मौजपरस्ती नहीं है उत्सवी फिजाओं के मायने

प्रकाशित 20 अक्टूबर 2019

अपने यहां हर साल शारदेय नवरात्र से शुरू हो कर जनवरी में माघ स्नान (गंगा स्नान) तक की अवधि को ‘‘उत्सवी चतुर्मास’’ कह सकते है। अलग-अलग कारण से लोग अपने बजट, और इच्छा अनुसार, कुछ बेहिसाब भी, इन पर्वों में सहभागी होते हैं। आदि काल से चले आ रहे हर त्यौहार आस्था से जुड़ा है और इसके पीछे एक दर्शन होता है। इन आयोजनों में अपना आनंद है यों इनका आशय मौजपरस्ती नहीं है। टटोलना होगा, आपका फोकस किस पर ज्यादा रहता है, साप्ताहिक छुट्टी की पूर्वसंध्या पर या सोमवार की सुबह पर! लाॅक कर दिया जाए, इसी सोच से आपके जीवन की दशा-दिशा तय होगी।

भारतीय समाज के अधिसंख्य तबकों में मान्यता है कि कामधाम अपनी जगह, होते ही रहेंगे। जितना भी कर लें, कसर रह जाती है; और न भी हों तो क्या फर्क पड़ता है? हम नहीं करेंगे तो कोई और कर लेगा। हां, रंगांरंग समारोह चलते रहने चाहिएं। जहां चाह वहां राह; रुझान उत्सवप्रिय रहा, मौके भी बीसियों मिलते रहे। दशहरा, दिवाली, नया साल, होली, राखी, भैया दूज, करवा चैथ, बुद्ध पूर्णिमा, जन्माष्टमी, नामनवमी, अटरम, पटरम। गोया उत्सव कम पड़ रहे हों, ढ़ेर सारे विदेशों से सीख कर गले लगा दिए गए – मातृ दिवस, पितृ दिवस, मित्र दिवस, वैलंटाइन दिवस; जानवरों, फूलों तक को नहीं छोड़ा सेलीब्रेशन के बहाने। साल के 365 दिनों में मनाए जाने वाले दिन दिवस 450 से कम नहीं। कुछ को तनिक अहलदा सा मनाने की सूझी। क्या आप जानते हैं, 1973 से साल का एक दिन ‘‘आज कुछ नहीं करना’’ (डू नथिंग डे) बतौर मनाया जाता है, 16 जनवरी को। फिर ओशो ने उत्सवी मुद्रा को और हवा दी, जीवन उत्सव है, इसका जम कर लुत्फ लिया जाना चाहिए!

परंपरा और उत्सव
निस्संदेह, मनुष्य हर कदम पर तर्क से काम लेने वाला मात्र भौतिक शरीर नहीं है। उसमें दिल है जो धड़कता है, करुणा है, भावनाएं हैं, विचार हैं, इन सब का निरंतर गतिशील रहना आवश्यक है। जीवन गमगीन मुद्रा में, मुंह लटकाए जीने, नपा-तुला बोलने, बिजली-पानी-टेलीफोन के बिल भरते रहने, अखवार की हैडलाइन्स पढ़ने भर के लिए नहीं है। उसकी आदिम प्रवृŸिा उन्मुक्त चिंतन और विचरण की है जिसे सवंर्धित किया जाना चाहिए, अन्यथा उसमें मनुष्यता का लोप होता चला जाएगा। यही हो रहा है, जिस पर नकेल कसनी होगी। ऐसा मशीनी जीवन व्यर्थ है जिस में उमंग, हौसले, उत्साह नहीं। होली या ब्याह-शादी में बजते ढ़ोल-बांसुरी के लय-ताल जिसके अंतकरण को नहीं झकोरते, जिसके पांव-हाथ की उंगलियां न थरकें वह अधूरा जीवन गुजारता है। हर्ष, उल्लास जाहिर करने को बाधित नहीं होने देना है। मन और भावनाओं को दुरस्त रखने के लिए किसी न किसी हद तक उत्सवी फिजाओं में भागीदारी जरूरी है।

प्रत्येक पारंपरिक उत्सव जहां एक ओर कुछ रस्मों के जरिए हमारे प्रकृति या उस परमशक्ति से जुड़ाव को पुनर्जीवित करता है वहीं चंद लमहों के लिए ही सही, हमें खुल कर जीने का अवसर देता है। जिन ग्रामीण महिलाओं को कमोबेश पूरे साल रसोई, मवेशियों की देखभाल या खेती में हाथ बंटाने से फुर्सत नहीं मिलती, इन्हीं उत्सवी फिजाओं के माध्यम से मन में पड़ जाती सलवटें दुरस्त होती हैं और संपीडित भावनाएं सिंचित होती हैं। इन समारोहों में भाग लेने के बाद वे पुनः कर्मठता से अपने सक्रिय रुटीन में लग जाती हैं। इन मौकों पर अनेक व्यक्ति मांबाप या परिजनों से मेल-मुलाकात ताजा करते हैं और आपसी रिश्ते पुख्ता होते हैं। पैत्रिक गांव में वार्षिक, द्विवार्षिक पूजाओं में भागीदारी भी एक मूल के लोगों को एकसूत्र में संगठित रखने का जरिया है। उत्सवी माहौल लोगों के वैचारिक मतांतर और वैमनस्य खत्म हो कर सामुदायिक सद्भावना सवंर्धित करते हैं। पारंपरिक समारोहों में अक्सर स्थानीय खाद्य व अन्य सामग्रियों का उपयोग होता है। स्वदेशीपन को प्रोत्साहित करने का त्यौहारों की भूमिका का एक अहम पक्ष यह भी है।

कारोबारियों का दृष्टिकोण
शादी-ब्याह, पारिवारिक या सामुदायिक अनुष्ठान, मेले, समारोह, प्रदर्शनी, तमाशे, जहां कहीं भीड़ जुटे, अपना हित पहचानने में व्यापार जगत की निगाहें बहुत पैनी होती हैं, आखिर यही उसकी रोजी-रोटी है। वह ताड़ जाता है कि आयोजकों और प्रतिभागियों की जेब में कितना माल है और कितना उसे और ढ़ीला किया जा सकता है। अधिकांश कारोबारी शुद्ध मुनाफाखोरी से प्रेरित हैं और ग्राहक से पैसा खसोटने में वे नैतिकता और औचित्य की सरहदें सहज लांघ जाते हैं। जिन मंदिर-मस्जिदों या पर्यटन स्थलों के गिर्द वातावरण पूणतया नैसर्गिक और एकाकी रहता था, आज इनके गिर्द पूरा बाजार है। जहां केवल स्थानीय फूल-पŸो चढ़ते थे वहां एक से एक भोग, चुन्नियां, चद्दरें चढ़ती हैं, बल्कि ऐसा अनिवार्य बताया जाने लगा है। देहरादून की सरहद पर सहस्रधारा नामक पर्यटन स्थल है। पैंतीस वर्ष पहले वहां चाय की दो दुकानें थीं जहां चाय के साथ खाने के नाम पर बासी बन, मठ्ठी और फैन उपलब्ध थे। आज वहां दर्जनभर रेस्तरां, होटल हैं जहां साउथ इंडियन, चायनीज़, कंटीनेंटल, मुगलई, फास्ट फूड सब मिलता है।

त्यौहारों में व्यापारियों का मकसद रहता त्यौहारी संवेदनाओं का भरपूर लाभ लिया जाएए इस दृष्टि से वे अनैतिक तौरतरीके अपनाने में भी नहीं हिचकतें। सोचें, दूध का उत्पादन तो यकायक नहीं बढ़ सकता, फिर दूध की इतनी मिठाइयां बाजार में कहां से आती हैं। कुछेक तो दीवाली अकेले में सालभर की कमाई कर डालते हैं।

आस्था बगैर मायने नहीं हैं
कोई त्यौहार मनाने का अर्थ उस आस्था से जुड़ना है जो लोकजीवन को सही मूल्यों की अनुपालना के लिए प्रेरित करती रही है। इस आशय से पहले त्यौहार की व्युत्पŸिा को समझना होगा और उसमें विश्वास रखना होगा, यही बात तीर्थस्थलों के लिए है, तीर्थस्थल पिकनिक स्पाॅट नहीं हैं। मस्ती के लिए वहां जाने वाले तीर्थों की सात्विकता को ठोस पहुंचाते हैं जिसके लिए उन्हें देर-सबेर किसी रूप में चुकाना होगा। मौजूदा दौर में त्यौहार अंधाधुंध पैसा खर्च कर अपनी हैसियत जताने का प्रचलन है। किसी पर्व में अहमियत आराध्य की पूजा, अर्चना और तहेदिल से स्तुति की है, आपने कितना खर्च किया इसकी नहीं।
पर्व-त्यौहार मनाने का एक वृहत् मानवीय पक्ष यह है कि अपने से कमतर व्यक्तियों पर अन्न, वस्त्र या अन्य वस्तुओं के दान आदि द्वारा कृपा या रहमत बरती जाए। भाव यह है कि स्वयं से कम संपन्न व्यक्तियों को सक्षम बनाने के यत्न किए जाएं। स्वामी विवेकानंद ने कहा, ‘‘दूसरों की मदद करने वाले हाथ उन ओंठों से ज्यादा पाक हैं जो मंदिर-मस्जिद में प्र्रार्थना करते हैं।
अपव्ययता शान नहीं है। दुकान से ढ़ेर सारी जरूरी-गैरजरूरी वस्तुएं खरीदने के बाद ‘‘कितने हुए’’ कहते हुए दुकानदार को दो हजार का नोट थमाने में बड़प्पन नहीं है। पैसे सूझबूझपूर्ण तरीके से खर्चने का अर्थ है धन-संपदा की आराध्या लक्ष्मी माता का सम्मान, जिनके रूठने से फटीचरी की संभावना रहती है। बिड़ला समूह के पितामह घनश्याम बिड़ला, इन्फोसिस के नारायण मूर्Ÿिा, सागर रत्ना फूड चेेन के जयराम बानन सरीखे कारोबार में ऊंचाइयों तक पहुंचने वाले वे शख्स थे जिन्होंने थोड़ी पूंजी से कारोबार शुरू किया, और खर्च सुविचार से किया। बेंजामिन फ्रेंकलिन की राय में ‘‘छुटपुट खर्चों की अनदेखी नहीं कीजिए, एक छोटी सी छीजन से समुद्री जहाज डूब जाता है।’’
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दैनिक वीर अर्जुन के संपादकीय पृष्ठ पर 20 अक्टूबर 2019 को प्रकाशित

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