लोगों का काम है कहना! आपने जिस सन्मार्ग का चयन किया है, आश्वस्त हो कर चलते रहना है। तभी आपको मंजिल मिलेगी।
कंपनी के कार्य से अपने एक मित्र को अक्सर शहर से ढ़ाई सौ कि.मी. दूर दो-तीन दिनों के लिए जाना होता था। हर बार वे गुपचुप रोज देर रात तक घर लौट आते और तड़़के सुबह प्रस्थान कर जाते हालांकि कंपनी की वहां खाने-ठहरने की शानदार व्यवस्था थी। दर असल एक-दो रात भी परिवार अलग, अकेला रहना उन्हें भारी पड़ता।
प्रगति के लिए एकल जीवनशैली के महत्व से बेखबर कुछ व्यक्तियों को घर-परिवार या साथियों से विलग रहने की कल्पना मात्र भयाकुल कर देती है। उन्हें नहीं कौंधता कि प्रत्येक मनुष्य एक स्वतंत्र शरीर और अलहदा मन के साथ दुनिया में आता है, और अंत में एक दिन निपट अकेला यहां से कूच कर जाता है। साथ कितना भी सच्चा हो, एक दिन छूटना ही है, अतः अकेले रहना सीखना श्रेयस्कर है। घाट में शव की ओर से दीवार पर लिखी इबारत पर गौर किया जाए, ‘‘यहां तक साथ देने के लिए आभार, आगे मैं अकेला ही जाऊंगा’’। हालांकि एकाकीपन से मिलने वाली अथाह शक्ति को झेलना हर किसी के बस की नहीं होती, जैसा स्टीवेन एचिंसन ने कहा)।
सामूहिक जिम्मेदारी की असलियत
अपनी आकांक्षाओं की आपूर्ति और दायित्वों के निर्वहन में व्यक्ति आजीवन दूसरों का सहयोग लेता, उनसे तालमेल बैठाता और जुगतें भिड़ाता रहता है। इस सोच को संपुष्ट करती लोकतंत्र को दुहाई देती मान्यता है कि सामूहिक तौर पर संपन्न कार्य एकल स्तर निभाए कार्य से बेहतर होगा, भले ही मामला कविता लिखने का हो (नन ऑफ अस इज़़ बैटर दैन आल ऑफ अस – रे क्रॉक)। सामूहिक सोच का पक्षधर निष्ठा से अपना दायित्व नहीं निभाता बल्कि जिम्मेदारी से बचेगा चूंकि अपने विवेक या निर्णय के प्रति वह आश्वस्त नहीं होगा।
समिति, आयोग आदि क्यों गठित होती हैं
सरकारी, गैरसरकारी तथा अन्य संगठनों में उच्च या सर्वोच्च पदों पर आसीन अधिसंख्य व्यक्ति निजी जिम्मेदारी लेने से कतराते हैं। मान लें ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध कार्रवाई करना आवश्यक है जिसका गंभीर अपराध जगजाहिर है, ठोस प्रमाण भी हैं। अपने पद से जुड़ी शक्तियों का प्रयोग करते हुए उच्च अधिकारी अपराध की गंभीरता के अनुरूप दंड दे सकता है किंतु वह बुरा नहीं बनना चाहता। अतः वह स्वयं एक कमेटी सृजित करा देगा ताकि कल वह कह सके, फलां अप्रिय निर्णय कमेटी का था, मैं बेबस था। दूसरा पक्ष कमेटी के पांच, सात लोगों का गला तो नहीं दबोच सकेगा।
एकल सामर्थ्य का ज्ञान
मनुष्य की मूलतः एकाकी प्रकृति का बोध जितना जल्दी और गहरा होगा उसी अनुपात में उसकी सोच परिपूर्ण होगी। तब वह विभिन्न दैनिक व विशिष्ट कार्य निबटाने के लिए दूसरों का मुंह नहीं ताकेगा। अधिसंख्य व्यक्ति आजीवन इसलिए व्यथित रहते हैं चूंकि वे संतान, मातापिता, परिजनों व अन्यों से ढ़़ेरों ऐसी अपेक्षाएं संजोए रहते हैं जिनकी आपूर्ति नहीं होती। दूसरों पर शून्य या न्यूनतम निर्भर, एकाकी राही की सोच स्वतंत्र, सहज और उन्मुक्त रहेगी। दूसरों की मुहर लगे बिना अपनी दशा-दिशा को हीन समझना निम्न आत्मबल और कमजोर व्यक्तित्व का लक्षण संकेत है। विडंबना यह कि स्वीकृति उनसे चाहिए जो आपका मूल्य नहीं समझते बल्कि प्यादे की भांति प्रयुक्त करते हैं। जो आपको भाव न दें, क्या उनकी संगत के बजाए अकेले रहना बेहतर नहीं है? इसके विपरीत अपने तौरतरीकों और निर्णयों के प्रति आश्वस्त एकाकी व्यक्ति के लिए दूसरों की राय मायने नहीं रखती।
सभी ठोस कार्य अकेले ही किए गए
इतिहास साक्षी है कि भीड़ से अलग सोचते-करने वालों को मान्यता सहज नहीं मिली। उन्हें पग पग पर उलाहना, भर्त्सना, आलोचना, तिरस्कार झेलने पड़़े भले ही उनकी निष्ठाएं लोकहित में रही हों। इस प्रसंग में रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा, लोग आपके सुविचारित, उपयोगी आह्वान की अनसुनी करें तब भी आपको लक्ष्य पर नजरें गड़ाए अकेले चलते जाना है, चिंतित या विचलित नहीं होना। एक दूरदृष्टा की सोच लाखों-करोड़ों भ्रमित व्यक्तियों की जिंदगी रौशन कर देती है, एक डूबती कंपनी का बेड़ा पार लगा देती है। एक उद्यमी किसी मृतप्राय इकाई को अधिगृहीत करता है तो उसके शेयर की लुढ़की कीमतें आसमान छूने लगती हैं। भीड़ से जुदा एकल राहगीर उस कार्य को करने का बीड़ा उठाता है जो आज तक संपन्न नहीं हुआ। एकाकी जीवनशैली में प्रसन्न, सहज और संतुष्ट रहना दर्शाता है कि व्यक्ति अंदुरुनी तौर पर विश्वस्त और सशक्त है; स्थितप्रज्ञ की भांति लौकिक सम्मान, तिरस्कार या अपमान उसे विचलित नहीं करते।
परमशक्ति से समूह नहीं, व्यक्ति जुड़ता है
प्रभु की अदालत में प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग हिसाब होता है, सामूहिक स्तर पर नहीं। साधना, विपश्यना और ध्यान (मेडिटेशन) भी व्यक्तिगत तौर संपन्न किए जाते हैं। यह जानते हुए कि प्रत्येक व्यक्ति अबूझ, अथाह ब्रह्मांड की इकाईमात्र है जिसका प्रतिरूप उसके भीतर मौजूद है, एकल सोच में ढ़ले व्यक्ति में प्रचंड विश्वास, और शक्ति प्रवाहमय रहेगी। इस प्रक्रिया में जहां एक ओर परालौकिक शक्ति का संबल उसे निरंतर मिलता रहेगा, दूसरी ओर लक्ष्य साधना में उसके मन के वे अंग-प्रत्यंग सक्रिय होंगे जो अन्यथा सुषुप्त रहते हैं। लक्ष्य की प्राप्ति में वह अपना श्रेष्ठतम, अधिकतम अर्पित करेगा और उत्कृष्टता की बुलंदियों तक पहुंचेगा; भीड़ का आदमी इस सुफल से वंचित रहेगा।
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यह आलेख तनिक परिवर्तित रूप में 24 जनवरी 2022, सोमवार को नवभारत टाइम्स के स्पीकिंग ट्री कॉलम में ‘अकेला चलने का माद्दा हमें पहचान और ऊंचाई देता है’ शीर्षक से तथा ऑनलाइन संस्करण में ‘भीड़़ के साथ चलने वाला अपनी पहचान खो देता है’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। ऑनलाइन संस्करण का लिंकः https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/religious-discourse/moral-education-of-life-and-ethics-104984/
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मन को एक बार मजबूत कर जो निर्णय लिया जाता है उसे सीधे लक्ष्य तक पहुंचाने का काम के एकल सामर्थ्य ही सकती हैं। लेख बहुत अच्छा है, और मनुष्य की सोच को सामर्थ्यवान बनाने का काम करेगा।