धन, वस्तु या धन की सार्थकता तभी तक है जब तक वह प्रवाहित होता रहेगा

प्रवाह प्रकृति का आधाभूत नियम है। प्रवाह – ऊंचाई से निचले स्तर की ओर, बहुतायत से अभाव की ओर, सघनता से विरलता की ओर स्वाभाविक है। इस नियम की अनदेखी से व्यक्ति झमेलों में गिरेगा।

अनेक उम्रदारों द्वारा सहेज-सहेज कर दशकों तक संचित उस धन को व्यर्थ समझा जाए जो अंत में न स्वयं उनके, न परिजनों के काम आया, चूंकि अब उसकी उतनी आवश्यकता न रही। रोचक यह है कि संचय के दौरान ऐसी कल्पना नहीं की गई थी। धन को बहुधा भींच कर, कदाचित छिपा कर संग्रहीत किया गया, उसके प्रवाह को सायास अवरुद्ध किया गया था। धन की भांति जिस ज्ञान, विद्या, कौशल या विचार को इनके किरदारों ने सीलबंद या लॉक कर दिया गया उसका लोप हो जाना निश्चित था; उसके पल्लवित होने, विस्तार पाने और निखरने के आसार खत्म कर दिए गए। नैतिक दृष्टि से ऐसे किरदारों को अपराधी या मानवताविरोधी कहना अनुचित न होगा चूंकि प्रकृति द्वारा जनहित के लिए प्रदान गुणों का लाभ जरूरतमंदों तक नहीं पहुंचाया गया। अमेरिकी नेता सीज़़र चावेज़ कहते हैं, सही ज्ञान वही है जिसका उपयोग समाज के हित में किया जा सके।

सेवा निवृत्ति या कारोबार को तिलांजलि देने के बाद बिस्तर पकड़ लेने वाले आरामपरस्त व्यक्ति नीरस, उत्साहविहीन, मशीनी जीवन बिताने को अभिशप्त इसलिए होते हैं चूंकि वे बांटने के निमित्त ज्ञान, अनुभव और हुनर स्वयं तक सीमित रखते हैं, यह प्राकृतिक विधान के प्रतिकूल है और इसे चुकाना पड़ता है। परिणामतः ऐसी प्रवृत्ति के व्यक्ति को गुमसुमी या हताशा सहज लील सकती है। परिजनों, साथियों से मेलजोल या कम से कम टेलीफोनी संवाद जताते हैं कि आपको उनकी चिंता है। समाज से सायास दूरी बनाने का अर्थ है अलग-थलग पड़ कर मन से बीमार हो जाना।

प्रवाह जीवंतता का पर्याय है। संवृद्धि और विकास भी तभी संभव है जब सामाजिक तथा व्यक्तिगत स्तरों पर विचारों, सरोकारों के उन्मुक्त संवाद बने रहें, वस्तुओं का लेनदेन चालू रहे। प्रकृति की सभी अस्मिताओं – जल, थल, वायु की प्रवृत्ति भी प्रवाहमय है, इसीलिए ये जीवंत और जीवनदायिनी हैं। बहते जल में स्नान या शरीर प्रक्षालन से शरीर में ऊर्जा, ताजगी और स्फूर्ति का संचार होता है। जहां प्रवाहमान जल विद्युत पैदा करता है वहीं ठहरा हुआ जल सड़ाध पैदा करता है। पारिस्थिकीय कारणों से जहां वायु प्रवाह घटता है वहां श्वास संबंधी तथा अन्य बीमारियों में वृद्धि दर्ज की जाती है।

खर्च न किए गए यानी ‘प्रवाहहीन’ संचित धन का अवमूल्यन निश्चित है; प्रयोग में नहीं लाया गया हुनर खत्म हो जाता है; जिस मशीन को अनवरत न चलाया जाए उसके कलपुर्जे जंग खा जाते हैं और समूची मशीन बेकार हो जाती हैं; जिस ज्ञान को व्यवहार में न लाया जाए वह बोझ बन जाता है। जीवन की त्रासदी मृत्यु नहीं बल्कि उन खूबियों और संसाधनों का जीते जी क्षरण हो जाना है जिससे अनेक जिंदगियां संवर सकती थीं। इन सभी स्थितियों में प्रवाह को ठप्प किया गया। महीनों, वर्षों तक साधना में लीन उस सिद्धयोगी की महाशक्ति या वीराने खंडहर में दिन गुजारते पीरबाबा की रुहानी ताकत का कोई अर्थ नहीं जिसे विपन्नता, महामारी या अन्य कष्टों से जूझती जनता को राहत प्रदान करने की न सूझी।

प्राकृतिक विधान का तकाजा है कि संसाधनों, सुखों, सुविधाओं का प्रवाह प्रचुरता से अभाव की ओर तथा सघनता से विरलता की ओर चलता रहे ताकि कुदरती संतुलन बना रहे। विश्व में उपलब्ध सामग्रियां चंद हाथों या समूहों तक संकेंद्रित न हो जाएं, इसीलिए सभी पंथों में दान और सेवा की प्रथाएं विकसित हुईं। दान देने वाला कभी कंगाल नहीं होगा, निरंतर समृद्धिपथ के शाश्वत नियम के अनुसरण में अनेक वाणिज्यिक व अन्य संगठन नियमित गतिविधि बतौर निवेश का एक अंश जनहित कार्यों में लगाते हैं। प्रवाह के विधान की अनदेखी से वैयक्तिक और सामाजिक स्तर पर विकृतियां देखी जाती हैं।

जिस हद तक जीवन में विचार, भावनाएं, सरोकार, धन और वस्तुएं साझा की जाती रहेंगी उसी अनुपात में व्यक्तिगत और सामाजिक जनजीवन में उत्साह, जीवंतता, आशावादिता और संवृद्धि का सिलसिला जारी रहेगा।

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यह आलेख 28 अक्टूबर 2021 के नवभारत टाइम्स के संपादकीय पृष्ठ के स्पीकिंग ट्री कालम में “लेन-देन चलता रहे, तभी धन और ज्ञान का महत्व है” शीर्षक से प्रकाशित हुआ।

अखवार के ऑनलाइन संस्करण का लिंकः https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/religious-discourse/moral-education-about-wealth-and-knowledge-102007/

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