संतान की परवरिश कर्तव्यभाव से करें, प्रतिफल की आस रहेगी तो जीवन बोझिल हो जाएगा।
कार्यस्थल में जिस कुर्सी पर हम बरसों बैठते रहे, घर में जिस बिस्तर पर सोए, जिस थाली में भोजन ग्रहण करते रहे, पार्क की जिस बेंच पर अक्सर बैठे, या जिस वृक्ष या पालतू जानवर पर प्रतिदिन दृष्टि जाती रही, उसके प्रति मोह होना और उस पर एकाधिकार जताना सहज मानवीय प्रवृत्ति है। बल्कि इन सब से दुराव उचित नहीं। प्रतिदिन व्यवहार में आती इन वस्तुओं के उपलब्ध न होने पर कुछ व्यक्ति असहज या व्यथित हो जाते हैं। यह निर्जीव या उन अस्मिताओं के प्रकरण में हुआ। जो घर-परिवार के हैं, उनकी बात ही अलहदा है। जिन माता-पिता ने पूर्ण संरक्षण प्रदान करते हुए अपने सभी साधनों से हमारी परवरिश की, उंगलियां पकड़ कर उठना, चलना, पढ़ना-लिखना, खाना, बोलना आदि सिखाया, उनसे अथाह प्रेम व जुड़ाव, तथा वयस्क होने पर उनके प्रति कृतज्ञता भाव ईश्वरीय विधान के अनुरूप है। उसी क्रम में संतान से अपनत्व न अस्वाभाविक है न ही अनुचित। किंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस जुड़ाव की प्रकृति और इसकी सीमा को नहीं समझने से उम्रदारों का भावी जीवन कष्टदाई हो जाएगा।
एक धारणा यह है कि अन्य प्राणियों की भांति मातापिता का दायित्व मात्र संतानोत्पत्ति, बाल्यकाल में संतान की सही परवरिश और अपने विवेक अनुसार उन्हें दिशा देना भर है। नवजात पशु-पक्षियों को तनिक संभलने के बाद भौगोलिक तथा अन्य प्रतिकूल परिस्थितियों से स्वयं तालमेल बैठाने और निबटने के लिए छोड़ दिया जाता है ताकि वे जरूरी क्षमताएं स्वयं विकसित करें और सशक्त बनें।
कमोबेश परिपक्व हो कर संतान जब आजीविका या कैरियर की एक डगर पर चल पड़े, इसके बाद मातापिता की खास भूमिका नहीं रह जाती है और उनका तटस्थ हो जाना संतान के दीर्घकालीन हित में रहता है। संतान के जीवन में नियमित हस्तक्षेप से आप उनके सहज विकास को बाधित करेंगे। विशाल वृक्ष के तले पौधे नहीं फलते-फूलते। बारबार या प्रत्येक स्तर पर संतान की प्रशंसा या आलोचना से आप उनके स्वस्थ, स्वतंत्र विकास को बाधित करेंगे। संतान की अधिक वाहवाही से उसे स्वयं को सर्वोपरि समझने की भ्रांति उत्पन्न हो जाती है। इसके विपरीत नियमित दुत्कार, उलाहना व रोकटोक से उसका मनोबल गिरता है।
अनेक पाश्चात्य समाजों में परिजनों के बीच कमोबेश यांत्रिक संबंधों की तुलना में अपने देश में मातापिता का समादर, और असमर्थ होने पर उनके समुचित आभरण की व्यवस्था संतान अपना नैतिक-धार्मिक दायित्व समझती, और निभाती है, भले ही घट गई क्षमताओं के कारण उम्रदार घर-परिवार में कोई भी योगदान में असमर्थ हो जाएं। वृद्धों को जीने के लिए सामाजिक सुरक्षा प्रणाली का मुंह नहीं ताकना पड़ता।
संतति पर आर्थिक, भावात्मक व अन्य निवेश के दौरान मातापिता अपेक्षाएं संजो लेते हैं कि उम्र ढ़लने पर उन्हें बहुगुणित हो कर प्रतिफल मिलेगा। यह तो सौदेबाजी हुई। अपने नवनिर्मित परिवार की देखरेख के चलते उम्रदार मातापिता के साथ पूर्ववत व्यवहार और आचरण बरकरार रखना संतति के लिए कठिन हो सकता है। संतान द्वारा अपेक्षाएं पूरी न करने पर अनेक मातापिताओं का मोहभंग उनके संताप का कारण बन रहा है।
उम्रदारों को संतति के नव सरोकार समझने होंगे अन्यथा उनका जीवन कष्टमय हो जाएगा। सयाने कह गए हैं, आपकी संतति आपकी नहीं है, वह केवल आपके द्वारा है, वह समाज, देश के निमित्त है। उसे स्वतंत्र अस्मिता मानते हुए केवल उचित दिशा दिखा कर, उसकी संवृद्धि में भरपूर सहायक बनना है। अपने मोह को यहीं विराम दीजिए। संतति को इसी योगदान से आप पितृ ऋण से भी मुक्त होंगे। संतति के प्रति कर्तव्यवाहन के दौरान हृदय में शुद्ध परहित भाव होगा तो प्रतिफल की अपेक्षा न रहेगी। अपेक्षा या प्रतिफल की मंशा से संपन्न कार्य तो स्वार्थ हुआ। निस्स्वार्थ भाव से कर्तव्यरत व्यक्ति अलौकिक आनंद का भागीदार होता है चूंकि उसके कार्य प्रभु इच्छा की अनुपालना में होते हैं।
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नवभारत टाइम्स 1 जून 2020 के “स्पीकिंग ट्री” स्तंभ में “सतत हस्तक्षेप से सहज विकास बाधित हो जाता है” शीर्षक से प्रकाशित हुआ।
लिंकः Online Edition – https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/religious-discourse/that-is-why-a-person-gets-upset-79915/
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हरीश जी ने बहुत सुंदर ढंग से समझाया है कि बच्चों के उन्मुक्त विकास के लिए अपनी तरह से जीने देना चाहिए। यही विधिसंगत होगा।