स्वयं को इतना पुख्ता बनाएं कि बाहरी संबल की आवश्यकता न्यूनतम हो

harish bharthwal

इंजीनियरिंग पढ़ रहे, घर आए भांजे से मैंने पूछा, यह चार सौ ग्राम ब्रैड का पैकेट बीस रुपए का है, एक किलोग्राम कितने का हुआ? इससे पहले कि भांजा पाॅकेट से कुछ निकालता, मैंने टोक दिया, ‘‘नहीं, बगैर कैल्कुलेटर के बताना है!’’ लाड़ले को उलझन में देख मां ने मोर्चा संभाला, बचाव में तपाक से बोलीं, ‘‘इसे पढ़ाई में बारबार कैल्कुलेटर का इस्तेमाल करना पड़ता है। बेचारे को वैसी ही आदत पड़ गई है’’।

सरल गणना के लिए कैल्कुलेटर, सामान्य जानकारी के लिए गूगल खंगालने या तनिक दूर जाने के लिए दुपहिया के अभ्यस्त, इन साधनों के अभाव में अपने अनेक कार्य सुचारू रूप से नहीं कर पाएंगे। आज मोबाइल फोन से वंचित होना बहुतेरों को बीमार बना रहा है। इसके विपरीत, जोड़ने-घटाने, दिमाग पर जोर लगा कर याद करने, यथासंभव पैदल चलने आदि गुणों का अभ्यास जारी रहेगा तो परिष्कृत होते-होते ये गुण हमारी जीवनचर्या को समृद्ध और खुशगवार बना देंगे, हम उपकरणों के गुलाम नहीं रहेंगे। स्वयं नेपथ्य में रहते सुपरिणामों की आशा में उस किसान की सोचें जो अन्य किसी को जुताई, फिर बोआई, निदाई आदि के अनुदेश देता रहता था। अंत में कटाई की सोच मौके पर पहुंचा तो समूचा खेत उजाड़ था।

एक औसत मस्तिष्क में ज्ञान और जानकारियों को संचित और संश्लेषित करने तथा नए कौशल सीखने की अपार सामथ्र्य होती है। मनोवैज्ञानिक बताते हैं, मस्तिष्क को दीर्घावधि तक निष्क्रिय छोड़ दे ंतो व्यक्ति स्थाई तौर पर अकर्मण्यता का आदी हो जाता है। बैठेठाले की वृŸिा शारीरिक अंग-प्रत्यंगों की नैसर्गिक क्षमता क्षीण कर देती है, मशीनों की भांति। बरसों से प्रयोग में नहीं लाई गई उस ठीकठाक मिक्सी या दुपहिए की याद करें जिसे एक दिन कबाड़ी के हवाले करना पड़ा। निठल्लापन रास आने के बाद इस ढ़र्रे से उबरना दुष्कर होगा और हम उन्नत नहीं होंगे।

परनिर्भरता एक विकार है और निर्भरता मन की हो तो व्यक्ति का आघ्यात्मिक और बौद्धिक विकास अवरुद्ध समझा जाए। एक होनहार दुकानदार को आपने लंबी फेहरिस्त के दामों को पहले कैल्कुलेटर से और फिर पुष्टि के लिए हाथ से योग करते देखा होगा। कुछेक ऊपर से नीचे अविरल कौशलपूर्वक चलती उसकी पेंसिल को देख कर ईष्र्या करते होंगे!

परनिर्भरता घटाने से अभिप्राय यह भ्रम पालना नहीं है कि अपने बूते हमारी जिंदगी खुशनुमां और सार्थक बीतेगी। प्रत्येक व्यक्ति सृष्टि की एक वृहत योजना का अंग है; मेलजोल, लेनदेन बगैर दुनियादारी निभाना असंभव होगा। हेलेन केलर की राय में एकल स्तर पर पर सीमित स्तर पर कुछ तो हासिल हो जाएगा किंतु उत्कृष्ट परिणामों के लिए सामूहिक स्तर पर, एकजुटता से कार्य करने होंगे। दूसरों के सहयोग और सदाशयताओं के बिना उन्नति संभव नहीं। उपकरणों में कंप्यूटर और टेलीफोन के बिना हमारे अधिकांश कार्य ठप्प हो जाएंगे। विरोध उस मानसिकता से है जिसके चलते हम घर, समाज या कार्यस्थल के अनेक कार्यों के लिए उपकरणों या दूसरों पर आश्रित हो जाते हैं जिन्हें हम स्वयं सहजता से पूरा कर सकते हैं।

वैचारिक निर्भरता से ग्रस्त व्यक्ति में आत्मविश्वास कम होता है, वह स्वयं को अक्सर ‘‘मूर्ख’’ करार करता हैं, आलोचना को अपनी अयोग्यता का प्रमाण मानता है। आशंका और विफलता के भय से आक्रांत ऐसा व्यक्ति नए कार्य हाथ में नहीं लेता। अपनी योग्यता, कार्य या सोच के प्रति वह तब तक आश्वस्त नहीं होता जब तक उनकी स्वीकृति नहीं मिलती जिन्हें वह श्रेष्ठ मानता है। दूसरों की मान्यता बंद न हो जाए, इस आशंका से अनचाहे भी वह ‘‘श्रेष्ठों’’ की खिदमत से बाज नहीं आता; वे रुष्ट न हो जाएं, इस भय से वह अपना मतभेद जाहिर नहीं करता। अकेले रहना, ऐसा खयाल भी उसे भारी पड़ता है।

दूसरों के समर्थन की चाहत ‘‘निर्भरता सिन्ड्रोम’’ की चरम सीमा है और व्यक्ति की अंदुरुनी निर्बलता का संकेतक। स्वयं को अंदुरुनी तौर पर जितना पुख्ता बना लेंगे उसी स्तर तक बाहरी संबल की निर्भरता घटती जाएगी। उपकरण हों या व्यक्ति, बाहरी तत्वों पर निर्भर रहने की प्रवृŸिा उसे पराधीन, अकर्मण्य और अक्षम बना देती है। अहम प्रश्न है, आपकी संतुष्टि या प्रसन्नता की डोर किसी दूसरे के पास क्यों हो। आपका कृत्य उचित है इसके सत्यापन के लिए दूसरे की मुहर क्यों चाहिए? समर्थन या वाहवाही चाहिए तो आपकी अंतरात्मा का, या फिर प्रभु की क्यों नहीं।

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नवभारत टाइम्स के स्पीकिंग काॅलम के तहत 19 अगस्त 2019 को प्रकाशित।

 

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https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/religious-discourse/dependence-on-external-means-weakens-from-within-65161/

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