हमें अपना शेष जीवन भविष्य में गुजारना है। अतः अतीत के फालतू प्रसंगों से पिण्ड छुड़ाना ही होगा।
स्वास्थ्य पर चर्चा हो रही थी। जब किसी ने कहा, अगले बारह वर्षों में कुल मरीजों में आधे मानसिक बीमार होंगे तो डाक्टर मित्र तपाक से फरमाए, ‘‘बारह वर्ष? यह स्थिति तो अभी बन चुकी है।’’ जहां देखो, खिसियाते, झल्लाते, बड़बड़ाते, गुस्साते एक ढूंढ़ोगे दस मिलेंगे, दूर ढूंढ़ोगे पास मिल जाएंगे। सुकून चाहिए हर किसी को, किंतु अधिसंख्य व्यक्ति निराश, उद्विग्न और अतृप्त जीवन बिताने को अभिशप्त हैं चूंकि वे असल समस्या पर ईमानदारी से विचार करने में कतराते हैं। स्वयं से भयभीत, बेचारे नहीं समझते कि आंख मूंद लेने से समाधान नहीं मिलता। और पैंतालीस वर्ष पुरानी ‘गमन’ की लोकप्रिय फिल्मी लाइन, ‘‘इस शहर में हर शख्स परेशां सा क्यों है’’ में उठाया प्रश्न अनुत्तरित रहता है।
अपेक्षित परिणाम नहीं मिलने का अर्थ है, मौजूदा जीवनशैली काम की नहीं रही, इसमें आमूल फेर-बदल करने होंगे। नई सोच के साथ जीवन शैली के अभिनव तौर-तरीके अपनाने होंगे। अपनाई जा रहीं रीति-रिवाजों में भी काटछाट करनी होगी।
नया परिवेश हमें नए हुनर सीखने और हालात को भिन्न पहलू से देखने-समझने का अवसर देता है। सबसे बढ़ कर, हम स्वयं में निहित उस सामर्थ्य का दोहन करते हैं जो अन्यथा ताउम्र सुषुप्त रह जाती। हालांकि जिस सोच में हम एकबारगी स्वयं को ढ़ाल लेते हैं उससे पिंड छुड़ाना सहज नहीं होता किंतु बेहतरी चाहिए तो नई पहल करनी होगी। बुजुर्गों के पुराने अक्सर दाढ़ छिल देते रेजर या जार-जार हो गए कुर्ते से मोह पर आपको भी तरस आता होगा।
अतीत से मोहः स्वयं के भीतर जरूरी बदलाव लाने में असमर्थ महसूस करेंगे तो जब के तस रहेंगे। जीवन शैली में बदलाव की आमजन की मानसिक बेबसी को बूझते हुए एक नामी फिटनैस कंपनी संभावित ग्राहकों को पढ़ाती है, ‘‘यदि तुम्हें पता होता कि मोटापा कैसे घटाना है तो अब तक यह कार्य आप स्वयं कर चुके होते।’’
बेहतरी की शर्त है बदलावः अतीत से मोह की जकड़न जबरदस्त होती है। मौजूदा ढ़र्रा कितना भी जर्जर, अनुपयोगी या कष्टदाई हो, जाना पहचाना होता है, और रास आता है। कदाचित कौंधे भी कि नए तौर-तरीके अधिक कारगर और बेहतर हैं, तो भी उनमें जोखिम दिखता है। वैचारिक उधेड़बुन के बाद सुपरिचित, सुरक्षित राह चुनने वाला अपनी नियति को बांध लेता है। अलबर्ट आइंस्टीन ने कहा, परिवर्तन की क्षमता से व्यक्ति का बौद्धिक स्तर तय होता है। यथास्थिति में बदलाव चाहिए तो बहुत कुछ वह करना पड़ेगा जो आज तक नहीं किया। जब फलां फलां यह नहीं कर पाया तो मैं भला कैसे कर सकता हूं, इस सोच को दरकिनार करते हुए मन में बैठाना होगा कि चूंकि अमुक व्यक्ति फलां कार्य नहीं कर पाए, अतः मुझे बीड़ा उठाना होगा।
बदलाव सृष्टि का विधान है, कोई वस्तु सदा अपने मूल आकार, रंगरूप में नहीं रहती। वृद्धि और विकास की प्रक्रिया से गुजरते हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका निरंतर अपना रूप बदलती रहती है। भूविज्ञानी बताते हैं, नदियों का मार्ग भी वह नहीं रहा जो आरंभ में था। दस-बारह वर्ष बाद अपने पुश्तैनी गांव या पैत्रिक शहर जा कर देखें। आसपास के लोग, पड़ोस, मकान, दुकान, चौपाल, गली-गलियारे, खेल का मैदान, स्कूल — सब कुछ इतना बदला-बदला दिखेगा कि आपको लगेगा कहीं और आ गए हैं। सत्य यह है कि सब कुछ बदल चुका होगा।
अतीत का मोह यानी प्रगति की राह अवरुद्धः पुरातन के प्रति आसक्ति या बीते प्रसंग बखानते रहने का अर्थ है कि भविष्य की संभावनाएं चुक गई हैं जहां आपने शेष जीवन बिताना है। जीवन को स्वतः घटित होते परिवर्तनों की श्रृंखला बतौर परिभाषित करते हुए लाओत्ज़े ने कहा, परिवर्तन का प्रतिरोध न करें, परिवर्तन को स्वीकार न करने से कालांतर में दुख ही उपजेगा।
अतीत से गुंथे रहने का अर्थ है अपने नियंत्रण उन्हें सौंप देना जो तुम्हें उठने नहीं देंगें। पुरातन प्रसंगों में रमे रहने वाले को परिवर्तन स्वीकार्य नहीं होगा और वह प्रकृति में सर्वव्याप्त सौंदर्य के आस्वादन से वंचित रहेगा। फ्रेडरिच नीत्शे ने कहा, ‘‘जो सांप अपनी केंचुली नहीं बदलता उसकी मृत्यु शीघ्र हो जाती है; उसी भांति जिस मस्तिष्क में धारणाओं और मान्यताओं की पुनरीक्षा और तब्दील की गुंजाइश न हो उसकी उर्वरता नष्ट हो जाती है।’’
नए को खारिज करने का अर्थ है, उन्नयन के मार्ग ठप्प कर देना! ऐसा आप कदाचित नहीं चाहेंगे!
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इस आलेख का असंशोधित रूप नवभारत टाइम्स (संपादकीय पेज, स्पीकिंग ट्री कॉलम) में 8 जून 2023, बृहस्पतिवार को ‘सही बदलाव के लिए शुभ मुहूर्त का इंतजार ठीक नहीं’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ।
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