शांत, संतुलित रहें किंतु कदाचित प्रचंड प्रतिरोध भी नितांत आवश्यक होता है

दुनिया के सुख मेल में हैं, टकराने में नहीं। तो भी दूसरे को जताना आवश्यक है कि आप मूर्ख नहीं हैं।

जीवन का सुख सुलह में है, भिड़ंत में नहीं। जीवन उसी अनुपात में शांतिदाई, सहज, आनंदमय और सार्थक होगा जितना इसमें प्रेम और सौहार्द का समावेश होगा। प्रतिरोध, टकराव, आक्रोश और प्रतिशोध के भाव जीवन को खुशनुमां नहीं रहने देते। कोई भी कार्य भलीभांति तभी संपन्न होगा जब मन शांत रहेगा और चित्त संयत। इसके बावजूद जीवनयात्रा के किन्हीं दुविधापूर्ण अवसरों पर कदाचारी शक्तियों को परास्त करने के लिए क्रोध, शौर्य, साहस बल्कि हिंसा का सहारा लेना अनिवार्य होता है।

एक सर्प को शांत रहने और अन्य प्राणियों को आहत न करने का एक साधु का उपदेश इतना भाया कि उसने डसना बंद कर दिया। सर्प के विनम्र आचरण का पता चलने पर इलाके के शैतान व्यक्ति उसे चिढ़ाते, धमकाते, उस पर गंदगी डालते। व्यथित हो कर सर्प साधु के समक्ष गिड़गिड़ाया, ‘‘आपके बताए मार्ग पर चलने से मेरा जीना दुष्कर हो गया है, लोग मुझे अकारण आहत करते हैं।’’ साधु बोला, ‘‘मूर्ख, मैंने तुम्हें अपने या जनहित में फुंकारने पर प्रतिबंध नहीं लगाया था’’। कदाचार से निबटने के लिए उसी तर्ज में पेश आना धर्म और नीति संगत है, भले ही तुम्हें क्रोधी या हिंसात्मक रुख अपनाना पड़े।

भोले, मृदु स्वभाव के व्यक्ति को मूर्ख समझने की परिपाटी है। आम राय में ऐसा व्यक्ति फुरसतिया होता है जो आपकी जरूरत पर तुरंत हाजिर हो जाएगा। उसके सरोकारों को नजरअंदाज कर उससे भरपूर लाभ लेने का प्रयत्न किया जाता है। शातीर व्यक्तियों की शोषणकारी वृत्तिा के प्रति सचेत रहने की जरूरत पर गुलजार की पंक्ति है, ‘‘मुख्तसर सा गुरूर भी जरूरी है जीने के लिए; ज्यादा झुक कर मिलो तो दुनिया पीठ को पायदान बना लेती है।’’

द्रौपदी के चीरहरण जैसे जघन्य कृत्य के दौरान चुप्पी साध कर भीष्म पितामह ने पाप किया था। इसके विपरीत जटायु का एक ही पुण्य था, सीताहरण के अवसर पर वह सामथ्र्य अनुसार रावण से जी जान से लड़ा। मृत्यु दोनों की होनी थी, किंतु पहले की बाणों की शैया पर हुई, दूसरे की प्रभु राम की गोद में। दिनकर की पंक्ति है, ‘‘जो तटस्थ हैं समय लिखेगा, उनका भी इतिहास।’’ अहम क्षणों में भीष्म पितामह की चुप्पी को इतिहास ने दर्ज कर लिया। शास्त्रों में लिखा है, ‘‘धर्म और मर्यादा की रक्षा के लिए किया गया क्रोध भी पुण्य है और जो सहनशीलता धर्म और मर्यादा की रक्षा न कर सके, वह पाप है’’।

हमारे सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और दैनंदिन जीवन में बहुुत कुछ आपत्तिजनक और अवांछनीय इसलिए घटता है चूंकि विज्ञ वर्ग सहित अधिसंख्य जन मौन रह कर अनुचित, दमनकारी नीतियों और कार्रवाइयों को परोक्ष समर्थन देते हैं। महिलाएं और बालिकाएं बड़े पैमाने पर घरेलू हिंसा की चपेट में आती हैं चूंकि इन कुत्सित, घृणित, अमानवीय कृत्यों के किरदार करीबी व्यक्ति होते हैं जिनके नाम उजागर करने में पीड़िता और उसके परिजन कतराते हैं। उनके कुकृत्यों की खुली भत्र्सना, निंदा और बहिष्कार के बदले पूर्ववत समादर देने से आपत्तिजनक प्रथाओं को प्रश्रय मिलता है।

परिजनों या मित्रों के अवांछित आचरण पर आरंभ से असहमति, अप्रसन्नता या आक्रोश की खुली अभिव्यक्ति दोनों पक्षों के लिए हितकर रहती है। दूसरे की अनुकूल मनोदशा में सदाशयता और प्रेम से उसकी त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाएं तो वह आपके कहे पर विचार करेगा तथा अपने अवगुणों को निराकृत करने का प्रयास करेगा, इस प्रक्रिया में दोनों के संबंध भी प्रगाढ़ होगे। साहसपूर्वक अनुचित को अनुचित कहने से हम न केवल अपने धर्म का निर्वहन करेंगे बल्कि संभावित कुढ़न का ढ़ेर साथ ले कर नहीं चलेंगे। इसी प्रकार सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर अपनी, सुविचारित प्रतिक्रियाएं और आपत्तियां निर्भीकता से दर्ज करेंगे तो दमनकारी प्रथाओं पर अंकुश रहेगा, और अंततः सभी पक्षों के हित सधेंगे। याद रहे, अंधकार आकाश में तारों के आगमन से नहीं, सूर्य के निस्तेज हो जाने से होती है।

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नवभारत टाइम्स के स्पीकिंग ट्री कॉलम में ‘‘गलत का विरोध करना धर्म और नीति का समर्थन है’’ शीर्षक से (आनलाइन संस्करण का शीर्षक – इसलिए भीष्म पितामह की चुप्पी इतिहास में दर्ज हो गई) 5 मई 2021 (बुधवार) को प्रकाशित। अखवार का लिंकः https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/religious-discourse/hence-the-silence-of-bhishma-pitamah-was-recorded-in-history-94908/

 

4 thoughts on “शांत, संतुलित रहें किंतु कदाचित प्रचंड प्रतिरोध भी नितांत आवश्यक होता है

  1. सदाचारी के लिए एक विशेष संदेश छुपा है इस लेख में। बहुत पसंद आया।

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