उनकी आदतन झुंझलाहट सातवें आसमान पर थी। पत्नी अंदर आती दिखी तो बरस पड़े, ‘‘हजार बार समझाया है, पड़ोसन से इतना बतियाना ठीक नहीं, न जाने तुम्हें कब अक्ल आएगी।’’ अब टीवी देखते बेटे और उसके मित्र का नंबर आया, ‘‘फिर टीवी से चिपक कर देख रहे हो, कितनी बार समझाया, पांच फुट का फासला निहायत जरूरी है, आंखें फूट जाएंगी, तब सुधरोगे। और हां, तुम्हारा यह नया साथी दुबला क्यों है, संतुलित भोजन नहीं करता क्या? इसे बताओ, सेहत है तो जीवन है।’’ खाना सामने पेश हो चुका था तो बेटी की बारी आईः ‘‘हलुआ सबसे बाद खाते हैं, सब्र रखो! तुम्हारे हिस्से का हम नहीं चट कर लेंगे।’’खासी तादाद है समझाने वालों की, इस लत के मारे एक ढूंढ़ोगे दस मिलेंगे, दूर ढूंढ़ोंगे पास मिलेंगे। समाज सुधार के स्वयंभू ठेकेदार समझाने को बेताब रहेंगे भले ही मजनून की भनक न हो। किसी को कुछ न कुछ समझाने का अवसर न मिलने पर वे अपराध बोध से ग्रस्त हो जाएंगे; किसी रोगी से मिलेंगे तो उसे कोई दवा या परामर्श के लिए किसी डाक्टर का नाम ठिकाना बताना नैतिक कर्तव्य मानते हैं।
हालात को समझे बगैर दूसरे को समझाने वाला स्वयं को सर्वाधिक बुद्धिमान और ज्ञानी होने के भ्रम जीता है। उसे नहीं कौंधता कि उसके बुद्धिमान होने से दूसरा व्यक्ति मूर्ख सिद्ध नहीं होता। जहां ज्ञान है, समझ है, वहां विनम्रता का वास होता है, अहंकार वहां नहीं टिकता। उसके हृदय में आयु, शिक्षा, अनुभव, सोच, शक्ति में कमतर व्यक्तियों के लिए तुच्छता का नहीं बल्कि दया भाव रहता है। उन्हें वह कमतर नहीं आंकता, चूंकि उसे पता होता है कि उनके भीतर भी उसी परमशक्ति का दिव्य अंश विद्यमान है जो किसी कारण से पूरी तरह नहीं पनपा। ज्ञान बांटने के शौकीन अक्सर घूमपरस्ती, भागमभाग जैसी बाहरी गतिविधियों में जकड़ कर अपने दायित्व की सुध खो देते हैं। वे परिस्थितियों को तटस्थ भाव से देखने-समझने में अक्षम हो कर परिधि और केंद्र, स्थूल और आध्याात्मिक स्वरूपों के बीच तालमेल नहीं बैठा पाते।
आपकी सुनने, समझने के लिए दूसरे व्यक्ति का आपके प्रति पूर्वधारणाओं से मुक्त रहना पर्याप्त नहीं, उसे आपकी सदाशयता में विश्वास होना चाहिए। यही बात गोर्डान न्यूफील्ड ने शिक्षण के बाबत कही, ‘‘बच्चा तभी सीखता हैं जब वह शिक्षक को चाहता हैं और आश्वस्त होता है कि शिक्षक को उससे स्नेह है।’’ क्षिक्षार्थी नया, अपरिचित हो तो पहले उसकी सोच और मान्यताएं को बूझ कर उचित पृष्ठभूमि निर्मित करनी होगी। दूसरे को प्रेरित किए बिना समझाने का प्रयास ठंडे लोहे को पीटने के समान है।
दूसरे को समझाने से पहले अपनी मंशा की पड़ताल स्वयं के हित में रहेगी। क्या आपको विषय की पर्याप्त जानकारी है; क्या आप उसके हितैषी हैं, और वह भी ऐसा मानता है, या आप अंधेरे में लट्ठ चलाएंगे। ऐसा तो नहीं आप उसका मनोबल गिरा कर अपना वर्चस्व कायम करना चाहते हैं – यह तो अहंकार की तुष्टि हुई, इससे न अगले का हित सधेगा न आपका। बुद्धि का उद्देश्य स्वयं को परिमार्जित करना है, दूसरे को गिराना नहीं। बिना आत्म-सुधार के जग नहीं बदलेगा; हम बदलेंगे तभी जग बदलेगा। कोई तभी समझता और उन्नति की राह में प्रशस्त होता है जब जिज्ञासा हो। स्टीफन कौवे ने कहा, ‘‘बेहतरी के द्वार भीतर से बाहर की ओर खुलते हैं’’ यानी उन्नयन के लिए ललक और उत्कंठा अनिवार्य है। दूसरे को सुनने-समझने के लिए बाध्य करना सबसे बड़ी अज्ञानता है। उन्हें समझाने का नाहक प्रयास न करें जिन्हें आपकी अहमियत, सद्भावनाओं और नेकी की कद्र नहीं रही। उनके प्रति अपनी सदाशयता को ताक में रख दें, उन्हें पता चलने दें कि आपको उनकी परवाह नहीं है। आपके सानिध्य और मैत्री का पात्र हर कोई नहीं हो सकता। अपने भीतर सकारात्मक बदलाव के लिए नैगेटिव लोगों से सायास दूरी बनानी पड़ेगी। गीता में लिखा है, कर्ता बनने का प्रयास नहीं करें, आपके कर्तव्य में ढ़ील न हो, यही पर्याप्त है।
आज समाज को जरूरत संदेश जारीकर्ताओं, सलाहकारों और उपदेशकों की नहीं, कर्मवीरों की है जो अपने सुकृत्यों से लोगों को कुदाल हाथ में उठा कर अपना मार्ग निर्मित करने के लिए प्रेरित कर सकें।
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नवभारत टाइम्स के स्पीकिंग काॅलम के तहत 9 जुलाई 2019 को आॅनलाइन संस्करण में ‘‘शिक्षक और विषय पसंद आ जाए तो सीखना आसान है’’ शीर्षक से प्रकाशित।
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