जिस आसन को निष्ठावान साधक ग्रहण करता है उसके गिर्द का परिक्षेत्र ऊर्जा से परिपूर्ण हो जाता है। इस परिधि में आने वाले व्यक्ति के भीतर भी ईश्वरीय शक्ति के संचरण होता है और वह धन्य होता है।
कण्वनगरी में कथा बांचते युवा महंत
संतों, कथावाचकों के चरणों पर लेट कर माथा टेकते भक्तों को, और इतराते-मुस्कुराते कथावाचक द्वारा भावभीना आशीर्वाद देते आपने भी देखा होगा। लेकिन उत्तराखंड के कोटद्वार (कण्वनगरी) उपनगर का माजरा कुछ और ही था।
भागवत पुराण के पहले दिन की कथा का पारायण हो चुका था। सांय का वक्त था। एक वृद्धा आचार्य के चरण स्पर्श करने आगे बढ़ी। उत्तरकाशी (और जोली ग्रांट, भानियावाला, देहरादून) व्यासपीठों के युवा महंत महामाया प्रसाद ने तुरंत अपने पांव पीछे खींचते कहा, ‘‘ऐसा न करें, आप मेरी मां समान हैं’’। वृद्धा ने ऐतराज किया, ‘‘हमें इस पुण्य से वंचित न करें, आप व्यास हैं’’! ओजस्वी महंत ने अपने आसन की ओर इंगित करते कहा, ‘‘जब मैं उस स्थान पर बैठे भागवत पुराण की महिमा बांचता हूं तो क्षणभर के लिए आप मुझे अलग मान सकते हैं। मैं आयु, अनुभव तथा अनेक मामलों में आपसे कमतर हूं। आपके अंतःकरण में जो प्रभु हैं वही मेरे भीतर हैं’’। महंत के अहंकारविहीन, विनम्र आचरण से सभी अभिभूत थे। ज्ञानी महंत ने व्यासपीठ की गरिमा और उच्च पद पर आसीन होने पर इतराने की प्रवृत्ति पर अपनी सोच जता दी थी।
ज्ञान-विज्ञान, प्रतिष्ठा, आर्थिक समृद्धि या अध्यात्म के उच्च शिखर पर पहुंचे व्यक्ति का आचरण और व्यवहार दर्शाता है कि उसने अर्जित ज्ञान को कितना आत्मसात किया है। जो ज्ञान जीवन में नहीं ढ़ाला, वह ज्ञान नहीं, पांडित्य है। ज्ञान दूसरे को गिराने का साधन भी नहीं है। मनुष्य के परम लक्ष्य को जानने वाला साधक सरल, सहज स्वभाव का होगा, उसे अपने ज्ञान पर लेशमात्र अहंकार नहीं होगा। ज्ञान के सागर में अपने सीमित ज्ञान के बाबत उसे भ्रम नहीं रहता। शांतिकुंज हरिद्वार के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा कहते थे, ‘‘पहुंचे हुए व्यक्ति अमीरी में गरीबों जैसे विनम्र और गरीबी में अमीरों सरीखे उदार रहते हैं’’। सच्चे साधक में बौद्धिकता या किसी दृष्टि से कमतर व्यक्ति के प्रति भी समादर भाव होगा, वह दूसरों पर हावी होने का यत्न कदाचित नहीं करेगा, उसमें आधिपत्य भाव होगा ही नहीं। दिल्ली के एक नामी अखवार के प्रमुख संपादक रहते ‘अज्ञेय’ कार्यालय द्वारा नियत कुरसी पर नहीं बल्कि बगल की कुरसी पर बैठते थे। इसके पीछे परोक्ष भाव था कि उच्च पद की न्यायोचित अनुपालना के लिए आदर्श कोई नहीं होता तथा पदधारक स्वयं को निरंतर सवंर्धित उन्नत करते रहना होता है।
आसन की जादुई शक्तियां
स्थान या आसन विशेष की फिजाएं कैसे ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म आदि क्षेत्रों के निष्ठावान साधकों को असाधारण शक्तियां प्रदान करती हैं और उनके गिर्द सकारात्मक सघन ऊर्जा परिक्षेत्र निर्मित हो जाता है, यह आध्यात्मिक शोध का विषय है। आला सिनेकर्मी सत्यजीत राय कोलकता के एक रेस्तरां में जिस नियत कुर्सी पर जलपान करते थे वहां बैठने की प्रिमियम दरें चुकाने के लिए ग्राहक लालायित रहते हैं।
करामाती ठेलीः भोपाल की न्यू मार्किट के लोकप्रिय लिटिल कॉफी हाउस के ठेली पर बने किचिन की यही कहानी है। कारोबार के शुरुआती, गर्दिश के दिनों जिस ठेली के बदौलत संचालक का कारोबार फला-फूला दिन फिरने के बाद भी उसे खारिज करना संचालक को मंजूर नहीं था।
भोजकालीन टीलाः एक प्रसंग उज्जैन के विस्मयकारी भोज कालीन टीले का है। वहां बैठ कर चंद्रभान नामक गड़रिया अत्यंत सूझबूझ से जटिल से जटिल विवाद सुलझाता और दर्शक भौंचक्के रह जाते। कौतुहलवश राजा भोज एक दिन साधारण वेशभूषा में वहां पहुंचे। गड़रिए के रोचक प्रश्न, बेलाग व्याख्याओं और सटीक निर्णयों से वे दंग थे। महफिल छंटने पर अपने असल रूप में आ कर उन्होंने गड़रिए से दोटूक बयानों का रहस्य पूछा। सहमे, गिड़गिड़ाते गड़रिए ने बताया कि टीले पर बैठ कर वह कैसे और क्या धड़ाधड़ा बोलने लगता है, उसे स्वयं मालूम नहीं होता। दरबार में लौट कर राजा भोज को दरबारियों से पता चला कि उस टीले के नीचे युगपुरुष सम्राट विक्रमादित्य का आसन दबा पड़ा है।
उच्च मानवीय मूल्यों की निष्ठापूर्ण अनुपालना ईश्वरीय गुण है। अहंकार और दंभ से कोसों दूर, ऐसे सदाचारियों के हृदय में प्रभु का वास होता है। जहां वे रहते, उठते-बैठते रहे वे फिजाएं भी सकारात्मक व ऊर्जामय हो जाती हैं। मन या शरीर से टूटे व्यक्तियों को पुण्य स्थलों से समाधान मिलने का यही आधार है। फलां धर्मस्थल पर गए और उनकी व्यथाएं और बाधाएं जाती रहीं, ऐसे प्रसंग आपने देखे-सुने होंगे। सच्चे साधकों के सानिध्य में रहते या उनसे वैचारिक तादात्म्य बैठाने वाले भी परोक्ष तौर पर ईश्वरीय शक्तियों से धन्य होते हैं। पार्थिव शरीर छोड़ने के उपरांत भी वहां प्रतिष्ठित हो गई ऊर्जायुक्त फिजाओं से भक्तों का कल्याण होता है।
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आलेख का मूल रूप 29 जून 2023, बृहस्पतिवार को नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज (स्पीकिंग ट्री कॉलम) में ‘घमंड अज्ञानियों का गहना है, ज्ञानियों को इससे क्या काम’ शीर्षक से प्रकाशित।
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