मिट्टी का दिया है, तभी दीवाली है

कितना भी कर लें, कागजी फूल कुदरती फूलों का लुत्फ कभी न दे पाएंगे! दिवाली में मिट्टी के दियों का प्रयोग न केवल एक सुदीर्घ सांस्कृतिक प्रथा को संरक्षित करता है बल्कि स्वदेशी उद्योगों और मूल्यों को संवर्धित  करता है।

उन दिनों की याद करें जब दीवाली के मुख्य आयोजन की शुरुआत भारतीय तिथि के अनुसार मिट्टी के बड़े से दीपक को प्रज्ज्वलित कर होती थी। दीपक के सम्मुख लक्ष्मी-गणेश पूजन में धनधान्य, बुद्धि में बढ़त और समग्र बेहतरी की कामना, और फिर अन्य देवी-देवताओं की स्तुति की जाती। इसके उपरांत उसी दिए की लौ से अनेक छोटे दिए जलाए जाते जिन्हें घर की चौखटों, दरवाजों के बाहर और चबूतरे की सरहद पर पंक्ति में सुसज्जित कर दिया जाता। तभी छोटे-बड़ों को चिरप्रतीक्षित मिठाई खाने को मिलती। उसके बाद जल्द ही आस-पड़ौस में मिठाइयों के आदान-प्रदान का सिलसिला चलता; यह कार्य अमूनन बच्चे करते थे। जो परिजन छूट जाते उन्हें अगले दिन कवर किया जाता।

दीप प्रज्ज्वलन का अर्थः दीप प्रज्ज्वलन का सही अर्थ उस दिए में या तेल में डुबी कपास की बाती जला कर परिवेश से अज्ञान की धुंध को मिटाना है जिसे कुम्हार ने स्थानीय माटी से अपने हाथों से निर्मित किया। दीवाली के आयोजनों का केंद्रबिंदु मिट्टी का दिया हो, तभी दीवाली संपन्न समझना चाहिए।

कागजी रस्मेंः अब नजारा दूसरा ही है। मिट्टी के दिए के बदले घरों, दुकानों, भवनों में जगमगाती बिजली की लड़ियां हैं, पटाखों के खेल हैं। औपचारिक लक्ष्मी पूजन भी निभाया जा रहा है। बिजली की लड़ियां और धुआंधार पटाखे भले ही हमें क्षणभर का नेत्रसुख और कर्णसुख प्रदान करें, किंतु रूखे बल्ब हमारे अंतःकरण को तृप्ति नहीं दे सकते। इनमें रस तलाशना कागजी फूलों से काम चलाने सरीखा है।

दीप प्रज्ज्वलन सभी पंथों में है: दीप प्रज्ज्वलन अग्नि तत्व की आराधना है। यह परंपरा सदियों से हमारी सोच, हावभाव और संस्कारों में गुंथी है और हमें बहुविध संबल देती रही है। यह अच्छाई और पवित्रता का प्रतीक भी है। आलोकित दिये से परालौकिक अनिष्टों और बाधाओं का शमन माना जाता है। यह भी धारणा है कि दीप प्रज्ज्वलन से अभिनव कार्य के भलीभांति संपन्न होते हैं। दीप प्रज्ज्वलन उपनयन, विवाह, नामकरण, जन्मदिन जैसे धार्मिक अनुष्ठानों, दीक्षांत समारोहों में किया जाता है। इतना ही नहीं, आवासीय, कार्यस्थलीय, औद्योगिक भवनों के शिलान्यास, शासकीय बैठकों, राजनैतिक, साहित्यिक, वैज्ञानिक व अन्य अधिवेशनों, गोष्ठियों आदि का श्रीगणेश दीप प्रज्ज्वलन बिना संपन्न नहीं होता। दिये के नाम पर शास्त्रीय संगीत में ‘दीपक राग’ की विधा है जिसके गायन से दीपक का स्वतः प्रज्ज्वलित हो उठना बताया जाता है।

दीपक प्रज्ज्वलन को अन्य पंथों में भी शुभकारी मानते हैं। ईसाई नवनिर्मित गिरिजाघर में पहले पूजास्थल में मशाल और फिर प्रार्थना स्थल के गिर्द तेल के दिए जलाते हैं। मुस्लिम मानते हैं कि आले में कांच के सांचे में रखा लैंप टिमटिमाते सितारे की भांति नेकी का प्रतीक है। यहूदी प्रकाश पुंज को आस्था का प्रतीक समझते हैं। सनातन संस्कृति में दीप प्रज्वलन पर विशद विचार किया गया है। दिया कितनी बातियों का हो, दीपक का प्रयोग कब-कब, किस रीति से हो, इसे किस दिशा में रखा जाए, इन विषयों पर विधान उपलब्ध हैं।

अर्थव्यवस्था को गति: दिये का व्यापक चलन देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ा है। प्रजापति समाज के करीब 18 करोड़ कुम्हारों की आजीविका का दारोमदार मिट्टी के दिए, कुम्भ, ईंट, कुल्हड़, प्याले व अन्य बर्तनों के निर्माण, वितरण और विपणन पर है। दियों की खपत कम होने से यह विशाल वर्ग प्रभावित होगा। दिये तथा मिट्टी के अन्य पात्रों के अधिक उपयोग से हम देशी शिल्पकारों और स्वदेशी कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करते हैं। मिट्टी के दिये के उपयोग से हम पर्यावरण को सही रखने में योगदान करते हैं। दीप पर्व अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर प्रकाश की ओर प्रशस्त रहने का उद्बोधन है। माटी का दिया इस मंशा की आपूर्ति में शुभकारी रहता है।

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यह आलेख तनिक संक्षिप्त रूप में ‘‘अब दिवाली में वह रौनक कहां शीर्षक से दैनिक हिन्दुस्तान में 11 नवंबर 2023, शनिवार के संपादकीय पेज में प्रकाशित हुआ। अखवार के ऑनलाइन संस्करण का लिंक: https://www.livehindustan.com/blog/cyberworld/story-hindustan-cyber-world-column-11-november-2023-8963217.html

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