ससुर को बहू ने कहा, ‘‘पिताजी, आपके कुर्ते का सबसे ऊपर वाला बटन नहीं है, शायद टूट कर कहीं गिर गया। दीजिए, दूसरा लगाए देते हैं।“ जवाब मानो पहले से तैयार हो, ‘‘नहीं – रहने दो। कौन सा मुझे ड्यूटी पर या शादी ब्याह में जाना है। वैसे भी उम्र ढ़़ल गई समझो।“ बहू-बेटे दोनों के खूब समझाने पर भी वे टस से मस न हुए। अपने जर्जराते कपड़ों से उन्हें मोह था। फिक्रमंद पुत्र उनके लिए जो नए कपड़़े लाता उन्हें मिन्नतों के बाद भी न पहनते। पड़ोसी फुसफुसाते, ‘‘बुजुर्गवार को आज के जमाने में लायक बेटा-बहू मिले, लेकिन उन्हें खाना नहीं आता, अपनी किस्मत खुद फोड़ रखी है। बहू-बेटे को अलग खिन्न कर छोड़ा है।“
पुराने से मोह: उम्रदार ही नहीं, कुछ कमतर आयु के युवाओं की भी यही समस्या है। दुनिया के सुखों से मुख मोड़़ते, आनंद से न स्वयं रहेंगे, न दूसरों को रहने देंगे। पुरानी वस्तुओं से आपका कितना मोह है, नए के प्रति आपका रुख कैसा है, इससे कमोबेश तय हो जाता है आपकी जिंदगी कितनी खुशनुमां या रो-धो कर निभेगी?
प्रत्येक शिशु का जन्म दर्शाता है कि मानव जाति से ईश्वर का विश्वास डोला नहीं है। नन्हें बच्चे, नई पौद से आह्लादित होने, किसी वैज्ञानिक या दार्शनिक तथ्य की अभिनव विवेचना आदि में जिज्ञासा और उसे जानने-समझने का अर्थ है बेहतर भविष्य में आस्था। जिसे जानेंगे, समझेंगे, उपयोगी पाएंगे उसे अपना भी सकते हैं। विकसित होते उपकरणों, अन्य वस्तुओं, तकनीकों, उभरती मान्यताओं और मूल्यों के प्रति सकारात्मक सोच जीवन के प्रति प्रेम, उत्साह और जिजीविषा का संकेत है। इसके विपरीत, नए में अभिरुचि न होना अस्वस्थ अस्वस्थ मानसिकता दर्शाती है। याद रहे, बेहतरी तारीखें पलटने से नहीं, सोच को अग्रसर रखने से आएगी।
अतीत के कटु, अप्रिय या दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंगों को दिल में संजोने और सिंचित करने वाले को नहीं कौंधता कि उसे अपना शेष जीवन भविष्य में बिताना है। दुखद क्षण चित्त में घरे रहेंगे तो उपलब्ध सुविधाओं-साधनों के सुख से तो वंचित रहेंगे, आगामी चुनौतियों से निबटने में अक्षम हो जाएंगे। उन्नत सोच का तकाजा है कि पूर्व के अवांछित दृष्टांतों से उपयोग की बातें बीनते हुए वर्तमान को अप्रिय न बनने दिया जाए।
वर्तमान के प्रति आश्वस्त रहें, सुखी रहेंगे
मौजूदा घटनाक्रम के प्रति आश्वस्त व्यक्ति को जीवन के गतिशील स्वरूप पर संशय नहीं होता, उसे कालचक्र की परिवर्तनशीलता का बोध रहता है। पृथ्वी, सौर मंडल के अन्य ग्र्रहों, ब्रह्मांड के सभी तारों, आकाशगंगाओं यानी सृष्टि की समस्त खगोलीय अस्मिताओं की चलायमान प्रवृत्ति के अनुरूप प्रकृति तथा लौकिक जगत की प्रत्येक वस्तु प्रवाहमान है। भूवैज्ञानिक बताते हैं, आज पर्वतों का वह स्वरूप न रहा जो इनके उद्गम काल में था, नदियों के मार्ग भी कालांतर में परिवर्तित होते गए। मानो परिवर्तन जीवन चलते रहने या अपना अस्तित्व बनाए रखने की शर्त हो। सूक्ष्म स्तर पर मन, शरीर या इसका कोई अंग, जो जड़़ हुआ उसका लोप हो गया। शरीर में अनवरत नई कोशिकाएं इसलिए निर्मित होती रहती हैं ताकि वे मृत होती कोशिकाओं को प्रतिस्थापित कर सकें। जिसमें नव निर्माण की प्रक्रिया ठप्प हो गई उसका जल्द निष्प्राण हो जाना तय है।
जागरूक मस्तिष्क की पहचान है कि उसमें निरंतर विचारों का प्रवाह बना रहता है; वह धारणाएं निर्मित नहीं करता इसीलिए जड़़ नहीं होता। औसत मस्तिष्क अथाह सामर्थ्ययुक्त इसलिए है ताकि मनुष्य इसके सूझबूझपूर्ण दोहन से आकांक्षाओं के अनुरूप लक्ष्य हासिल किए जा सकें। शर्त है। शर्त यही है कि जगत की चलनशीलता को समझते हुए जिज्ञासा को मरने न दिया जाए। कौतुहल कम होगा या नहीं होगा तो दुनिया के अदभुत, खुबसूरत दृश्यों, फिज़ाओं और अहसासों से वंचित रहेंगे। हजारों फूलों की सुगंध, चित्त को आत्मविभोर करती सुर-लहरियां, सैकड़ों पक्षियों की चहकन, चित्त को अपार शांति देते प्रकृति के मनोहारी दृश्य मनुष्य के भोगने के निमित्त हैं। नएपन में भागीदारी की ललक व्यक्ति को अतीत की घटनाओं में नहीं जकड़ती। जो नहीं देखा, जहां नहीं गए, उसके प्रति अग्रसर होता जिज्ञासु स्थिरता नहीं तलाशता।
चलना बंद तो, जीवन खत्मः जीवंतता और गतिशीलता का चोली-दामन का संबंध है। एक ही ठौर पर रहेंगे तो नए व्यक्तियों, नई परिस्थितियों से रूबरू कैसे होंगे? वैदिक आह्वान ‘‘चरैवेति, चरैवेति” (हे मनुष्य, सतत चलते रहो) से आशय है कि दृष्टि आगे यानी भविष्य की ओर रहे। जिस हृदय में जिज्ञासा का दीप प्रज्वलित रहता है उसका शरीर और मन एक खूंटे से नहीं बंधा रहेगा। स्थिरता की चाहत उन्नति में घातक हो सकती है। दीर्घायु और स्वस्थ रहने में पैदल चलने के विस्मयकारी लाभों की गणना में ताजा शोध बताते हैं कि व्यक्ति के ढ़लने की प्रक्रिया में पांव की पेशियों की विक्षति सर्वोपरि है, त्वचा की झुर्रियां या बालों का झड़ना नहीं। शरीर की आधी पेशियां और आधी हड्डियों वाले दो स्तंभरूपी पांव समस्त शरीर का वजन ढ़ोते और उसे प्रश्रय देते हैं। शरीर के आधे स्नायु ‘दूसरे हृदय’ यानी पांवों में होते हैं, समस्त शरीर का आधा रक्त इन्हीं में परिचालित होता है। पांवों का निष्क्रिय होने का अर्थ है मृत्यु की दूर नहीं है।
नया आवरण नहीं ओढ़ें, असल में नया बनें: नए को अपनाते समय न भूलें, नया मुखौटा या परिधान धारण करने से बात नहीं बनने वाली। परिवर्तन असल यानी अंदरुनी होना चाहिए, आभासी नहीं चूंकि मुखौटे के गिर जाने का खतरा सदा रहता है।
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