नित्य नया जानने-सीखने वालों की कद्र कभी नहीं घटती

दुनिया में सब कुछ चलायमान है, आगे सरक़ रहा है। एक जगह खड़े रहने वाले पिछड़ जाएंगे। भरपूर जीने और आनंद के लिए अपने ज्ञान, बुद्धि और हुनर को उन्नत करते रहना होगा। इस आशय से हर दिन सीखते रहने की आदत बनानी होगी। जिज्ञासा की लौ को मद्धिम न पड़ने दें।

आपकी उपयोगिता तभी तक रहेगी जब तक आप परिवार, समाज या राष्ट्र के काम आते रहेंगे। यानी आपने दूसरों के किसी कार्य में योगदान देते रहने की आदत बनानी है। उसी धूप का गर्मियों में तिरस्कार होता है जिसका सभी सर्दियों में बेसब्री से इंतजार करते हैं।

दूसरों के लिए मददगार तभी होंगे जब आपके पास ज्ञान, बुद्धि, हुनर, धन या अतिरिक्त वस्तु होगी, दूसरा, बांटने की इच्छा जरूरी है। किसी के घर की ट्यूब लाइट बदलनी है, या दीवार में कील ठोकनी है। यह कार्य वही कर सकता है जो यह हुनर जानता है।

ज्ञान ही स्थाई पूंजी हैः  ज्ञान, बुद्धि और कौशल वे पूंजियां हैं जो दूसरे को देने के बावजूद घटते नहीं हैं। दूसरे को बताएंगे या सिखाएंगे तो आप और अधिक कुशल होंगे। विद्या वह भंडार है जो देने पर भी बढ़ता रहता है। इसीलिए कहा गया है, ‘विद्या सर्वत्र पूज्यते’।

नित्य नया जानते, सीखते रहना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। जब तक हम अभी तक अर्जित ज्ञान, अनुभव, सूझबूझ और कौशल को अद्यतन और समृद्ध करते रहेंगे तभी तक उसमें निखार आता रहेगा। हमारी ज्ञानेद्रियां भीतरी और बाह्य चराचर जगत की घटनाओं की कार्यप्रणालियों और परिणामों को समझने-बूझने में सहायक होती हैं। नवजात शिशु में कौतुहल उच्च्तम स्तर का रहता है। वह प्रयोगधर्मी भी होता है। उसका हृदय जिज्ञासा में कुलबुलाता है कि हाथ लगी किसी भी वस्तु को गिराने, उछालने, पटकने, तोड़ने-मरोड़ने से क्या होगा?

प्रश्न करना मस्तिष्क की कल्पनाशील प्रकृति दर्शाता है। जिज्ञासा का अर्थ है, मन उर्वर और जीवंत है और विभिन्न कार्यकलापों, घटनाओं के कारणों को जानने के लिए उत्सुक है। शिशुओं की भांति शीर्ष वैज्ञानिकों और अन्वेषणकर्ताओं के मन में कौन, क्या, कहां, कैसे, कब जैसे प्रश्न उमड़ते रहते हैं। इन प्रश्नों के समाधान की तलाश में उपलब्ध ज्ञान के परिष्कार का सिलसिला चलता रहता है। नामी वैज्ञानिक आइंस्टीन कहते थे, उनकी प्रतिभा सामान्य स्तर की थी किंतु जानने की ललक अत्यंत प्रबल थी। जिज्ञासा को अनुत्तरित छोड़ देने या इसे बाधित करने की चेष्टा प्राकृतिक विधान के प्रतिकूल है।

शिक्षक सदाबहार शिक्षार्थी होता हैः  सच्चे ज्ञानी की भांति अच्छे शिक्षक को बोध रहता है कि ज्ञान का छोर नहीं है, यह कितना भी हो, इसे विस्तृत करने की गुंजाइश हमेशा रहती है। इसीलिए अपने ज्ञान पर अहंकार तो दूर, अभिनव अवधारणाओं से स्वयं को सुसज्जित करने के लिए सदा उसके आंख-काल खुले रहते हैं। जिज्ञासु प्रवृत्ति ज्ञान के मौजूदा स्तर से संतुष्ट नहीं रहती। वह सदा स्वयं को शिक्षार्थी मानता है। यही भाव वह अपने शिक्षार्थियों में चाहता है, उन्हें पाठ्यक्रम से सुपरिचित कराने से इतर उनमें आजीवन सीखते रहने की अभिवृत्ति को जाग्रत करेगा।

जिज्ञासा-सृजनशीलताः चोली दामन का साथ

जिज्ञासा का सृजनशीलता से चोली दामन का रिश्ता है। प्रकृति के विस्मय, और घटनाएं जिज्ञासु के अंतकरण को झकझोरती हैं, कदाचित उसे उद्विग्न कर सकती हैं। टिमटिमाते सितारों तथा प्रकृति की मनोहारी छटाओं से अभिभूत जिज्ञासु उसे बूझने में मनोयोग से लग जाता है। तभी जा कर कालांतर में मानवजाति को अनुपम उपहार सुलभ होते हैं।

 

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इस आलेख का संक्षिप्त प्रारूप 10 सितंबर 2024, सोमवार के दैनिक जागरण के संपादकीय पेज (ऊर्जा कॉलम) में ‘जिज्ञासा’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ।

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