जिंदगी के रंगों का लुत्फ लेने से न चूकें

प्रकृति में कुछ नहीं जो रंगीन नहीं हो। रंग हैं जो जीवन में उत्साह, उमंग, उल्लास, खुशी और आशा का संचार करते हैं! रंग बोलते हैं, इनकी सुनें। रंगों के जरिए भावनाएं व्यक्त करें। रंगों का लुत्फ लेने से न चूकें।

पल भर उस बेचारे की कल्पना करें जिसे सब कुछ नीला ही नीला दिखता, अन्य कोई रंग वह नहीं पहचानता। लाल, पीला, हरा, काला, बैंगनी रंग की वस्तुओं को निहारने से कैसी अनुभूति होती है, इसका उसे अहसास नहीं। सोचें, कैसी अजब-बजब होगी उसकी दुनिया!

रंग सोच को नए आयाम देते हैं, जीवन में अनायास पसर जाती नीरसता को तोड़ते हुए दैनंदिन गतिविधियों को रसमय, जीवंत और खुशनुमा बनाते हैं।

प्रकृति रंगमय है

प्रकृति में ऐसा कुछ नहीं जो रंगमय नहीं हो। केवल सफेद या काला दिखेगा तो मिलती-जुलती, एक ही आकार की वस्तुओं, पेड़-पौधों में अंतर कैसे समझ में आएगा। जिसे जीवन से प्रेम है, रंगों से उसका स्वाभाविक लगाव होगा। जॉन रस्किन की मान्यता थी कि ‘‘प्रकृति और जीवन में प्रत्येक वस्तु पट्टियों या पैबंदों के रूप में प्रस्तुत है”। नामी कलाप्रेमी ने यह भी कहा, ‘‘निर्मल, विशुद्ध और उच्चतम सोच का, विचारशील व्यक्ति वही होता है जिसे रंगों से सर्वाधिक प्रेम हो।’’

ऐसा भी कह सकते हैं, प्रकृति की विविध छटाओं के अनुकूल समूचा विश्व रंगमय है। रंगों को प्रकृति की मुस्कान भी कहा जाता है।

त्यौहार, पूजा-अर्चना और अन्य अनुष्ठानों में रंग

सभी पंथों के धार्मिक या अन्य अनुष्ठानों में रंगों का जम कर प्रयोग होता है। हमारे देशवासी तो विशेषतौर पर रंगप्रेमी हैं। नवग्रह पूजन, नामकरण, मुंडन, शादी-ब्याह, अन्य अर्चनाओं, आदि अवसरों पर पूजा की पट्टी, उस पर निर्मित की जाती ज्योमितीय आकृतियां, पुष्पकलश, जलकलश, मंदिरों व धार्मिक स्थलों की भित्तियां आदि सभी मनुष्य के रंगों से जुड़े रहने चाहत दर्शाती हैं। भक्तों द्वारा पहनी पोषाक – कदाचित पंथ अनुसार अलग-अलग रंग की, त्योहारों में प्रयुक्त साग्रियां भी अनिवार्यतः रंगीन मिलेंगीं।

रंगोली की सुदीर्घ, समृद्ध परिपाटी

दो हजार वर्षों से अधिक पुरानी दक्षिण भारतीय उद्गम की लोकप्रिय रंगोली आज समस्त लोकप्रिय है। सभी मांगलिक व अन्य अनुष्ठान ही नहीं, वैज्ञानिक, तकनीकी आयोजनों में भी देश भर में रंगोली निर्माण की परिपाटी है। तमिल नाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र में आज भी महिलाएं आगंतुको के स्वागत में घर के प्रवेश द्वार को प्रतिदिन पिसे चावल, पत्तियों-पंखुड़ियों के चूर्ण, रेत, चीनी आदि से निर्मित रंगों की रंगोली से सुसज्जित करती हैं।

रंग हैं तो आनंद हैः  नाना रंगों, डिज़ाइनों और आकृतियों की मनोहारी रंगोलियां मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं। गोलाकार रंगोलियां ब्रह्मांड की अनंतता और शाश्वतता का प्रतीक हैं। उत्तर भारत के कमोबेश सभी घरों के द्वार पर, विशेषकर दीपावली, बैसाखी, तीज, तुलसी व्रत, तीज, संक्राति, नवरात्र के दिनों रंगोली मिलेगी। दक्षिण में ओनम व पुटांडू (तमिल नववर्ष), तो पूर्वी भारत में बिहू के अवसर पर यही नजारे मिलेंगे।

मान्यता है कि रंगोली के इर्दगिर्द नकारात्मक ऊर्जा तथा हैवानी शक्तियां नहीं फटकतीं बल्कि वहां पुण्यकारी आत्माओं का वास होता है तथा मनुष्यों को धन्य करतीं फिजाएं निर्मित होती हैं।

रंग वास्तविक, भौतिक अस्मिता है या केवल व्यक्तिगत सोच का खेल, यह जरूर विवादास्पद है। किंतु इसमें संदेह नहीं कि रंगीन होने पर कोई भी चीज बेहतर दिखती है, और फिर सभी भाषाओं, संस्कृतियों मे रंग के एक ही मायने होते हैं।

हमारा जीवन सार्थक इसलिए होता है चूंकि हम आपसी संबंधों से गुंथे हैं। रंग पर्व आज के चरमराते संबंधों को संवारने, पुख्ता करने का अवसर प्रदान करता है।

जीवन चिंताग्रस्त या गुमसुम रहने, या विश्लेषण करते रहने के निमित्त नहीं। यह “कोलावरी सौंग” है जिसका आनंद लेते रहना है,  भले ही वह समझ में न आए। रंगों से परहेज न करें, इनका लुत्फ लें।

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