कहावत है, एक प्रजाति के पक्षी झुंड में एक साथ विचरण करते हैं। मनुष्यों में भी यही नियम लागू होता है। अंतर यह है कि मनुष्य अपने स्वभाव और गंतव्य के अनुसार संगी-साथियों का चयन स्वयं करता है। अतः किनसे घनिष्ठता बढ़ाई जाए, यह गंभीर मुद्दा है।
उस नन्हीं चील की दुर्दशा पर विचार करें जिसे जंगल में घायल अवस्था में देख कर एक किसान अपने घर ले आया। आरंभिक उपचार के बाद उस चील को घरेलू मुर्गियों के साथ पोसा जाने लगा। वह पंखों को दुबकाए मुर्गियों की भांति फुदक-फुदक कर चलता, दाने चुगता, कुकड़ूं-कू करता। इस ज्ञान से अनभिज्ञ कि वह किन तौरतरीकों से जीने के निमित्त दुनिया में आया है, मुर्गों की जीवनशैली में जीना उस चील ने अपनी नियति मान लिया था।
दुष्कर है संगत के तौर तरीकों से बचना
मनुष्यों की गत भी वैसी ही है। परिस्थितिवश व्यसनियों, पॉकेटमारों या आतंकियों की गिरफ्त में आया कोई सभ्य व्यक्ति उनके बीच रहने को विवश हो जाए तो आरंभ में उसे संगी-साथियों से भारी घृणा और कोफ्त होगी। धीरे धीरे साथियों के व्यवहार के प्रति उसका दुराव घटेगा, थोड़ी जिज्ञासा जगेगी, उन्हें देखने-समझने की चेष्टा करेगा। फिर एक दिन उसे अपराधियों का आचरण उचित और मान्य लग सकता है। प्रत्येक मनुष्य की सोच, उसका मूल स्वभाव और व्यवहार कितना भी परिपक्व या संयत हो, संगी-साथियों के तौरतरीकों में धीमे धीमे रचपच जाएगा, दूसरे तौरतरीके उसे रास नहीं आएंगे। यह नियम प्रकृति और समाज दोनों में लागू होता है। किसी फल या सब्जी की कद-काठी, स्वाद, रंगरूप और गुणवत्ता क्षेत्रविशेष की मिट्टी के गुणों के अनुसार एकसार मिलेगी। इसीलिए सुधीजन उस दायरे से जुड़े रहने की संस्तुति करते हैं जो श्रेष्ठ और उच्च मानकों के अनुकूल हो।
हम हैं पंछी एक डाल के
शादी-ब्याह, समारोह या अन्य मिलन अवसरों में कुछ व्यक्ति अनेक अपरिचितों या कम परिचितों से मुलाकात का लाभ उठाने के बदले उन्हीं अंतरग व्यक्तियों से लिपटते-चिपटते मिलेंगे जिनसे वे प्रायः मिलते रहते हैं। किस कोटि के व्यक्तियों या समूह से हम अंतरंगता और मेलभाव बनाते और निरंतर सुदृढ़़ करते रहते हैं यह अत्यंत अहम विषय है जो निर्धारित करता है कि हम जीवन में कितना आगे और कितना ऊपर पहुंचेंगे। इसीलिए कहा जाता है कि व्यक्ति अलहदा नहीं बल्कि समूचे समूह की एक इकाई के तौर पर उठता है। जिन व्यक्तियों के बीच हम अधिक समय बिताएंगे उनके भावों-विचार में अधिक लिप्त रहेंगे, उन्हीं के अनुरूप सोचेंगे और कार्य करेंगे, और धीमे-धीमे उसी सांचे में ढ़ल जाएंगे। चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने कहा, ‘‘आपके साथियों से मालूम चल जाता है कि आप जीवन में कहां तक पहुंचेगे, अतः आपके गंतव्य की ओर जो साथी अग्रसर हों उन्हीं का दामन थाम लें”।
जो भूमिका शरीर को स्वस्थ, उत्साही और जीवंत रखने में भोजन, पोषण और व्यायाम की है वही भूमिका मनुष्य के अंतःकरण के समुचित रखरखाव में सत्साहित्य, स्वाध्याय, नेक पुरुषों के सानिध्य और सकारात्मक परिवेश की है। माना कि जीवन में अधिसंख्य व्यक्ति अपने जीवन से असंतुष्ट, अपने-अपने दुखड़े आलापते, परनिंदा में उलझे, दूसरों में खूबियां नहीं, दोष तलाशते हैं, अवसर मिलते ही आपको नीचा दिखाने की चेष्टा करते हैं, स्वार्थ सिद्धि के बाद पहचानते भी नहीं। किंतु दूसरे छोर पर एक वर्ग उनका है जो उत्साही, उदार, सहज, संयत, आशावादी, विचार और बुद्धि से समृद्ध हैं और स्वयं को एक विराट अस्मिता का अटूट अंग मानते हैं। जीवन में क्या चाहिए, स्वेच्छा और विवेक से यह तय करने के बाद कोई उन्हीं व्यक्तियों या समूहों से संबद्ध होता है जिनसे उसकी पटरी बैठे। संगत के अचूक प्रभाव के बाबत जिम रोह्न कहते हैं, ‘‘जिन चार व्यक्तियों के बीच आप सर्वाधिक समय बिताते हैं आप उनके औसत स्तर के होंगे, अतः साथी का चयन सूझबूझ और विवेक से होना चाहिए”। बेहतरीन संगत में सामान्य व्यक्ति भी परिष्कृत व उन्नत हो जाता है। यही साहचर्य शक्ति का प्रतिफल है। प्रगति के लिए उनकी संगत में रहने की राय दी गई है जो आपसे बेहतर हों।
सत्संगों की ढ़कोसलाबाजी
संगत के चयन में ‘सत्संगों’ की भूमिका कम ही सार्थक रहती है, कारण वैचारिक और आध्यात्मिक विकास में इनका लाभ जिज्ञासु और कथावाचक की निष्ठा पर निर्भर है। वह सत्संग फलदाई नहीं होगा जहां केवल समय बिताने, घरेलू झंझटों या आवश्यक दायित्वों से बचने के लिए जुटा जाए। दूसरा, अनेक सत्संगो के संचालक भोले भक्तों के रोल मॉडल बन कर अपने व्यापारिक हित साधने में दक्ष होते हैं, यही उनका एजेंडा रहता है। इसीलिए गलत संगत के बजाए एकल चलना हितकारी होता है। बहुत सीमित स्तर पर ही आप दूसरों को सुमार्ग की ओर प्रशस्त कर सकते हैं चूंकि पहले उसे स्वयं के कपाट खोलने होंगे जो बाहर से नहीं खोले जा सकते। तथापि श्रेष्ठजनों से आत्मीय संबंध बनाना सदा आपके हाथ में होता है।
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इस आलेख का संक्षिप्त प्रारूप नवभारत टाइम्स के स्पीकिंग ट्री कॉलम में 7 दिसंबर 2021, मंगलवार को ‘‘खेत की मिट्टी जैसी होगी वैसा ही स्वाद होगा अनाज का” शीर्षक से प्रकाशित हुआ। अखवार के ऑनलाइन संस्करण का लिंकः
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सत्संग का उल्लेख सभी ग्रंथो में किया गया है और कहा गया है कि कुसंगति में मनुष्य पर देर सबेर जरूर असर पड़ता है. इस विषय पर लेख लिख कर हरीश जी ने बहुत अच्छा काम किया है। कोटि कोटि धन्यवाद।