जो चाहेंगे वह अवश्य मिलता है, इसलिए भलीभांति विचार कर लें, क्या चाहिए?

बेहतरीन मंजिलों तक पहुंचने के लिए दहकती चाहत आवश्यक है। चाहत के प्रचंड होने पर व्यक्ति की सुषुप्त शक्तियां जागृत होती हैं, ब्रह्मांड की शक्तियां सहयोग देती हैं, और मनोवांछित मिल जाता है। इसीलिए, हमें क्या चाहिए, इस बाबत भलीभांति विचार कर लेना आवश्यक है।

लोभ से प्रेरित एक भक्त की अपार साधना से अभिभूत हो कर प्रभु बोले, ‘‘वत्स! कहो, क्या चाहते हो?’’ भक्त ने इच्छा व्यक्त की, ‘‘जिस भी वस्तु को मैं स्पर्श करूं वह स्वर्ण की हो जाए’’।

उस भक्त का हश्र आप जानते हैं, वरदान अभिशाप बन गया था। उस वरदान को निरस्त करने के लिए प्रभु से उसे पुनः याचना करी पड़ी थी।

क्या वे धन्य हो गए जिनकी पदोन्नति में रुकावट, व्यापार में घाटा, बेटी के मेडिकल में प्रवेश में विफलता, बेटे को शीघ्र मोटे पैकेज की नौकरी न मिलने जैसी बाधाएं दूर हो गईं? फलाना कार्य फलीभूत होने पर सदा के लिए जीवन में बहार आ जाएंगी, इस भ्रांति से जितना शीघ्र और जिस हद तक बाहर आएंगे उसी अनुपात में सुख-चैन रहेगा। जो चीजें आपके पास नहीं हैं, उनकी लालसा बनी रहेगी तो उनके आनंद से वंचित हो जाएंगे जो आपके पास हैं। अपने सर्वो सर्वोत्तम, दीर्घकालीन हित में क्या है, इसका स्पष्ट ज्ञान नहीं होगा तो जो मिलेगा वह दुख का कारण बन सकता है।

विकृत व्यवहार, कदाचार और अपराध का मूल वैचारिक, आध्यात्मिक या अन्य कोटि की विपन्नता है। स्वयं को प्रभु का अंश समझेंगे तो स्वयं में निहित अपार क्षमता और संपन्नता का अहसास रहेगा, तब सांसारिक इच्छाएं क्षीण हो जाएंगी और भौतिक अस्मिताओं के छिन जाने का विषाद भी असह्य न होगा।

दूसरी ओर, बरसों-दशकों से जिन सपनों की खातिर आप ने सब कुछ दांव पर लगा दिया वह प्राप्त होने के बावजूद तुष्टि नहीं मिलने का अर्थ है कि वह चाहत आपकी वास्तविक जरूरत के अनुकूल नहीं थी यानी चाहत का चयन सुविचार से नहीं किया गया था। सांसारिक इच्छाओं की आपूर्ति होने पर क्षणिक संतुष्टि भले ही मिल जाए, किंतु अपेक्षाएं धरी रह जाती हैं। वैसे ही जैसे मोटी पगार पाने वाली संतानों पर इतराते, उन्हें सर-आंखों पर रखते, मातापिता संतति द्वारा अपेक्षाओं पर पानी फेर देने से औंधे गिरते हैं।

जिंदगी से क्या चाहिए, दुनिया में किससे क्या और कितना चाहिए, इस बाबत स्पष्टता रहे तो मोहभंग और हताशा की नौबत नहीं आएगी। इच्छाएं, आकांक्षाएं संजोते समय जान लें कि चूंकि प्रभु ने हमें किसी निर्धारित प्रयोजन से इहलोक में भेजा है अतः उसी की अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य किए जाएं, तभी उनसे रस मिलेगा। उस परमपिता में अडिग आस्था के रहते जीवन की बाधाओं और कठिनाइयों से विचलित नहीं होंगे।

बेहतर होगा, प्रभु का दिए उपहारों की सूची बनाएं: संपूर्ण स्वस्थ शरीर, परिवार जन, मित्र, आजीविका का साधन, रहने को छत, दो जून का सुनिश्चित भोजन, कुछ भी करने की अथाह क्षमता। इसके बाद आपको क्या चाहिए? प्रभु या कहीं और से कुछ मांगने से पूर्व विचार करें, कोई व्यर्थ की वस्तु तो नहीं मांग रहे। बेहतरीन जीवन के लिए बाहर से कुछ अन्य नहीं चाहिए। याद रहे, अनेक व्यक्तियों के रोल माडल हैं आप; वे तरसते हैं, काश वे आपकी स्थिति में होते!

आपकी उपलब्धियों से कहीं अधिक अहम वह दिशा है, जिस ओर आप अग्रसर हैं। दिशा बोध रहेगा तभी मंजिल तक ठीक पहुंचेंगे। बहुत से निष्ठावान, कर्मठ व्यक्ति अथक प्रयासों के बावजूद अपने गंतव्य तक इसलिए नहीं पहुंचे चूंकि उन्हें गंतव्य के बाबत स्पष्टता नहीं रही। सफलता के लिए दिशा उतनी ही अहम है जितना कर्मठता और लगन। दिशा सही रहेगी तो विकार और त्रुटियां भी कालांतर में निराकृत होते जाएंगी। और जब दिशा प्रभु की ओर हों तो बहारें आएंगी हीं।

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तनिक संक्षिप्त रूप में यह आलेख 27 अगस्त 2020 के नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री काॅलम के तहत “सोच साफ रहे तो मोहभंग की नौबत कभी नहीं आती” शीर्षक से प्रकाशित हुआ। आनलाइन संस्करण का शीर्षकः ‘‘देखिए किस तरह इस भक्त का वरदान बन गया अभिशाप’’।
लिंकः https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/religious-discourse/see-how-the-gift-became-a-curse-of-this-devotee-84312/

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