बाहरी प्रकाश धोखा दे सकता है। बाह्य चमक-दमक और लीपापोती की चूहादौड़ में हम सुध खो बैठते हैं कि हमारा मूल स्वरूप दिव्य है। अपने भीतर निहित प्रकाशपुंज को धूमिल न होने दें।
पूजा, आराधना, आरती, वंदना जहां भी हो, एक अदद जलता दिया समूची फिजां का लुत्फ बढ़ा देता है। दीप प्रज्वलित करने का चलन सभी संस्कृतियों में रहा है, आज भी बरकरार है। दिया माटी का हो तो बात ही कुछ और है। धार्मिक अनुष्ठान किसी भी पंथ का हो, दीप प्रज्वलन के बिना संपन्न नहीं माना जाता। दीप प्रज्वलन की प्रथा ईसाई, मुस्लिम, यहूदी तथा अन्य पंथों में भी निष्ठा से निभाई जाती है। कार्तिक माह की अमावस्या की दीपावली और इसके दो सप्ताह बाद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मनाई गई गुरुनानक जयंती, भारतीय जनजीवन के दो प्रमुख दीप पर्व हैं।
आशा और उल्लास का संचार करता है जलता दिया: जगमगाते आवासीय और कार्य परिसर जनमानस के हर्षोल्लास और उमंगों को अभिव्यक्ति देते हैं, उनमें आशा व उत्साह का संचार करते हैं। रिहायशी, शैक्षिक, भवन, कारखाने, यहां तक कि न्यूक्लियर प्लांट का शिलान्यास, या किसी भी कोटि की संगोष्ठी का उद्घाटन अनिवार्यतः दीप जला कर किया जाता है। प्रज्वलित दीप के परिवेश की नकारात्मकता निराकृत होती है, वातावरण शुद्ध होता है, दैविक शक्तियों का आगमन सुकर होता है। अधिसंख्य व्यक्ति क्लेश, विवाद और भ्रांतियों से इसलिए त्रस्त हैं चूंकि उन्हें जीवन के परम उद्देश्य और इसकी अधिप्राप्ति के आवश्यक साधनों और इसे हासिल करने का ज्ञान नहीं है। उद्देश्य की स्पष्टता से सुसंगत सोच और उसी अनुरूप संगत निर्मित करेंगे तो अभीष्ट अवश्य मिलेगा।
दिये के आलोक का दैविक स्वरूप: दिये की आभा हमें परालौकिक शक्तियों से जोड़ती है। प्रकाश ज्ञान और देवत्व का प्रतीक है। अंधकार कितना भी हो, एक जलते दिए से लुप्त हो जाता है। अंधकार रूपी अज्ञान को मिटाने में दिये की भूमिका निर्विवाद है। यह दिया उस सद्बुद्धि और विवेक का है जो व्यक्ति का प्रभु से तादात्म्य बनाने में सहायक होता है। और जो स्वयं प्रदीप्त रहता है वह दूसरों का मार्गदर्शक बनने में समर्थ होता है।
बाहरी प्रकाश धोखा दे सकता है: बाह्य चमक-दमक और लीपापोती की आतुरता में हमारे भीतर निहित अंतकरण की अनदेखी हो सकती है। प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद अंदुरुनी प्रकाश उसका मूल स्वरूप है। इसे पहचानेंगे और निखारते रहेंगे तो जीवन सार्थक हो जाएगा।
अपना मार्ग स्वयं तैयार करना होगा है: प्रकाशवान या ज्ञानी बनने के लिए साधक अपना मार्ग स्वयं तैयार करता है। ‘अप्प दीपो भव, यानी अपना दीपक स्वयं बनें’। दूसरा व्यक्ति हमारी सद्बुद्धि का दीप नहीं जला सकेगा, इसकी उत्कंठा हमारे भीतर से उठनी होगी। सत्य यह है कि सम्मति के द्वार भीतर से बाहर की ओर खुलते हैं। हमारी सोच, हमारा आचरण और कार्य ईश्वरीय विधान के जितना अनुरूप जिएंगे उसी अनुपात में ईश्वरीय प्रकाश से लाभान्वित होंगे।
‘प्रकाश’ का एक पक्ष यह भी: गहराई में जाएं तो संसार मायाजाल है, एक अस्थाई, क्षणभंगुर अस्मिता। शाश्वत तो असीम ब्रह्मांड में व्याप्त अंधकार है और प्रकाश एक प्रकार से छलावा। प्रकाश को अपना अस्तित्व बरकरार रखने के लिए दिया, मोमबत्ती, टॉर्च सरीखा भौतिक स्रोत चाहिए जिसकी प्रकृति नश्वर है। प्रकाश स्वयं में भौतिक अस्मिता है जो नश्वर है। यह समझ लेंगे तो संसार से विरक्ति हो जाएगी। जनजीवन ठप्प पड़ जाएगा। सभी जन संसार में आसक्त रहें, इसीलिए ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’ (यानी हे ईश्वर, हमें अंधकार से प्रकाश की ओर प्रशस्त करें) का आह्वान किया गया।
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इस आलेख का संक्षिप्त प्रारूप 17 नवंबर 2024, रविवार के दैनिक जागरण (संपादकीय पेज, ऊर्जा कॉलम) में ‘बाह्य और आंतरिक प्रकाश’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ।
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May be last paragraph superb