जान है तो जहां है। कुशल रहेंगे तभी कोई कार्य निबटाने और मनचाहा हासिल करने की गुंजाइश रहेगी। स्वयं की हिफाजत को सर्वोपरि मानते हुए पिछली पीढ़ी प्रायः अपनी संतति को चिट्ठी की शुरुआत इस हिदायत से करती थी, ‘‘पहले आत्मरक्षा, बाद में अन्य कार्य’’।
बेहतरी के लिए आवश्यक है कि मन और चित्त में असुरक्षा का भाव न पनपे। पसंदीदा हाबी में तल्लीनता, सत्संग, भजन-कीर्तन, जनसेवा, में भागीदारी जैसी गतिविधियां व्यक्ति के मन और चित्त को संबल प्रदान करती हैं, ऐसा व्यक्ति अपेक्षाकृत ठहरा हुआ होगा। सुरक्षा का भाव डिगे नहीं, यह सुनिश्चय करने में भौतिक पक्षों की उतनी ही अहमियत है जितनी मानसिक और भावनात्मक पक्ष की।
असुरक्षा का भाव भय के संवेग से जुड़ा है। भय एक आदिम प्रवृत्ति है, इसे जिजीविषा पर प्रहार की प्रतिक्रिया भी कह सकते हैं। आत्मरक्षा का भाव समस्त प्राणियों में निहित रहता है। छिपकली या तिलचट्टे जैसे निम्नतर श्रेणी के जीव भी अत्यंत सूझबूझ से बाहरी खतरे से प्राण बचाने का भरसक प्रयास करते हैं। अक्सर जिस तिलचट्टे को आहत करने के बाद हम निष्प्राण समझ लेते हैं, वह कुछ क्षणों में फुर्ती से संभल कर अपने सुरक्षित ठैया की ओर अदृश्य हो जाता है।
प्रतिदिन सोने से पूर्व यह संतुष्टि कि बाहरी दरवाजे ठीक से बंद हैं, या मध्यरात्रि में चैकीदार की सीटियों या डंडे की आवाजें अनायास उपजती आशंका को निराकृत करते हैं। पुलिस व्यवस्था के चलते नगरवासी आश्वस्त रहते हैं कि भय की बात नहीं है। दिल में असुरक्षा का भाव रहेगा तो चैन से जीना दुष्कर होगा। अतीत में राज्य की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा राजा का धार्मिक दायित्व था। राज्य में सुख-शांति के लिए सशक्त सुरक्षा व्यवस्था अनिवार्य थी। सीमा पर प्रहरियों की तैनाती का उद्देश्य शक्ति प्रदर्शन या पड़ोसी राज्य की भूमि हड़पना नहीं बल्कि मातृभूमि की रक्षा करना था। राष्ट्रीय सीमाओं पर देशवासियों की सुरक्षा का कार्य अब सैन्यकर्मी करते हैं।
कठिन और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सीमा पर डटा सजग सेनाकर्मी इस संभावना से अनभिज्ञ नहीं रहता कि किसी भी क्षण वह अपने प्राणों की आहूति दे कर घर-परिवार और परिजनों से जुदा हो सकता है। इन नाजुक क्षणों में एक महान संकल्प, एक दिव्य शक्ति ही उसकी अडिग कर्तव्यनिष्ठा, और आवश्यकता पड़ने पर सर्वोच्च बलिदान का प्रेरणा स्रोत बनती है। सैनिक के हृदय में शत्रु के प्रति वैमनस्य नहीं बल्कि राष्ट्र प्रेम का भाव प्रबल रहता है, जैसा जी.के. चेस्टरटन ने कहा, ‘‘खरा सैनिक युद्धस्थल में सामने वाले से दुराव के कारण नहीं भिड़ता, बल्कि इसलिए कि उसे पीछे वालों से अथाह प्रेम होता है’’।
पिछले अनेक युद्धों और हालिया चीन से छिटपुट युद्ध में भारतीय सैनिकों के बेहतरीन शौर्य प्रदर्शन की पृष्ठभूमि में उनका आदर्श प्रशिक्षण है जिसकी झलक भारतीय सैन्य अकादमी के दस्तावेज ‘योद्धा संहिता’ में मिलती है। सैन्य प्रशिक्षु शपथ लेता है, ‘‘मैं एक योद्धा हूं, लड़ना मेरा धर्म है, मैं अपने मस्तिष्क, शरीर तथा युद्ध भावना को प्रशिक्षित करूंगा, वर्तमान एवं भविष्य के आयुधों एवं उपकरणों में स्वयं को दक्ष करूंगा, निर्बलों की रक्षा करूंगा, निर्भीकता से सत्य का पालन करूंगा, मानवता, सज्जनता एवं सहिष्णुता का पालन करूंगा, युद्ध एवं उनकी चुनौतियों को स्वीकार करूंगा।’’ सैन्य प्रशिक्षण के दौरान हृदयंगम किए जीवन मूल्यों की उपादेयता के बाबत ब्रिटिश उपन्यासकार लुई बर्निएयर्स ने कहा, ‘‘कोई भी व्यक्ति सैनिक रहे बिना पूर्ण व्यक्ति नहीं हो सकता’’।
मानवीय संवेदनाओं और कर्तव्य निर्वाह के मार्मिक संघर्ष का चित्रण 1997 की लोकप्रिय फिल्म ‘बार्डर’ में बखूबी प्रस्तुत है। घर की याद कचोटे जाने और छुट्टी मंजूर होने के बावजूद एक युवा सैनिक घर नहीं जाता और लड़ाई में शहीद हो जाता है। सैनिकों में उमड़ती पीड़ाएं सहेजे इस फिल्म के गाने आज भी लोकजीवन को आह्लादित करते हैं: ‘‘संदेसे आते हैं, हमें तड़पाते हैं… चिठी आती है… तुम कब घर आओगे… तुझ बिन ये घर सूना है’’।
महारक्षक तो प्रभु हैं। रक्षक रूप में सैन्यकर्मी उन्हीं के प्रतिनिधि हैं, और इसलिए भी, श्रद्धा और समादर के सुपात्र। सैन्यकर्मियों को सम्मान देने का अर्थ देश की माटी के प्रति कृतज्ञता भाव है।
….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. …..
यह आलेख तनिक संक्षिप्त रूप में ‘‘जिसका व्यक्तित्व पूर्ण है वही हमें अभय दे सकता है’’ शीर्षक से 15 जुलाई 2020 के नवभारत टाइम्स के संपादकीय पृष्ठ, स्पीकिंग ट्री स्तंभ (दिल्ली/लखनऊ संस्करण पेज 12, मुंबई संस्करण पेज 8) में प्रकाशित हुआ।
लिंक – आनलाइन संस्करण:
….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. …..