बच्चे बहुत छोटे हैं तो बात अलग है। अन्यथा न उन्हीं की दुनिया में रमें रहें, न उनके कार्यों में दखल दें। ढ़लती उम्र में सुख-चैन से जीना है तो संतान से उम्मीदें न लगाएं। याद रहे, अपनी टहल आपने खुद करनी है।
धन्य समझें आप जीवित हैं, इन पंक्तियों को पढ़ने योग्य भी। कई हमउम्र तो बेचारे चल बसे।
अधिसंख्य बुजुर्गों की दुनिया कुछ यों हैः एक बड़े, भुतहे-से मकान में डोलते दंपत्ति, तो कहीं मात्र एकल बुढ़िया या बूढ़ा। जीने की आस है तो हफ्ते-दस दिन में विदेश में सपरिवार रचपच गए बेटे या बेटी के टेलीफोनी संवाद जिनके मार्फत नई परिसंपत्तियां जोड़ने, बेहतर नौकरी जाइन करने जैसी उपरी बातें बताईं जाएंगी। रिश्तेदार, परिजन, मित्र पहले भी कम आते थे, मौजूदा कोरोना युग में क्या कहें! अब भूले भटके मुलाकातियों, चलते-फिरतों, गार्ड या कामवाली को संतान की बातें अगली काल आने तक बार-बार आलापी जाएंगी, सुनने वाला न मिले तो खुद को समझाएंगे कि बेटा लायक है, परदेश में है, खुश है, फल-फूल रहा है, और क्या चाहिए?
संतानें बगल में हों तो भी कुछेक ही बुजुर्ग चैन से हैं चूंकि उन्हें बोझ, फालतू का मानते हुए बच्चे उनसे नपीतुली बात करेंगे, वक्त नहीं है! बच्चों की परवरिश, पढ़ाई आदि के खर्चों के चलते हमेशा गर्दिश में रहे, अब रहने-खाने को है किंतु गले नहीं उतरता, गटक लें तो पेट दिक्कत करता है। गठिया, शुगर, ब्लड प्रेशर, देखने-सुनने, चलने-फिरने में दिक्कत, कुछ तो लगा रहता है। सबसे अधिक पीड़ादाई है एकाकीपन की तड़पन। चाहने-पूछने वाला कोई न हो, इससे बड़ा कष्ट क्या हो सकता है? देश के 12 करोड़ बुजुर्गों की कमोबेश यही गत है।
एकमात्र पोते की शादी में ना मालूम कब से दिलखोल भागीदारी की उम्मीदें-उमंगें संजोए एक बुजुर्ग को यकायक किसी रिश्तेदार ने बात पक्की होने की बधाई दी तो बुजुर्गवार को धक्का लगा। संयत हो कर बेटे को फोन लगाया, ‘‘बाहर के व्यक्ति से अभी सुना कि अगले महीने शादी है। इत्तिला तो कर दिए होते!’’
धांसू पद-प्रतिष्ठा वाले सुपुत्र का जवाब था, ‘‘पापा, आफिस में इन दिनों नए प्रोजेक्ट के चलते ज्यादा ही व्यस्त रहा, लड़की के मातापिता मस्कट से जैसे तैसे तीन दिन के लिए आए, आपको सगाई में बहुत मिस किया, मैं ही जानता हूं। क्या बताऊं, मैं आपकी कितनी इज्जत करता हूं, मेरे मित्र इसके साक्षी हैं। लेकिन हां, शादी से पांच-सात दिन पहले आपने यहीं आ जाना है, प्रामिस करें।’’
ऐसा जीना तो जीना न हुआ, कुछ और सोचना होगाः ढ़लती उम्र में मन, चित्त और शरीर को कमोबेश अपने बूते स्वस्थ रखने के तौरतरीके जो मातापिता व उम्रदार नहीं अपनाएंगे उनके लिए खुशनुमां रहना दुष्कर हो जाएगा। उन्हें आज की पीढ़ी द्वारा बड़ों-बूढ़ों को सम्मान देने के नवाचार को समझना होगा जो अमूनन इस ऐलानिया वक्तव्य भर से होता है, ‘‘मैं आपकी बहुत इज्जत करता हूं’’।
वे दिन लग गए समझा जाए जब जमीन-मकान खरीदने, नया उद्यम शुरू करने, नौकरी बदलने, स्वयं के या बच्चों के लिए जीवनसाथी तय करने जैसे अहम अवसरों पर बुजुर्गवारों से सलाह-मशविरे से उन्हें सम्मान देने की प्रथा थी। मातापिता सहित जिन व्यक्तियों की दशकों से हमारे प्रति सदाशयताएं संदेह से परे रही हैं उनके समर्थन और सहमति से किए कार्यों से कर्ता को जो नैतिक संबल मिलता था वह अनायास बिगड़ती-टूटती स्थिति को संवार लेता था। बुजुर्गों तथा अन्य सुधी व्यक्तियों की हार्दिक सहमति और आशीर्वचनों में परालौकिक शक्ति का समावेश जो रहता है।
आशीर्वाद सभी को चाहिए, बगैर एवज में कुछ किएः बुजुर्गों का ‘आशीर्वाद’ उन्हें भी चाहिए जिन्हें बुजुर्गों के सरोकारों, उनके सुख-दुखों की लेशमात्र परवाह कभी न रही। बेचारे नहीं समझते, वे ही आशीर्वचन फलीभूत होंगे जो तहेदिल से दिए जाएं, बरई नाम नहीं। वैसे ही, जैसे दिल की गई प्रार्थनाएं अवश्य साकार होती हैं। यह भी लाक कर दिया जाए, जीवन में कुछ भी इकतरफा नहीं चलता, आपको दिल से आशीर्वाद वही देगा जिसके प्रति आपके हृदय में वास्तव में निष्ठा, श्रद्धा और समादर हो और आशीर्वाद देने-लेने वाले के बीच अंतरंगता स्थापित कर ली गई हो। आज यदि कम से कम चौथाई शादियां छह माह भी नहीं टिकतीं तो शायद इसलिए कि उस कार्य में नेक, सुधीजनों की हार्दिक शुभकामनाओं का अभाव था।
संयुक्त परिवार के दौर में पोते-नातियों के सानिध्य में बुजुर्ग स्वस्थ, खुशनुमां रहते, वे न केवल नन्हों और बच्चों के साथी, सलाहकार और संरक्षक का दायित्व निभाते बल्कि पारिवारिक देखरेख, मतभेदों, दूसरों की गैरमौजूदगी में घर की रखवाली आदि में भी सकारात्मक भूमिका अदा करते। युवाओं, अधेड़ों की बदल चुकी फितरतों के चलते सुख शांति से रहना हो तो बुजुर्ग उनके कार्यों में हस्तक्षेप न करें, अयाचित सलाह भी भारी पड़ सकती हैं। बुजुर्गवार अपने आशीर्वाद अपने पास रखें, ये कमतर आयु वालों को नहीं चाहिएं। बुजुर्गों का फोकस केवल अपनी उन जरूरतों की आपूर्ति पर रहे जिसकी दीर्घकालीन उपेक्षा से उन्होंने काफी कुछ खोया है।
न होने वाली उम्मीदें रखेंगे तो तकलीफें बढ़ेंगी हीः बुजुर्ग संतति से वे आशाएं रखते हैं जो पूर्ण नहीं होने वाली, यही उनकी व्यथा का कारण है। अपेक्षाएं जिस अनुपात में रहेंगी, जीवन उतना ही कष्टप्रद होगा। स्वास्थ्य के प्रति बेहतर जागरूकता और अधिक चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध होने से जीवन प्रत्याशा बढ़ी है। तथापि, कोई बड़ी बीमारी न भी लगे, उम्र के ढ़लते शारीरिक, मानसिक और भावात्मक क्षमताएं क्षीण होने लगती हैं, पहले वाली स्फूर्ति नहीं रहती, याददाश्त धुंधलाती है, मल-मूत्र जैसे संवेगों पर नियंत्रण डगमगाता सकता है। इन्हें जीवन का सत्य मानते हुए हालातों से संतुष्ट रहें, फिट रहने के उपायों में ढ़ील न हो। कुछ नया निरंतर सीखते रहेंगे, घर-परिवार के नाना कार्यों में यथासंभव हाथ बंटाते रहेंगे तो जीवन की संध्या में नैराश्य नहीं पसरेगा। नजरिया बदलें, दुनिया बदल जाएगी।
बुढ़ापा जीवन की अपरिहार्य अवस्था है, हर किसी को एक दिन इस खेमे में आना है। इसीलिए कहा गया है, खुशहाल बुढ़ापे की तैयारी जवानी में की जाती है।
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दैनिक नवज्ज्योति के संपादकीय पेज पर 1 अक्टूबर 2020, बृहस्पतिवार को प्रकाशित।
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परिवार के सुचारु संचालन, और बेहतरी के लिए समूची उम्र व्यक्ति जीतोड़़ श्रम करता है, लेकिन अपने भविष्य को ताक पर रख देता है। इसीलिए वह जल्द ढ़ल जाता है, मन से बीमार पड़ने लगता है। अनेक बुजुर्ग किचकिच शुरू कर देते हैं, खासकर जब तंगहाल हों। अतः आमदनी की व्यवस्था शुरुआती दौर में करना श्रेयस्कर होगा।
बहुत सही कहा है। यह काफी है कि बच्चो के लालन पालन के बाद आप कुछ एन्जॉय करने लायक बचे रहें। यह बची खुची जिन्दगी सिर्फ आपके लिए होनी चाहिए।