मंजिल तक पहुंचने में अड़चनें आएं तो क्या कहीं और चल पड़ेंगे? यह तो घुटने टेक देना हुआ। शायद मौजूदा व्यवस्थाएं असांदर्भिक हो गई हैं। स्पष्ट है, लक्ष्य नहीं – साधन, रास्ते और तौरतरीके बदलने होंगे।
सही अर्थों में जीने के लिए एक संत ने अटपटी सी सलाह दी। क्रम से अपने मातापिता, अध्यापकों, परिजनों, मित्रों, और फिर समाज का विनाश कर डालो; अंत में स्वयं को मार डालो। इसके पश्चात अनेक भ्रांतियों, पूर्वाग्रहों, कुधारणाओं से मुक्त तुम्हारा पुनर्जन्म होगा। नए संस्करण लिए आपका मन और चित्त पूर्णतः उर्वर तथा ग्राही मुद्रा में होंगे और नए सिरे से, उत्सवरूपी जीवन आरंभ हो जाएगा।
आगे की ओर निगाहें नहीं रहेंगी तो जहां हैं वहां से सरक नहीं पाएंगे। बचपन से मिले संस्कार, परंपराएं और रूढ़ियां व्यक्ति को एक खास सांचे में ढ़ाल देते हैं जो उसके सहज, सहविकास को अवरुद्ध करता है। उम्रदराजी में हमें दूसरे पंथ के व्यक्तियों का आचरण, व्यवहार और विचार अनुचित, और इसीलिए अमान्य होता है। हमारे दिलोदिमाग में ठूंस दिया जाता है कि फलां ग्रंथ में जिन धारणाओं, मान्यताओं और तौरतरीकों की संस्तुति है उन्हीं की अनुपालना से हमारा जीवन धन्य होगा। यह भी कि निषिद्ध अनुदेशों पर चलने से परमात्मा रुष्ट होंगे और हम पाप के भागी होंगे।
नई मूर्ति को प्रतिष्ठित करने, कमरे में नया सामान रखने या नई फसल बोने से पूर्व पुराने को निष्कासित करना होगा, तभी नए के लिए स्थान बनेगा। उसी भांति, उपयोगिता खो चुकी वस्तुओं, जीवनमूल्यों और आस्थाओं को तिलांजलि दिए बिना आज उपयोगी अभिनव मूल्यों को धारण करना दुष्कर होगा। नए पंथ की दीक्षा की शुुरुआत नौसिखियों के मानसिक और वैचारिक प्रक्षालन यानी ब्रेनवाशिंग से होती है ताकि निर्दिष्ट मान्यताएं उनके अंतर्मन में बैठाई जा सकें।
औपचारिक शिक्षा प्रणाली के बाबत नामी शिक्षाविद इवान इलिच ने कहा कि प्रचलित पाठ्यक्रम, पठन सामग्री, शिक्षण और परीक्षण विधियां, कमोबेश असांदर्भिक और प्रकृतिविरोधी हैं चूंकि ये मौलिक सोच और प्रतिभा को सवंर्धित नहीं करते। अकारण ढ़ोई जाती प्रथाओं की हूबहू अनुपालना में व्यक्ति का विकास अधूरा रहता है। शुक्र है, कुछ आवासीय शैक्षिक संस्थानों में बच्चों के समग्र विकास के लिए उन्हें प्रकृति से रूबरू कराते हैं। मुंबई के निकट वसई के एक प्राइमरी छात्रों के ऑनलाइन सत्र में नन्हों को किसी पात्र या शीशी में सरसों के बीज प्रस्फुटित करने की विधि समझाई गई; स्वयं सरसों के पौधे उगा कर बच्चे खुशी से झूम उठे और उन्हें वनस्पति के प्रजनन की जानकारी हुई।
बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के निमित्त प्राचीन गुरुकुल घर-परिवार और समाज से सुदूर प्राकृतिक परिवेश में होते थे ताकि उनके सुकोमल मनस्पटल अनावश्यक धारणाओं, मान्यताओं से दूषित न हों। ज्ञान या कौशल आत्मसात करने की अभिनव पद्धति में पिछले ‘ज्ञान’ या ‘समझ’ को समूल बिसार देना (अनलर्निंग) आवश्यक बताया गया है क्योंकि पुरानी विधि में अभ्यस्त मस्तिष्क की कार्यप्रणाली नए कौशल या ज्ञान सीखने में कारगर नहीं रहती। कार्य प्रणालियों के मशीनीकरण व अन्य बदलावों से तालमेल बिठाने में स्वयं को असमर्थ मानते अनेक कर्मचारी नियत समय से पहले ही घर बैठ गए हैं।
जीवन आखिर क्या है, इस जिज्ञासा का समाधान प्रवचनों और ग्रंथों में नहीं मिलता चूंकि हम दैनंदिन उन गतिविधियों में लिप्त रहते हैं जिनका अभिवृद्धि और आत्मोन्नति से तालमेल नहीं। व्यक्ति की सोच में उसी हद तक निखार, परिष्कार और सवंर्धन होगा जिस अनुपात में उसमें पुराने ढ़र्रे से विलग होने की सामर्थ्य होगी। जागृत व्यक्ति ब्रह्मांड की सुनियोजित व्यवस्था के अनुरूप अपनी भीतरी संरचना गढ़़़़ता है। सांचे में गढ़ा व्यक्ति विकृतियों, व्याधियों का मुहरा जल्द बनता है। वह आत्मा को निरंतर शांत और पुलकित रखने वाले उस आलोक से वंचित रहेगा जो जागृत व्यक्ति को सहज सुलभ है। जागृत व्यक्ति भ्रांतिजनक, सीमित दायरों से उठ जाता है। इसी परिप्रेक्ष्य में खलील जिब्रान ने कहा, ‘‘पर्वत के शिखर पर पहुंचने के बाद ही असल चढ़ाई शुरू होती है।”
अर्थहीन लौकिक मान्यताएं ढ़़ोए रहेंगे तो मस्तिष्क की जीवंतता क्षीण हो जाएगी, अज्ञान का आवरण नहीं छटेगा और प्रगति ठप्प हो जाएगी। भ्रम में जीने का अभ्यस्त ऐसा व्यक्ति सुषुप्त अवस्था को परमसत्य समझेगा। दूसरों को वही आलोकित कर सकता है जो अवांछित तौरतरीकों और मान्यताओं से मुक्त जीना जानता है।
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(1) यह आलेख डा0 गिरधारी नौटियाल से हुई बातचीत में उभरे विचारबिंदुओ के आधार पर तैयार किया गया, उनका आभार।
(2) इस आलेख का संक्षिप्त रूप 2 अगस्त 2021 के नवभारत टाइम्स में ‘अकारण ढोई जा रही प्रथाओं के हूबहू अनुपालन में व्यक्ति का विकास अधूरा रहता है’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। अखवार के ऑनलाइन संस्करण का लिंकः https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/religious-discourse/why-is-change-important-for-a-culture-and-society-98635/
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