पत्नियां पहले ही कम न थीं, लाकडाउन में तो पौ बारह

 

भारतीय पत्नियां खुशी-खुशी, स्वेच्छा से या मन मार कर, कैसे भी चौका-चूल्हे के काम निबटाती रही हैं। यही कम न था उनके दादागिरी बनाए रखने और पुरुषों को हांकते रहने के लिए।

लाकडाउन के मौजूदा दौर ने महिला शक्ति को और धार दी है। करेला नीम चढ़ा। अब घर और घरवालों के सारे कंट्रोल उसी के हाथों है, पुरुषों को उनके आदेशों, तनुकमिजाजियों और नखरों की अनुपालना भर करनी है।

इस मुद्दे पर हालिया व्हाट्सऐप पर मुझे जो मैसेज मिले, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं।

मैसेज 1 – एक बेचारे पति काम करते-करते हांफने लगे हैं, तनिक विश्राम चाहते हैं, पत्नी को यह मंजूर नहीं। पति गिड़गिड़ाते हैं, जूठे भांडे वे थोड़ी देर बाद मांज देंगे। पत्नी धमकी देती है, ‘‘हरगिज नहीं, अभी करो, नहीं तो मैं पुलिस बुला कर बताती हूं कि ये तीन दिन से खांस रहे हैं।’’

मैसेज 2 – सुबह के वक्त सोते हुए पति को जगाते पत्नी बताती है, ’’अजी सुनते हो, लाकडाउन खत्म हो गया है। नहा धो कर आफिस के लिए तैयार हो जाइए। शुरू करिए रोजाना के काम।’’ पति आंखें मलते हुए उठते हैं। कुछ सोचते हैं और हाथ में झाड़ू पकड़ लेते हैं। पत्नी लाकडाउन खत्म होने की खबर दोबारा सुनाती है और एक्शन में आने को कहती है। पतिदेव दोबारा झाड़ू पकड़ लेते हैं। पत्नी पुनः बोलती है, अरे आफिस जाने के लिए तैयार होइए! पति अपना सर खुजाते हैं, ‘‘आफिस, कौन सा आफिस? मैं किस आफिस में काम करता था? क्या काम करता था मैं?” लंबे समय से घरेलू कार्य करते उन्हें आफिस और कार्य की सुधबुध खत्म हो गई थी।

मैसेज 3 – एक दस साल की लड़की से पूछा जाता है, उसके पिता क्या करते हैं। उसका सहज जवाब था – ‘‘हाउस वाइफ’’। प्रश्नकर्ता को लगता है कि लड़की ने ठीक से प्रश्न नहीं सुना। वे दोबारा पूछते हैं, बच्चे आपके पिता क्या करते हैं। बच्ची का दूसरी बार वही मासूम जवाब है, ‘‘वे हाउस वाइफ हैं।’’

कमोबेश सभी पति अपनी पत्नियों के समक्ष सहज ही घुटने क्यों टेक देते हैं, यह एक यक्ष प्रश्न है जिसकी सही व्याख्या कोई नहीं कर पाया। यहां दो बातें हैं, एक तो महिला वर्चस्व का औचित्य, दूसरा इस प्रथा के प्रचलन के कारण, इसी की चर्चा पहले करते हैं।

आजकल तकरीबन सभी मामलों में लड़का-लड़की स्वयं को सक्षम समझते हुए वैवाहिक पार्टनर का चयन अपना अधिकार समझते हैं और इस बाबत माता-पिता, भाई-बहन सहित किसी के भी हस्तक्षेप को झिड़क सकते हैं। इसी से जुड़ा एक तथ्य यह है कि इस पृष्ठभूमि के दांपत्य संबंधों में पत्नी का पलड़ा सदा भारी रहता है यानी अधिकांश मामलों, जैसे किनसे संबंध घनिष्ठ रखने हैं, किनसे बरई नाम निभानी है, किनसे दूरी बनाए रखनी है, किन्हें मुंह लगाना ही नहीं है, आगामी छुट्टियों में कहां जाना है, फलां शादी में कितने दिन पहले जाना है या ऐन उसी दिन पहुंचना है, जाना भी है या न जाए भी काम चलेगा, शगुन कितना रखना है, मकान किस शहर में बनवाना है, बच्चे का रिश्ता कहां तय करना है, आदि सभी मसलों पर पति कितने भी तर्क दे, धकियाती पत्नी की है। इससे भी अंतर नहीं पड़ता कि पत्नी शिक्षित है या कम शिक्षित, नौकरीशुदा है या हाउसवाइफ, नौकरीशुदा है तो पति से उच्चतर या कमतर। इसके भी मायने नहीं हैं कि पत्नी में कोई विशेष हुनर हैं। बस जो समीकरण एकबारगी बन गया उसी पर चलते रहना है।

वैवाहिक प्रकरण का दूसरा कड़वा सच यह भी है कि एकबारगी पति या पत्नी जिसने भी दूसरे का आधिपत्य स्वीकार कर लिया तो, हालात कैसा भी रुख ले लें, ताउम्र इसमें तब्दील बर्दाश्त नहीं की जाएगी। जो टायर हैं वे टायर ही रहेंगे। स्वयं जितना भी  खुशफहमी में रहें कि सपत्नी वे जो भी कर रहे हैं उनकी निजी इच्छा से है, ठोक बजा कर ऐलान भी वैसा ही करेंगे, भले ही भीतर भारी मंथन, कुढ़न और घुटन का तूफान उमड़ रहा हो। शादी के बरसों-दशकों बाद कभी मतभेद जाहिर करने की जुर्रत नहीं कर पाएंगे – कभी कोशिश करेंगे तो पत्नी की गुर्राहट से चारों खाने चित्त हो कर पहले की सामान्य मुद्रा में आ जाएंगे और सफाई पेश करेंगे। वे बखूबी जानते हैं, राय अलहदा होने पर पत्नी भभक उठेगी, ‘‘तुम्हें क्या हो गया है? ठीक तो हो ना!’’ हो सकता है, पति को नाकारा या विक्षिप्त घोषित कर दिया जाए।

पहले दिन बिल्ली नहीं मारने का खामियाजा

इसीलिए अपने एक मित्र कहा करते थे, बिल्ली को पहले ही दिन नहीं मार डालने का खामियाजा जिंदगीभर ढ़ोना पड़ता है। मुझे अपने एक मित्र का वाकिया याद आता है। शादी के साल-डेढ़ साल में उन्हें एक खास इलाके में किराए से मकान लेना था। मुझसे आग्रह किया गया कि मैं इस कार्य को यथाशीघ्र करूं। संयोग से मुझे उनके माकूल मकान मिल गया। मैंने उन्हें कहा कि वे आज-कल में फलां स्थान पर चले आएं, मैं वहीं मौजूद रहूंगा, मकान देख कर बात पक्की हो जाएगा। उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया थी, ‘‘लेकिन मंजू (बदला हुआ नाम) तो कानपुर गई हुई है, जो भी होगा अगले मंगलवार उसके लौटने पर।’’ मुझे लगा, उन्हें सुनने में कोई गलती हुई है। मैंने अपनी बात दोहराई परंतु उनका जवाब पूर्ववत था, ‘‘मैंने कहा ना, मंजू यहां नहीं है, मकान कैसे देख सकते हैं?’’ दर असल उन्हें बखूबी पता था (मुझे उस दिन से पहले कतई नहीं), कि मकान तय करना तो दूर, स्वतंत्र रूप से देखने के लिए भी वे अधिकृत नहीं हैं। पत्नियों को ताड़ पर रखने वाला हमारा समाज है जो उन्हें खामख्वाह के भाव देता है, उनके नैन-नक्श और उनकी अदाओं की खातिर। तारीफ से फूल जाना कमोबेश सभी महिलाओं की फितरत है और कुत्सित इरादों से अभिप्रेरित व्यक्ति इसका अनुचित लाभ लेते रहे हैं।

महिला शक्ति की अनदेखी न हो

आशय यह कदापि नहीं कि पत्नी की राय को दरकिनार रखा जाया। उनका उतना ही आदर होना चाहिए जितना पुरुष का। प्रश्न दोनों की तुननात्मक परिपक्वता, समझदारी, सही निर्णय लेने की सामथ्र्य का है। अमूनन अधिक लोगों से मेलजोल रहने, अधिक समय घर से बाहर बिताने और नतीजन दुनियादारी का एक्सपोज़र अधिक रहने से पति के निर्णय बेहतर होंगे, यह तर्कसंगत भी है। पति पर हावी रहने वाली पत्नियां यह नहीं समझना चाहेंगी, और यही सचाई दांपत्य संबंधों में टूटन का कारण बन सकती है। हालांकि पतियों की जमात में बहुतेरे छोटी समझ के, गए गुजरे या सिरफिरे हैं। ऐसे भी कम नहीं जो घर-परिवार पर, अन्यत्र भी, आर्थिक व अन्य दृष्टियों से पूर्ण बोझ हैं। वहां तो परिवार की बागडोर पत्नियों के पास रहना बेहतर होगा।

सुना है, पति मिन्नतें कर रहे हैं, लाकडाउन हटे और उन्हें पत्नियों के दमनकारी, घुटनभरे वातावरण से सुकून मिले और वे चैन की सांसें ले सकें। खुदा उनके बीते दिन लौटा दे!

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दैनिक वीर अर्जुन के रविवारी कालम बिंदास बोल में 19 अप्रैल 2020 को प्रकाशित।

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