक खुशियों से वंचित रहे। डिप्रेशन की खासियत है, यह अपनी ओर मुखातिब शिकार को ऐसे दुष्चक्र में जकड़ लेता है जिससे पिंड छूटना सरल नहीं होता। इसीलिए डिप्रेशन को पनपने से पहले ही कुचल देना इसका सर्वोत्तम समाधान बताया गया है। डिप्रेशन के मामले उनमें ज्यादा मिलते हैं जिन्होंने अपने सरोकार न्यूक्लियर परिवार तक सीमित रखे। नतीजन बाहर कुछ भी बेहतरीन दिखना उन्हें बंद हो गया। सोशल मीडिया के जरिए या इने-गिने पिछलग्गुओं के सामने अपने जीवनसाथी या संतान के गुणगान आलापते रहना उन्होंने प्रमुख एजेंडा बना लिया। इस बिरादर वाले हर किसी को हेय मान कर उनसे औपचारिक से ज्यादा संवाद नहीं रखते। यह भी धारणा बना लेते हैं कि दुनिया खुदगर्जों से सराबोर है, और मेरे परिजन, मेरे सहकर्मी, मेरे समाज वाले घटिया स्तर के हैं। वैसे भी नश्वर, मायावी संसार में कुछ भी सार्थक किया जाना संभव नहीं।
नश्वर संसार नहीं, हमारा जीवन है। संसार तो तब भी चल रहा था जब हम न थे, तब भी चलता रहेगा जब हम न रहेंगे। जन्म और मृत्यु के बीच की छोटी सी यात्रा का नाम ही जीवन है। मृत्यु चरम सत्य है, यह ज्ञान सभी को है, प्रश्न इस कड़वे सत्य को गले उतारने का है। ‘मैं’ और ‘मेरा’ के जाल में हम इतना जकड़ जाते हैं कि स्वयं के बिना संसार की कल्पना करने में अक्षम हो जाते हैं। स्वयं की तथा परिजनों की मृत्यु की कल्पना भयावह होती है, इसीलिए मनुष्य इस विचार से सिरहता-कतराता है। धारणा यह रहती है कि आज जो संतोषजनक है, जैसा है, वैसा ही चलता रहेगा जबकि कालचक्र का अपना दस्तूर है। जिसने खुले मन से सदाशयताओं और सरोकारों का दायरा घर-परिवार तक परिसीमित नहीं रखा, परिजन से अंतिम जुदाई की पीड़ा उसे नहीं तोड़ सकी।
बुरा समय टिका नहीं रहता: वियोग की पीड़ा की तीव्रता ज्यादा नहीं टिकती हालांकि हर कोई सदमे से जल्द नहीं उबर पाता। समझना और समझाना होगा कि वृहत्तर शक्तियां जिंदादिलों के लिए एक-दर-एक अवसर प्रस्तुत करती हैं। सदमे से बाहर निकलना पर्याप्त धैर्य मांगता है, किंतु तभी व्यक्ति नई सुबह के लिए सुसज्जित हो सकता है।
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यह आलेख परिवर्तित रूप में 28 अगस्त 2024, बुधवार के नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री कॉलम (संपादकीय पेज) में ‘‘उसने जीवन की लौ बुझने नहीं दी, हम भी वही करें’’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ।
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