ठीक खाएं और ठीक से खाएंः अन्न के एक-एक अंश का लाभ मिलेगा

शादी के मंडप में खानपान काउंटर पर दो बच्चों को साथ लिए ओट में खड़ी एक महिला पर नजर पड़ी। उसके हाथ की प्लेट में ज्यादा नहीं तो दस-बारह ठीक साइज़ के गुलाब जामुन रहे होंगे। वह जबरन एक-एक पीस बच्चों के मुंह में ठूंस रही थी। कुछ खा चुकने के बाद बच्चे आनाकानी कर रहे थे, लेकिन ‘‘बस एक और खा ले, मेरे लल्ला’’ कहते उन्हें मजबूर कर रही थी। कुछ ही देर बाद उनमें से एक उल्टी (वमन) करने लगा।

अनेक माताओं की सदाबहार शिकायत रहती है कि उनका बच्चा खाता ही नहीं, ‘‘हाय क्या होगा’’ भले ही उसका खाना कम न हो। जहां मौका लगे वहीं बच्चे के मुंह में ठूंसने लगेंगी। उनकी धारणा होती है कि ज्यादा खाने से बच्चा स्वस्थ रहेगा। डरती भी हैं, दूसरों को पता चलेगा कि उसके बच्चे का खाना ठीक है तो नजर न लग जाए!

मात्रा का प्रश्न
सारा खाया-पिया मुंह से जिस जगह जाता है वह पेट है, अपना पेट। अर्ज है, इसे कचरादान न बनने दें। शरीर में डाले गए भोजन में से जितना शरीर को जरूरत होगी उससे एक सूत ज्यादा ग्रहण नहीं करेगा, इसे बाहर कर दिया जाएगा। अतिरिक्त भोजन पाचन अंगों पर खामख्वाह का दबाव बनाता और उनके कार्य संचालन को बाधित करता है। ज्यादा खाना मोटापा भी लाता है। अतिरिक्त आहार की जरूरत पेट को नहीं, मन को रहती है। सुना होगा, ‘‘पेट तो फुल है किंतु दिल नहीं भरा’’।

दो व्यक्तियों की शारीरिक बनावट, आयु, वजन, दैनिक कार्य की प्रकृति, स्वास्थ्य आदि समान होने पर भी उनके भोजन की जरूरत अलग-अलग क्यों होती है? जितनी मात्रा ग्रहण करने के अभ्यस्त होंगे उतना हम आवश्यक मान लेते हैं, सच यह है कि उससे थोड़ी मात्रा का अभ्यास बना लेंगे तो उतने से ही संतुष्टि मिल जाएगी। अच्छे स्वास्थ्य के लिए उम्रवार औसतन प्रत्येक पोषकतत्व (कार्बोहाइड्रेट, फैट, विटामिन, माइक्रोन्यूट्रिएंट आदि) की कितनी-कितनी मात्रा में जरूरी है, इस बाबत राष्ट्रीय पोषण संस्थान (एनआईएन) ने मानक जारी किए गए हैं। ‘‘आरडीए’’ नाम से प्रचलित इन मानकों की समूचे देश में संस्तुति की जाती है।

आरडीए सिद्धांत के उलट, आयुर्वेद पर आधारित भारतीय तौरतरीकों में मान्यता है कि आहार की मात्रा जितनी कम रखेंगे स्वास्थ्य उसी अनुपात में बेहतर रहेगा। एक प्रसंग है। स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता के आकलन के लिए आदिकालीन चिकित्सक महर्षि चरक पक्षी का रूप धारण कर वैद्यों के बाजार जा कर बोलते हैं, ‘‘कोऽरुक्’’ यानी नीरोग कौन है? जवाब इस प्रकार मिले, जो च्यवनप्राश खाता है, द्राक्षासव खाता है, स्वर्णभस्म का नियमित सेवन करता है, आदि। सबसे भिन्न उत्तर सिद्ध वैद्यराज वाग्भट्ट का था, ‘‘ऋतुभुक्’’ यानी जो मौसम के अनुकूल आहार ग्रहण करता है। वही प्रश्न (कोऽरुक्) दोहराया गया तो उत्तर आया ‘‘हितभुक्’’ यानी जो आहार के सेवन में हितकर और अहितकर पर विचार करता है। महर्षि चरक ने तीसरी बार ‘‘कोऽरुक्’’ कहा तो वैद्यराज बोले, ‘‘मितभुक्’’ यानी अल्प मात्रा में भोजन ग्रहण करने वाला। अंतिम बार ‘‘कोऽरुक्’’ पूछे जाने पर उन्होंने तीनों उत्तर एकसाथ कह डाले, ‘‘ऋतुभुक्, हितभुक्, मितभुक्’’। यानी जो इन तीनों तथ्यों पर विचार से भोजन ग्रहण करेगा वह स्वस्थ रहेगा।

भोजन की मात्रा कम हो इस बाबत बताया गया है कि पेट की जितनी क्षमता है उससे करीब आधा वायु के लिए छोड़ना चाहिए, शेष का आधा स्थान जल के लिए रखा जाए और बची जगह का भी आधा भोजन के निमित्त। भोजन में जिह्वा की संतुष्टि को प्रधान मानती पाश्चात्य संस्कृति में जो इंद्रियों को मन को भावे उससे इतर सोचने की जरूरत नहीं है। यही सही मानते हुए आज लोकजीवन में स्वादिष्ट भोजन का बोलबाला है। खास आयोजनों में घर-समाज में ही नहीं, सरकारी बैठकों में कई मर्तबा मुख्य एजेंडा आगामी सम्मेलन में मैन्यू का रहता है। इसी सोच की परिणति है कि अनेक बीमारियों को आमंत्रित करता मोटापा आज जनस्वास्थ्य की प्रमुख चुनौती बन गई है। चिकित्साविदों की स्पष्ट राय है कि मोटापे का हृदय रोग, हाइपरटेंशन, किडनी की बीमारी आदि अनेक विकृतियों से गहरा संबंध है। बचपन में मोटापा से ग्रस्त हो जाएं तो आगे जा कर परेशानियां झेलनी ही पड़ती हैं।

एक वक्त था जब खाना नहीं मिलने से लोगों की मौत होती थी। आज हालात उलट हैं; भुखमरी से उतने लोग नहीं मरते जितने ज्यादा खाने से। अधिक या बारबार मुंह चलाते रहना (बिंगे ईटिंग) अनेक व्याधियों की जननी है।

खाद्यान्न के प्रति दृष्टिकोण
अन्न हमें जीवन देता है, इसीलिए भारतीय तथा अन्य आदि संस्कृतियों में इसके प्रति विशेष समादार है। देवी-देवताओं की आराधना के साथ साथ अन्न की अर्चना-स्तुति हिंदू अनुष्ठानों का अभिन्न अंग है। इसी परिप्रेक्ष्य में अन्न की बर्बादी नैतिक अपराध है। मानवीयता की दृष्टि से विचार करें तो आवश्यकता से अधिक थाली में लेना पाप है चूंकि इस कृत्य से आप अन्यों के हिस्से का अन्न अधिगृहीत करते हैं। अफसोस है कि जितना खाने योग्य अन्न शहर के कचरादानों के सुपुर्द कर दिया जाता है उससे समूचे शहर के भूखों को भोजन खिलाया जा सकता है। आवश्यकता से अधिक थाली में नहीं लेते तो यह भी अन्नदान है।

भोजन ग्रहण करने की मुद्रा
भारतीय संस्कृति में हस्त प्रक्षालन, आसन ग्रहण करने का विधान है। फिर ईश्वर का आभार व्यक्त किया जाता है कि उसने हमें जीवित रहने के लिए पृथ्वी पर खाद्यान्न उपलब्ध करवाए। अन्न एक भौतिक संसाधन नहीं बल्कि ईश्वर द्वारा प्रदत्त प्रसाद है। इस विधि से सेवन किया अन्न शरीर द्वारा भलीभांति अवशोषित हो कर संपूर्ण ऊर्जा प्रदान करता है। कुछ व्यक्ति  प्रस्तुत भोजन में सहजीवियों को भागीदार बनाते हुए इसे ग्रहण करने से पूर्व इसका एक अंश गाय, कुत्ता, कौवा, आदि के निमित्त अलग रख देते हैं।

भोजन करने की मुद्रा इसके अवशोषण और ऊर्जा में तब्दील होने से संबद्ध है। हड़बड़ाहट, क्रोध या अन्य आवेश में भोजन के सेवन से पेट में इसका रासायनिक विघटन सुचारू रूप से नहीं होगा। भोजन गले से उतरने के बाद पाचन प्रणाली के विभिन्न हिस्सों से गुजरता है जहां इनमें चरण-दर-दर अनेक एंजाइमों और रसायनों का समावेश होता रहता है, तभी भितरी नलिकाएं इसे भली भांति अवशोषित करने में समर्थ होती हैं। मन-चित्ता सहज न होने से पाचक एंजाइमों के निर्माण में अवरोध होता है और भोजन के साथ इनके एकीकरण की क्रिया बाधित होती है। नतीजन ऐसे भोजन से शरीर को स्वाभाविक तौर पर मिलने वाली ऊर्जा सुलभ न होगी।

खानपान की किस्म और इसे ग्रहण करने के तौरतरीके उचित होंगे तो आपको खाद्यान्न के एक एक कण का लाभ मिलेगा, मानवजाति के प्रति अपने दायित्व का आप बेहतरीन निर्वाह करेंगे और आपका जीवन संवरता चला जाएगा।

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यह आलेख दैनिक वीर अर्जुन में 19 जुलाई 2020 को मेरे रविवारी स्तंभ ‘‘बिंदास बोल’’ में प्रकाशित हुआ।
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