ब्रह्मांड में सब कुछ चलायमान है, नृत्य से तन-मन को चलने दें

नृत्य सिखाता है, जीवन के उतार-चढ़ावों से कैसे सीखना है।

ज्ञान, बुद्धि, विवेक और लोक कल्याण भाव जीवन को उन्नत और सार्थक बनाते हैं। फिर भी, संपूर्णता और आनंद से जीने के लिए सक्रियता और उल्लास का समावेश भी उतना ही आवश्यक है। गतिशीलता के बिना अंतर्मन और समाज में ठहराव आ जाएगा। समाज को जीवंत रखने में देवों के देव शिव नटराज द्वारा प्रतिपादित नृत्य परंपरा की भूमिका निर्विवाद है। सभी संस्कृतियों में, विभिन्न शैलियों में सामूहिक समारोहों में प्रचलित, नृत्य सिखाता है कि जीवन के आरोहों-अवरोहों के साथ सांमजस्य बिठाते हुए कैसे जीना है।

नृत्य की ताकत:  जब शब्द नाकारा हो जाते हैं तो हाथ-पांव की थिरकनें यानी नृत्य मददगार साबित होता है। नृत्य विधा के मर्मज्ञ मर्था ग्राहम ने नृत्य को आत्मा की मूक भाषा की संज्ञा दी। नृत्य का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव सभ्यता; यह चिरकाल से, समूचे विश्व में भावों की अभिव्यक्ति, सामाजिक संवाद बनाने और सांस्कृतिक समारोहों में चार चांद लगाता रहा है। नृत्यके माध्यम से मिथकों और जनश्रुतियों की जानकारी एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को मिलती रही है।

जीवन तभी तक है जब तक गति है:  नृत्य की आधारशिला गतिशीलता का सिद्धांत है। इस प्रक्रिया में शरीर का प्रत्येक अंग-प्रत्यंग उद्वेलित होता है। ब्रह्मांड में ऐसा कुछ नहीं जो चलायमान न हो। गति और उल्लास जीवन को गति देते हैं। गतिशीलता जीवित रहने का प्रमाण है और वृद्धि की शर्त भी। प्रकृति की मनुष्य से स्थिर रहने की अपेक्षा होती तो हमारे पांवों के स्थान पर जड़ें होतीं। गतिशील रह कर हम दुनिया और दुनियादारी को बेहतर देखते-समझते हैं। शारीरिक गतिशीलता मन को भी जड़ नहीं होने देती। बंद कमरे में शैय्या पर पड़ा व्यक्ति तन-मन से जीवंत, स्वस्थ कैसे रहेगा?

नृत्य कला का वह जीवंत रूप है जो संगीत के साहचर्य से पूरे रंग में आ जाता है। नियत सुर-ताल से बजते वाद्यांत्र कलाकार ही नहीं, दर्शकों के शारीरिक अंग-प्रत्यंग इस तर्ज पर मटकने-थिरकने लगते हैं मानो वातावरण में कोई परालौकिक शक्ति प्रविष्ट कर गई हो। नृत्य हमें अंतरात्मा से जोड़ता है, जिंदगी की ताल पर नाचना सिखाता है। एक नामी वैज्ञानिक की राय में सभी मनुष्य, वनस्पतियां आदि एक अदृश्य वादक द्वारा सुदूर से बजाई जाती रहस्यमय धुन पर नृत्य करते हैं।

शिव और डमरू:  नृत्य के आदिगुरु महादेव परिपूर्ण हैं, उनका न आदि है न अंत। भूत, वर्तमान और भविष्य की परिधि से परे शिव संपूर्ण जगत के सृजनकर्ता, पालनकर्ता और संहारक हैं। ध्वनिमय डमरु और पदचाप के साथ तांडव करते नटराज अनंत समयचक्र के नियामक हैं। डमरू सृजनशीलता, चहुदिक ज्वाला की गोलाकृति विनाश और उनके उठे हुए पांव विमुक्ति दर्शाते हैं। बौने असुर अपस्मार को कुचलता उनका दायां पांव अज्ञानता, अहंकार व बुराई के नाश का संकेत है। नटराज की छवि के दर्शन कला परिसरों, मंदिरों, उत्सवों आदि में होते रहते हैं।

शास्त्रीय नृत्य की सिद्धि के लिए अथक शारीरिक अनुशासन अनिवार्य है। नृत्य मस्तिष्क को उच्च आध्यात्मिक अवस्था के लिए तैयार करता है। साधना और पूर्ण समर्पण से एकल अंतरात्मा परमशक्ति से तादात्म्य स्थापित करती है। राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती के नृत्य श्रोताओं को भाव विभोर करते रहे हैं। असीम सुख की अनुभूति प्रदान करता नृत्य दिलों को जोड़ता है।

नृत्य, प्रवाह और ईश्वर:  एक पश्चिमी धारणा है कि महादेव नर्तक नहीं बल्कि स्वयं नृत्य हैं, ईश्वर निरंतर प्रवाह है। इस प्रवाह में संभागिता के लिए आपका बौद्धिक या धार्मिक होना आवश्यक नहीं, आपकी मूल प्रवृत्ति नर्तक की है। आपके भीतर जीवंतता, अच्छाई, प्रेम, संवाद और जुड़ाव की चाहत का अंतर्निहित प्रवाह है। इस प्रवाह के प्रतिरोध का अर्थ है आत्मा की अभिव्यक्ति को बाधित करना, यह पाप है। नृत्य के लाभ बहुआयामी हैं। व्यक्तिगत स्तर पर शरीर व मन को प्रफुल्लित, दुरस्त रखने के अलावा नृत्य सामुदायिक भाव तथा बंधुत्व को सुदृढ़ करने में प्रभावी भूमिका निभाता है। इसीलिए कहा यह गया है, आप नृत्य जानें या न जानें किंतु नाचना अवश्य चाहिए।

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इस आलेख का मूल रूप ‘‘जीवन की धुन को महसूस करने का अवसर है नृत्य’’ शीर्षक से 2 मई 2025 के नवभारत टाइम्स (संपादकीय पेज, स्पीकिंग ट्री कॉलम) में प्रकाशित हुआ।

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