अंडे के शौकीन एक व्यक्ति को सुबह नाश्ते में उसकी पत्नी चाय के साथ दो उबले अंडे, या आॅमलेट परोसती थी। जिस दिन आॅमलेट मिलता उसका शिकवा रहता, उबले अंडे चाहिए थे। उबले अंडे मिलते तो वे मुंह बना लेते, आमलेट क्यों नहीं बना। बेचारी पत्नी रोजाना कसमकस में रहती कि आज क्या करूं? एक रोज पत्नी ने एक अंडे का आॅमलेट बनाया और एक अंडे को उबाल कर पेश कर दिया। पति महोदय की हवा गुल! तनिक सोचने के बाद पत्नी को लताड़ लगाई, ‘‘सारा गुड़ गोबर कर डाला!’’। पत्नी पशोपेश में, अब क्या माजरा हो सकता है। पति ने तुरुप छोड़ी, ‘‘जिस अंडे का आॅमलेट बनाना था, उसे उबाल दिया, जिसे उबालना था उसका आॅमलेट बना दिया!’’
बातें नहीं, काम कीजिए
कुछ भी चाहिए, बक-बक करते रहने के लिए नहीं तो बहुतों का हाजमा खराब हो जाएगा, दिन का चैन और रात की नींद उड़ जाएगी, राजनीति में विरोधियों या चूहों की मानिंद। जानते हैं, चूहे को कुतरते रहने के लिए कुछ न कुछ चाहिए। और कुछ न मिले तो वह लकड़ी या प्लास्टिक को भी नहीं छोड़ता, अपनी आंखों मैंने देखा है। बताते हैं, कुदरत ने उसके दांत ऐसे बनाए हैं कि वह कुतरता नहीं करेगा तो उसके दांत निरंतर बढ़ते जाएंगे।
हाथपांव चलाना या स्वयं कोई ठोस योगदान करना छींटाकसी की बीमारी से ग्रस्त व्यक्तियों के बस की नहीं, वे लंबी-लंबी हिदायतें जरूर देंगे। अपने बीमार मातापिता की टहल आप मनोयोग से करते हैं, ताउम्र करते रहने को तैयार हैं, किंतु वे आपको दर्जनभर मशविरे देंगे, इनके लिए फलां फलां कर देना। सही इलाज पर चल रहे मरीज को देखने जाएंगे तो जरूरी दवा या खाना पहुंचाने जैसे कार्य करने के एवज में दो-एक डाक्टरों से परामर्श और दो-एक देशी-विदेशी दवाएं निहायत जरूरी बताना अपना परम धर्म समझेंगे। कर्मठता और उद्यमिता से एलर्जी वाली इस बिरादर के लोग आपको विस्तार से बताएंगे, फलां काम क्यों नहीं हो सकता, इसमें कितनी बड़ी बाधाएं हैं और इसीलिए नए काम की जुर्रत करना मूर्खता है।
अपनी सोच, कार्य योजना, कार्य विधि या निर्णय से आप संतुष्ट है तो किसी के समर्थन की आवश्यकता नहीं है। अरुचिकर टिप्पणी या आलोचना कभी कभार ही सुधार की भावना कदाचित ही होती है, अक्सर इनका आशय दूसरे को नीचा दिखाना होता है। निर्भीकता से पूछिए – क्या आपका फलां-फलां आशय तो नहीं, उसे अपनी पोजीशन स्पष्ट करनी पड़ेगी, उसके दिल में कदाशयता होगी तो वह झेंप जाएगा और पुनः आपको गिराने की चेष्टा नहीं करेगा। एक विचारक ने कहा है, यदि आप चाहते हैं कि कोई आपके खिलाफ कोई वक्तव्य नहीं दे तो कुछ न बोलें, ऐरे गैरे बन जाइए (से नथिंग, डू नथिंग, बि नथिंग)। सन्मार्ग के राहियों पर अमूनन कटु आलोचनाओं की बौछार होती है।
मन मंदिर कचरे के लिए नहीं है
मनुष्य को प्रभु ने अथाह सामथ्र्य युक्त मस्तिष्क दिया है और यह क्षमता भी प्रदान की है कि वह अपने विवेक और इच्छा से इस मन में जिस किसी विचार या भावना को स्थान दे, उसे पल्लवित और सवंर्धित करता रहे। जिस प्रकृति के विचारों और भावनाओं की वह इस मन मंदिर में प्रतिष्ठा करेगा उसी अनुरूप उसका आचरण और व्यवहार बनेगा और जिंदगी होगी।
जीवनसाथी, भाई, बहन, माता-पिता, बच्चे, परिजन, पड़ोसी, सहकर्मी या अनजान व्यक्ति आपके निमिŸा कुछ करता है तो उसका आभार महसूस नहीं करना और जताना आपके लिए भविष्य में घाटे का सौदा हो सकता है। उसकी भावना की कद्र करेंगे तो संबंधों में मिठास घुल जाएगी। यह सोच कि उसने कौन सा बड़ा काम कर दिया, अहसानफरमोशी है, इसमें अहंकार झलकता है कि आपके अधिकार ही अधिकार हैं और दूसरों के कर्तव्य ही कर्तव्य। दीगर बात है, यह सोच आपके पतन का कारण बनेगी। प्रशंसा या आभार ज्ञापन वास्तविक है या बनावटी, यह साफ पता चल जाता है। ऐसा न हो कि बगैर जाने यकायक एक रोज पत्नी के परौंठे की तारीफ करने लगें; और आप पर दनादन शुरू हो गए चूंकि परौंठे तो पड़ोसन ने भिजवाए थे। सबक – पहले हालात जानिए, फिर टिप्पणी दीजिए।
मुंह लटकाए रखना; सदा परेशान-हैरान, दुखी-खिन्न-व्यथित रहना; दूसरों की हर बात, कार्य और आचरण में खोट नजर आना; खिसियाए रहना; शिकायत के मौके तलाशना, ये सब आपके मौलिक अधिकार हैं! वैसे ही जैसे आप जब चाहें, जहां चाहें, स्वयं को बीमार करार कर सकते हैं। अपने दिमाग में जो चाहें आप ठूंस कर रखें, यह पूर्णतया आपके विवेक पर निर्भर करता है। किंतु स्मरण रहे, व्यर्थ के कचरे यानी कुत्सित, नकारात्मक भावों को मन मंदिर में संवार कर रखेंगे तो अच्छी, सुफलदाई विचारों के लिए जगह नहीं रहेगी।
एक ही घटना या परिस्थिति में लोगों की सोच एक दूसरे से एकदम उलट कैसे होती है इसका नमूना आपको लोगों के हावभाव और उनकी नेपथ्य की प्रतिक्रिया से मिलेगा; अर्ज है उनके लफ्जों पर मत जाने की भूल न करें, धोखा हो जाएगा। मनोभावों की भनक न लगने देने और जाहिराना क्या बोलना चाहिए, क्या नहीं, इस कला में अधिकांश लोग पारंगत हो गए हैं। मिसाल के तौर पर, कोई महफिल में अपने बेरोजगार बेटे को शानदार नौकरी मिलने या बेटी की बात तय होने का खुलासा करता है तो सभी सुनने वाले बेशक प्रसन्नता जाहिर करेंगे, गले लगेंगे या बधाइयां देंगे। गले लगने वालों में ऐसे भी होंगे जो गुपचुप बुदबुदाएंगे ‘‘काश, मेरे बेटे को यह नौकरी मिल जाती’’ या ‘‘हाय, मेरी बेटी का क्या होगा, अपनी तो किस्मत ही फूटी है।’’ कुछेक ही होंगे, जिनके चेहरे पर पसरी खुशी साफ दिखेगी। विरलों की फितरत होती है दूसरे के सुख में सुखी होना! अपने एक चचेरे भाई के कर्मठ जीजा ने कई बरसों की मेहनत के बाद थोक बाजार में अच्छी खासी दुकान हासिल की। दुकान देखते वक्त मैं चचेरे भाई के साथ था। दुकान देखने भालने के बाद भाई ने कानाफूसी की, ‘‘काश, ऐसी दुकान मेरी होती!’’ दूसरे की तरक्की, खुशहाली की खबर आप पर किस तरह का असर डालती इससे आपकी फितरत और श्रेणी निर्धारित होती है।
ड्राइंग रूम को चमकाते-दमकाते हम भूल जाते हैं कि हमारे मन भी एक ‘‘रूम’’ है और इसकी संवार निखार बाहरी ड्राइंग रूम से कम जरूरी नहीं है। अपने अंतःकरण में किस प्रकार के विचारों और भावनाओं को प्रतिष्ठित और सवंर्धित किया जाए, इससे हमारे जीवन की दिशा-दशा तय होती है और यह भी कि हमारी जिंदगी कितनी तृप्तिदाई और खुशगवार रहेगी, या फिर रोते-कुढ़ते गुजरेगी।
अतीत के अप्रिय, कष्टदाई प्रसंगों पर ज्यादा चिंतन-मंथन करेंगे तो दिमाग को पैरालिसिस हो सकता है। प्रभु ने हमें जीवन आनंद से जीने के लिए दिया है, पोस्टमार्टम करने के लिए नहीं। यह तब होगा जब दूसरों को कष्ट नहीं देंगे, जैसा ब्रह्मकुमारी शिवानी ने कहा, ‘‘शांति उसे ही मिलती है जो दूसरों को शांति देता है। जो दूसरों को अशांति देता है उसे कभी शांति नहीं मिल सकती’’।
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दैनिक वीर अर्जुन के बिंदास बोल स्तंभ में 1 सितंबर 2019 को प्रकाशित