अपने पति या पत्नी, बेटे, बेटी, संबंधियों, सहकर्मियों, पड़ोसियों, मित्रों और परिजनों से आप कितना संतुष्ट या प्रसन्न रहते हैं, यह उन उम्मीदों, अपेक्षाओं पर निर्भर है जो आपने दूसरों से बांध रखी हैं। जितनी ज्यादा अपेक्षाएं उतना ज्यादा दुख।
इस प्रकार के दुखड़े आपने भी खूब सुने होंगेः (1) यह वही संतान है जिसकी पढ़़ाई का कर्जा चुकाते-चुकाते हम तमाम सुख-सुविधाओं से वंचित रहे, अब उसके पास हमें महीने भर में फोन तक करने का समय नहीं। (2) मित्र का कारोबार जमाने के लिए मैंने क्या नहीं किया, अब मुझे पहचानना उसे भारी पड़ता है। (3) इस संस्था को खड़ा करने में जान झोंक देना मेंरे जीवन की सबसे बड़़ी भूल थी। यह अफसोस उन्हें ताउम्र सालता रहता है जिन्होंने भलाई करते समय अनेक अनुचित अपेक्षाएं संजो लीं। इस सोच से कोई कार्य किया जाए कि पुण्य मिलेगा या अपनी आवश्यकता पर किया-कराया बहुगुणित हो कर वापस मिलेगा तो जीवन से उल्लास और सुख जाता रहेगा। लोकलाज की दृष्टि से या पिंड छुड़ाने के आशय से संपन्न कार्य का भी यही हश्र होता है। संतान को लाड़-दुलार देने तथा उसकी परवरिश और शिक्षा पर निवेश करने के एवज में वृद्धावस्था में देखभाल और सेवा की लालसा रखना भी सौदेबाजी हुई, निस्स्वार्थ कर्म नहीं।
उम्मीद बांधने के पीछे ठोस आधार चाहिए
पहले यह विचार करें, आपकी उम्मीदों पर अगला खरा क्यों उतरेगा? अगर आप सोचते हैं कि महज इसलिए कि वह आपका छोटा या बड़ा भाई या साला, भांजा, बचपन का सहपाठी या पुराना-नया सहकर्मी या ऐसा ही कुछ है, तो आप भ्रांति में हैं।
उम्मीद तभी बांधी जा सकती है जब दोनों के बीच सुलह की जमीन तैयार हो। यह यकायक नहीं हो जाता। दोनों ओर से सदाशयताएं, मेल भाव और सबसे ऊपर संवाद की इच्छा होनी चाहिए।
ज्यादा अपेक्षाएं मतलब ज्यादा कष्ट
सत्कर्म के पीछे अपेक्षाएं जितनी अधिक या तीव्र होंगी उसी अनुरूप भविष्य कष्टकर हो जाएगा। अपेक्षाओं पूरी न होने पर संतान, संबंधियों, मित्रों, पड़ोसियों, सहकर्मियों आदि से संबंध बिगड़ेंगे और जीवन से विरक्ति हो सकती है। अपेक्षाएं पालने वाला यह विचार नहीं कर पाता कि तब के लाभार्थी का सांसारिक और वैचारिक धरातल परिवर्तित हो चुका है, नव आकांक्षाओं के अनुकूल उसकी आवश्यकताएं और प्राथमिकताएं भिन्न हैं।
सत्कार्य में भाव महत्वपूर्ण है। सुफल उसी कर्म का मिलेगा जो सहज, निस्स्वार्थ भाव से निष्पादित किया जाए। कार्य करने में प्रतिपूर्ति या मान्यता की इच्छा प्रधान रहने पर न तो कार्य मनोयोग से होगा, न ही कार्य उत्कृष्ट कोटि का होगा। गीता सिखाती है कि अपना संपूर्ण ध्यान कर्म पर केंद्रित रखा जाए, फल पर नहीं। साथ ही, मनुष्य स्वयं को कर्ता नहीं मात्र एक माध्यम समझे। यह सोच होगी कि प्रभु ने मुझे सामर्थ्य इसलिए प्रदान की कि मैं अमुक कार्य कर सकूं, तो अपेक्षाएं स्वतः निराकृत हो जाएंगी।
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इस आलेख का संक्षिप्त रूप दैनिक जागरण के ऊर्जा कॉलम (संपादकीय पेज) में 22 सितंबर 2022, बृहस्पतिवार को प्रकाशित हुआ।
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अपेक्षाएं दुख का कारण होती है। यह हमारे वेदों में लिखा है, ऋषि मुनि भी कह कर गए। सुंदर प्रस्तुति!