जिसने कहा, ‘‘गए जमाने में मरने के बाद आत्माएं भटकती थीं; अब आत्माएं मर चुकी हैं, शरीर भटकते हैं’’ उसका आशय था, आज का व्यक्ति स्वयं से इतना भयभीत रहता है कि उसे अंतःकरण से रूबरू होने का साहस नहीं होता। आत्ममंथन और पुनर्विचार से उसे सिरहन होती है। बाहरी छवि और प्रतिष्ठा के निखार तथा निजी प्रभाव के विस्तार की पुरजोर कोशिश में वह अपना स्वभाव बहिर्मुखी बना लेता है। सोशल मीडिया पर उनकी भी वाहवाही के लिए उतावला रहेगा जिनसे सामना होने पर दो घड़़ी बतियाना मंजूर नहीं।
इस बिरादर के रोबोटनुमा लोगों के सगे कोई नहीं होते, जिनसे, जितने, जैसे भी संबंध हैं, बरई नाम। एक प्रकरण उन सज्जन का है जिन्होंने स्वयं और अपनों को छोड़ समूची दुनिया का मानो ठेका ले रखा था। उन्हें पड़ोसियों-पड़ोसिनों, उनकी बहुओं, बेटियों-बेटों, उनके आगंतुकों, कार्यस्थल के कर्मियों और बास के हर मिनट की इंच-इंच की खबर रहती थी। यह दूसरी बात है कि एक शाम घर लौटने पर पता चला कि उनकी अपनी पत्नी मय बेटा-बेटी दूर के एक देवर के साथ नया घर बसाने कूच कर गई थी।
अंतःकरण की प्रवृत्ति अपनाने से यह तात्पर्य नहीं कि दुनिया से बेखबर रहें या दैनंदिन तथा अन्य दायित्वों से मुंह फेर लें। अपने ठौर से हिले डुले बगैर तरक्की तो क्या, गुजर भी न होगी। यों भी जहाज बंदरगाह में खड़े रहने के लिए नहीं निर्मित किए जाते। जड़ों से बंधे पेड़़-पौधों के विपरीत मनुष्य के पांव इसलिए हैं ताकि वह चले-फिरे। आवाजाही बिना सामाजिकता निभाना, जागरूक रहना, अपने हुनर व कार्यक्षेत्र में परिष्कार आदि संभव न होगा। नौकरी, कारोबार, खरीदारी, घूमपरस्ती, मनोरंजन, मेलजोल, सभी सिलसिलों में बाहर जाना होगा। किंतु इन गतिविधियों में तन-मन से जकड़ कर हम अपने असल, आध्यात्मिक स्वरूप को भूल जाते हैं। बेशक स्वयं को जानना गूढ़ पहेली है, किंतु इसी को बूझते रहने का प्रयास सयानेपन की शुरुआत है। बाह्य परिवेश में लिपटे-उलझे रहने से परिस्थितियों को स्पष्ट, वस्तुपरक भाव से समझने, आंकने की क्षमता जरब होती है। कालांतर में अंदर से बिखरा, जिस्म को संवारता, ऐसा व्यक्ति आत्मिक तौर पर क्षीण पड़ जाता है, एकाकीपन उसे काटता है, सामान्य मानसिक या भावनात्मक ठेस क्षुब्ध कर देती है।
बेशक बाह्य जगत से निरंतर जुड़ाव सोच को निखारने व परिष्कृत करते रहने के लिए अपरिहार्य है तो भी बाह्य और आंतरिक अस्मिताओं के बीच सामंजस्य उसी भांति आवश्यक है जैसे केंद्र और परिधि या स्थूल (शरीर) और सूक्ष्म (आत्मा) के बीच तालमेल आवश्यक है।
अपनी क्षमताएं निरंतर बढ़ाने की चेष्टा बहिर्मुखी और अंतर्मुखी दोनों करते रहते हैं। तथापि क्षमतासंपन्न होने के बाद दोनों का आचरण एक दूसरे से सर्वथा भिन्न रहता है। बहिर्मुखी इस नवार्जित शक्ति का प्रयोग दूसरों को झुकाने और निजी प्रभावक्षेत्र विस्तृत करने के लिए करेगा, उसके कृत्य अहंकार से अभिप्रेरित होंगे। इसके विपरीत आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति का व्यक्ति क्षमतासंपन्न होने के बाद फलदार वृक्ष की भांति विनम्र होगा। वह जानता है कि सम्मान के लिए लालायित व्यक्ति भीतर से दयनीय होता है। सम्मान पाने के बदले दूसरों के सम्मान की रक्षा करते व्यक्ति का अंतकरण सशक्त होगा, वह विश्वस्त रहता है कि ‘लाइक्स’ की संख्या, पदवियां, अलंकरण और दीवार पर लिखी इबारत से कोई महान नहीं बना चूंकि दुनिया की सबसे बड़ी अदालत तो हमारे भीतर है।
कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढ़त वन माहि। ओशो की एक कहानी में प्रभु सन्यासी वेश में किसी नगर में भक्तों को कष्ट दूर करने का मार्ग सुझाते थे। उनके ठिकाने पर लोगों का तांता बढ़ा तो परेशान हो कर वे सुदूर, वीरान में चले गए। लोगों ने उन्हें वहां ढूंड लिया और वहीं दुखियों का जमावड़ा होने लगा। अंत में गहन विचार के बाद प्रभु ने निर्णय लिया और लोगों के हृदय को उन्होंने अपना ठौर बना लिया।
यानी प्रभु तुम्हारे-हमारे सभी के भीतर हैं। संशयों, कष्टों, बाधाओं से पार आने के लिए हमें केवल अंतःकरण की ओर प्रवृत्त होना पड़़ेगा।
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दैनिक नवभारत टाइम्स के (संपादकीय पृष्ठ पर) स्पीकिंग ट्री कॉलम में 24 नवंबर 2020 को “सार्थक जीवन के लिए आत्म मंथन बेहतर उपाय है” शीर्षक से प्रकाशित। लिंक आनलाइन संस्करणः https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/religious-discourse/moral-education-about-life-5-88347/
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बहुत ही गहरी बात को उठाया है हरीश जी ने।
मनुष्य को अपना वजूद ढूंढने केलिए अंदर झांकना ही होगा।