अभिशाप नहीं बननी चाहिए पूर्ण सुरक्षा की भावना

हमारी सक्रियता और सजगता में गिरावट इसलिए आई है चूंकि हम सुविधाभोगी और आरामपरस्त हो गए हैं।

पृथ्वी पर जीवन अबाध रूप से चलता रहे, इस आशय से मनुष्य सहित प्रत्येक जीव-जंतु के लिए प्रकृति की दो व्यवस्थाएं हैं: सन्तानोत्पत्ति का सिलसिला और बाहरी आक्रामक शक्तियों से बचाव के साधन। प्रत्येक जीव की भौतिक संरचना, उसका रंगरूप, आचरण, दूसरों से पेश आने के तौरतरीके, अंगविशेष की खूबी, आदि इस प्रकार निर्मित हैं कि वह चुनौतियों, खतरों और प्रतिकूल परिस्थितियों से निबट सके। इससे पूर्व कि धूल का कण या चिंदा सा जीव आंख में प्रविष्ट हो कर क्षति पहुंचाए, बचाव में पलकें स्वतः बंद हो जाती हैं; दुर्भावना से कोई प्रहार करे या भूकंप आ जाए तो ढ़ीलाढ़ाला व्यक्ति भी अदभुद्, अकल्पनीय कूदफांद कर अपने बचाव की चेष्टा करता है।

गिरगिट की रंग बदलने की प्रवृत्ति उसे शिकार बनाने वाले पक्षियों को भ्रमित करने के निमित्त है। पानी में वास करता ऑक्टोपस मछलियों तथा अन्य आक्रामक जलजीवियों के नजदीक फटकने पर लाल, पीले, भूरे, हरे रंग में तब्दील हो जाने या जरा सी जगह में सिमट जाने से उन्हें चकमा दे कर सुरक्षित रहता है। हड्डी तक सहजता से चबा डालने वाले लक्कड़बग्घे को देख कर बेफिक्री से अपने शिकार को भकोरता शेर भयभीत हो कर रफू चक्कर हो जाता है चूंकि लक्कड़बग्घे के पैने दांतों व जबड़ों की जबरदस्त ताकत का उसे ज्ञान होता है। शेर की टांग क्षत-विक्षत हो जाए तो शिकार करना और जीवित रहना उसके लिए असंभव होगा।

‘सभ्य’ मनुष्य से इतर, प्रकृति की गोद में विचरित करते सभी जीवों की कोई इंद्रिय इतनी सशक्त होती है कि पर्याप्त दूरी से वह शत्रु की मौजूदगी भांप जाता है और सुरक्षा या शिकार के यथोचित उपाय कर रेगा है। बिल्ली और कुत्ते मनुष्य से कई गुना बेहतर देख-सुन सकते हैं। दृष्टि से अक्षम सांप की अक्सर लपलपाती जिह्वा सूंघने का कार्य करती है। अपनी सशक्त घ्राण शक्ति से उसे दूर दूर तक शत्रु जीवों या अपने शिकार की उपस्थिति का आभास हो जाता है तथा अविलंब भाग जाने या शिकार करने के लिए तत्पर होता है। भैंस के जानलेवा खुरों से बाघ डरता है। जमीन पर विश्राम करता कुत्ता भूतरंगों के माध्यम से सब कुछ भांप जाता है और वांछित दिशा की ओर अग्रसर हो जाता है।

प्रकृति से दूरी बना लेने या अन्य कारणों से उद्भव (इवाल्यूशन) की चरणवार यात्रा में मनुष्य ही एकमात्र जीव है जिसके अंग-प्रत्यंग या इंद्रियां अन्य प्राणियों की भांति विकसित नहीं हुए। इसकी भरपाई के लिए प्रकृति ने उसे अथाह सामथ्र्यपूर्ण मस्तिष्क दिया। अपनी अद्भुद बौद्धिक शक्ति के बूते उसने अन्य जीवों को वश में कर डाला, नदियों के मार्ग तक बदल डाले।

वन्यजीवों और प्रकृति पर कमोबेश विजय पाने के साथ मनुष्य ने अपने लिए एक-दर-एक आरामपरस्ती के साधन जुटाने शुरू किए। भरण-पोषण आदि के लिए पेंशन या सुनिश्चित नियमित आय, मोटा बैंक बैलेंस, आवाजाही के लिए शानदार वाहन, अनेक वातानुकूलित कमरे वाला सुसज्जित मकान और चिकित्सा खर्चों सहित कीमती आइटमों की बीमा कवरेज, घर-आफिस में अमन-चैन के लिए सुरक्षाकर्मियों की तैनाती आदि के चलते उसमें सुरक्षा भाव पैठ गया। अपने अंग-प्रत्यंगों को गतिशील व पुख्ता रखने की उसे जरूरत नहीं रही, वह शरीर से निष्क्रिय होता गया। सचेष्ट न रहने की प्रवृत्ति का प्रभाव मन पर पड़ा, विचार की उर्वरकता क्षीण हुई। अल्पबुद्धि से उसने मान लिया कि आज की भांति उसकी इंद्रियां व अंग-प्रत्यंग क्रियाशील रहेंगे तथा संतति और परिजन आवश्यकता पड़ने पर यथावत साथ देते रहेंगे।

यदि मनुष्य को बोध हो जाए कि वह पृथ्वी पर अकेला आया है, अपने सरोकारों, कष्टों से निबटने में सर्वाधिक सक्षम वह स्वयं है और एक अवस्था के पश्चात निरंतर ढ़लते-ढ़लते उसे एक दिन शरीर छोड़ देना है, तो वह अनवरत अपनी क्षमताओं को क्रियाशील रखने के प्रयास करेगा। दूसरों पर उसकी पराश्रयता घटेगी, प्रयोगधर्मिता में संवृद्धि होगी और वह सार्थक, बेहतर जीवन गुजारने में सक्षम होगा।

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नवभारत टाइम्स 31 मार्च 2021 के स्पीकिंग ट्री कॉलम में ‘‘क्षमता में कोई कमी नहीं, निर्भरता ने हमें कमजोर बना दिया/ दूसरों पर निर्भर होने के बजाए जरूरी है अपने जीवन का अर्थ समझना, कभी नहीं होगी तकलीफ’’ नामक शीर्षक से प्रकाशित।  अखवार का ऑनलाइन लिंकः https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/religious-discourse/the-best-definition-of-life-93615/

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2 thoughts on “अभिशाप नहीं बननी चाहिए पूर्ण सुरक्षा की भावना

  1. Beautiful article regarding sleepiness (reflexive state of remaining ‘un-awakened) of many human beings seeking refuge in ‘security’.
    ‘Security’ masks alertness/awareness of a person and one becomes accustomed never to live in the [present] moment. Numerous thoughts of past and future continuously bombard his mind and the person loses contact with the present moment. This impinges on his growth.

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