बीमार पड़ते ही क्या आप तुरंत अस्पताल का या उन डाक्टरों का रुख तो नहीं कर लेते जिनकी नजर आपको दुरस्त करने में नहीं, आपसे कितना झटका जा सकता है इस पर रहती है। याद रहे, ज्यादातर बीमारियां का उपचार आप स्वयं, साधारण बुद्धि से कर सकते हैं।
देश का स्वास्थ्य परिदृश्य जर्जर है। घर, गली-कूचों या कार्यस्थल के गिर्द प्रदूषित हवा-पानी, योग्य डाक्टरों की भारी किल्लत, दशकों से बगैर डाक्टरों के चलते सरकारी अस्पताल, इलाज की आसमान छूती कीमतें, ब्रांड अस्पतालों और डाक्टरों का खसोटी रुख, और अब, साल भर से घिसटती कोरोनो की महामारी। सचमुच बहुत महंगा सौदा है बीमार पड़ना। अर्ज है, इन सब विडंबनाओं के बावजूद स्वास्थ्य, शरीर और अंगों-प्रत्यंगों की बुनियादी जानकारी, और कुदरती तौरतरीके अपना कर कमोबेश रोगमुक्त और जीवंत रहा जा सकता है।
जान है तो जहां है। मन, शरीर और चित्त से दुरस्त, जीवंत नहीं रहेंगे तो जिंदगी के लुत्फ कैसे उठाएंगे। यूनानी आदिचिकित्सक हेरोफिलस ने कहा था, ‘‘सेहत ही न रहे तो समझदारी धरी रह जाती है, कला अभिव्यक्त नहीं हो सकती, ताकत जवाब दे देती है, संपत्ति निरर्थक हो जाती है, विवेक पंगु हो जाता है। स्वस्थ न रहने पर अपना चैन जाता ही है, दूसरों के काम भी नहीं आ सकते। तन-मन से दुरस्त रहना आज की प्रमुख चुनौती है।
पहले स्वयं से पूछें, क्या सर्दी-जुकाम या डायरिया होने पर आप आनन-फानन में डाक्टर या ब्रांड अस्पताल का रुख कर तो नहीं करते? शासकीय अस्पताल लगभग बदहाल हैं, एक अनार सौ बीमार, अतः वे चाह कर भी मरीज को ठीक से देख-परख नहीं पाते। निजी अस्पताल, खासकर पांचसितारा अस्पतालों का आलम यों है कि लुटने के लिए तैयार रहें। रोगी के वहां पहुंचने पर वह मर्ज का बाद में, पहले आपकी गांठ का मुआयना करता है। हैल्थ इंश्योरेंस है तो उन्हें सब कुछ रास आता है। उदाहरणार्थ डायरिया होने पर उनकी प्रस्तुति देखिए। सेल्समैन की तर्ज पर रोग की भयावहता और इसके जानलेवा खतरों का बखान करते हुए भरती होने की पट्टी पढ़ाएगा। और अंत में, ओआरएस के दो-तीन पैकेट या ईसबगोल की भूसी से ठीक हो सकने वाले डायरिया के लिए तीन-चार दिन भरती के पचास-साठ हजार रुपए ऐंठ लेगा। यही सीजेरियन में होता है। कोशिश रहती है, पहले गर्भ में कांप्लीकेशन की संभावना का डर बैठाया जाए फिर समझाया जाए कि बचाव के लिए सीजे़रियन ही एकमात्र सुरक्षित और कारगर तरीका है। बाद में मोटी रकम झटक ली जाती है।
चिकित्सकों द्वारा रोगियों और जरूरतमंदों को राहत पहुंचाना अपना धर्म समझना गुजरे जमाने की बात हो गई है, बल्कि इसे रोगी पर उपकार माना जाता है। एम्स दिल्ली की दीवारों पर आज भी महात्मा गांधी के शब्द लिखे हैं, रोगी को देख-जांच कर डाक्टर उस पर अहसान नहीं लादता बल्कि रोगी डाक्टर को सेवा का अवसर दे कर कृतार्थ करता है। डाक्टरों की अतिव्यस्तता की शिकायत पर जर्मनी के डाक्टर-लेखक मार्टिन फिशर की टिप्पणी है, ‘‘चिकित्सक बनने की ख्वाहिश रखने वाले दिन में 18 घंटे कार्य करने को तत्पर नहीं हैं तो वे इस पेशे को छोड़ दें”। रोगी या उसके परिजन को बड़ा डाक्टर भी लंबा सलाम ठोकेगा बशर्ते वह निजी अस्पताल का हो चूंकि वह सेल्समैन पहले, उपचारक बाद में होता है। यानी अपनी खैर आपने स्वयं रखनी है।
चराचर जगत की पालक प्रकृति में सभी जीवों की हिफाजत की शानदार व्यवस्था है। कुत्ते, बिल्ली जैसे निम्न श्रेणी के मांसाहारी जीव भी हाजमा बिगड़ने पर झाड़ियों से ढ़ूंढ़-ढ़ूंढ़ कर उपचार की बूटियां खाने लगते हैं। रामदेव के करीबी सहयोगी राजीव दीक्षित अपने आख्यानों में बहुधा कहते थे, अपने आवास के इर्द गिर्द प्राकृतिक तौर पर उगे पौधों व जड़ी-बूटियों से हम कमोबेश सभी व्याधियों का उपचार कर सकते हैं। आदि स्विस चिकित्सक पार्सेलस की राय में, ‘‘दुरस्त रहने के लिए हमें जो भी दरकार है उसकी व्यवस्थाएं प्रकृति ने कर रखी है, विज्ञान की चुनौती है कि उन्हें खोज निकालें”।
आधुनिक चिकित्सा उन्नत ज्ञान के विपुल भंडार पर कितना ही इतराए, यह निर्विवाद है कि अभी तक वैज्ञानिकों को शरीर, शारीरिक अंगों और प्रक्रियाओं की जानकारी सतही है। शरीर के प्रत्येक अंग. प्रत्यंग और प्रत्येक बीमारी पर दर्जनों नियमित शोध पत्रिकाएं के प्रकाशन के पीछे का यह सत्य है कि मौजूदा ज्ञान नाकाफी है और पूर्णतः भरोसेमंद नहीं है, अभिनव परीक्षणों से हमेशा कुछ अतिरिक्त जानकारियां मिलती रहती है। कोई नई दवा बाजार में कैसे उतारी जाती है यह जानते होंगे। पहले बरसों या दशकों तक विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में चूहे, बिल्ली, बंदर जैसे निम्नतर जीवों नई दवा को आजमाया जाता है, इन्हें सफल पाए जाने पर मनुष्यों पर सुदीर्घ अवधि तक क्लीनिकल परीक्षण होते हैं। दवा के कारगर पाए जाने पर सीडीसी, एफडीए जैसी वैश्विक एजेंसियों द्वारा ठप्पा लगाए जाने के बाद इसे सार्वजनिक मान्यता दी जाती है। इस सबके बावजूद कुछ ही हफ्तों, महीनों में पता चलता है कि फलां दवा के सेवन से कालांतर में कैंसर या अन्य भयंकर बीमारियां उत्पन्न हो सकती हैं, ये स्वयं भी घातक हो सकती हैं। तब इसे प्रतिबंधित कर दिया जाता है। टेट्रासाइक्लिन जैसी दशकों तक लोकप्रिय एंटीबायोटिक अब सर्वत्र प्रतिबंधित है।
रोगोपचार ही नहीं, स्वस्थ रहने के लिए जिन देसी सामग्रियों और तौरतरीकों को अपने देश में सदा से व्यवहार में लाया जा रहा है उन्हें पश्चिमी प्रबुद्ध समाज एक-दर-एक मान्यता देने लगा है। भोजन में हल्दी, धनिया, तुलसी, अजवाइन, काली मिर्च, लौंग, नीम आदि हमारी रसोई का अनिवार्य अंग रही हैं। धन्य हो भारत सरकार का वैज्ञानिक संगठन सीएसआईआर, जिसने एक अमरीकी कंपनी द्वारा हल्दी को पेटेंट कराने की कुचेष्टा को इस दलील से विफल किया कि इसका प्रयोग निर्दिष्ट प्रयोजन से भारत में पहले से किया जाता रहा है।
हमारी अप्राकृतिक होती जीवनशैली भी स्वस्थ रहने में बाधक है। रोगी को दुरस्त करने में सक्षम आयुर्वेद व योग पद्धतियों में रोगी की समग्र दशा पर विचार होता है, आधुनिक चिकित्सा की भांति केवल बाह्य पक्षों पर नहीं। व्यक्ति की समेकित बेहतरी के लिए ध्यान, योग और प्राकृतिक चिकित्सा की भूमिका आधुनिक चिकित्सा पद्धति अब स्वीकार रही है। एलोपैथी के घातक प्रभावों को समझ कर जैविक और प्राकृतिक जीवनशैली अपनाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। भारतीय उद्गम का योग सर्वत्र अपना परचम फैला चुका है। जरूरी है कि हम शीघ्र समझ लें जो दुनिया सीख कर अपना रही है। आपकी दुरस्ती की किसी को नहीं पड़ी है, अपनी हिफाजत आपको स्वयं करनी होगी।
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दैनिक आज के संपादकीय पेज पर ‘‘जड़ी-बूटियों से मिलेगा’’ शीर्षक से 10 अप्रैल 2021 को प्रकाशित। लिंकः https://ajhindidaily.com/%e0%a4%9c%e0%a4%a1%e0%a4%bc%e0%a5%80-%e0%a4%ac%e0%a5%82%e0%a4%9f%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%ae%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a5%87%e0%a4%97%e0%a4%be-%e0%a4%89%e0%a4%a4/
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इस लेख में हरीश जी ने आज लोगों द्वारा अपनाये जा रहे बुद्धिहीन जीवनशैली को बख़ूबी पेश किया है और आज के समाज की मानसिकता को बयां किया है। बहुत सुन्दर और उपयोगी जानकारी दी है।
Very informative.
This is true picture of present Health care system of our country. Hospital without doctor and school without teacher. These are two national issues that have not been addressed in earnest by our Elected Governments.
Keep it up.