आसक्ति ईश्वर से हो जाए तो जीवन सफल हो जाता है

बस यात्रा बमुश्किल चार घंटे की थी। रास्ते में चायपान के बाद बस दोबारा चलने लगी तो दो यात्री एक ही सीट की दावेदारी में भिड़ गए। एक की दलील थी, सीट शुरू से उसी की थी, इसलिए गंतव्य तक इस पर उसी का अधिकार है। दूसरे की रट थी कि कम दूरी की बसों पर आरक्षण लागू नहीं होता। जोरदार बहस, गहमागहमी और गालीगलौज के बाद दोनों हाथापाई पर उतर आए। सहयात्रियों के बीच-बचाव से स्थिति सामान्य होते-होते गंतव्य आ गया था।

दुनिया में, जहां वास्तव में आपका अपना कुछ नहीं, शरीर तक नहीं, कुछ घंटों की बस की सीट को दिल से लगा लेना और उस पर अधिकार समझते हुए तृप्त हो जाना तुच्छ सोच का परिचायक है। पद-प्रतिष्ठा, धन-संपत्ति, सामाजिक प्रभाव आदि को सर्वोपरि मानेंगे तो इन्हीं अस्मिताओं से आसक्ति हो जाएगी। फिर उन उच्चतर, शाश्वत मूल्यों से सुदूर हो जाएंगे जिनमें चित्त लगाए रखना जीवन को सार्थक और सुखमय बनाता है। जो शाश्वत, सर्वव्यापी, अनवरत है, जिसका सूक्ष्मांश प्रत्येक जीव में है वे केवल प्रभु हैं। पार्थिव शरीर नष्ट होने के उपरांत प्रत्येक जीव का उसी में समावेश होता है। चिरस्थाई और नश्वर अस्मिताओं में भेद न कर सकने वाले को नहीं कौंधता कि हमारा जीवनभी हमारा नहीं, यह मृत्यु की अमानत है; उसी भांति जैसे शरीर शमशान की अमानत है, बेटा बहू की, और यह धरती, भावी पीढ़ियों की।

अमानत को अपना समझना, उस पर अपना एकछत्र अधिकार जताना और उसमें आसक्त रहना मूर्खता है। अमानत में चित्त लगाए रखेंगे तो उससे जुदा होने पर या उसके न रहने से उत्पन्न विषाद को झेलना दुष्कर होगा। हम केवल अमानत के संरक्षक हो सकते हैं। संतान से आसक्ति के बाबत अनेक संत कह गए, तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं हैं, वे केवल तुम्हारे द्वारा हैं; वे समाज, राष्ट्र और मानवजाति की परिसंपत्ति हैं। उनकी उपलब्धियों पर इतराते हुए आसक्त होना अपरिपक्व सोच का परिचायक है। उनसे लगाव जितना अधिक होगा, अपेक्षाएं उसी अनुपात में होंगी। संतान द्वारा अपेक्षाओं पर पानी फेर देना अनेक उम्रदारों के संताप का कारण है। लगाव की अग्रिम अवस्था आसक्ति सोच को संकुचित कर व्यक्ति के बौद्धिक और भावनात्मक विकास को अवरुद्ध कर देती है। आसक्ति के योग्य कोई अस्मिता है तो केवल ईश्वर।

अपनी संतान, परिजनों, बंधु-बांधवों, सहकर्मियों, बल्कि अपने परिवेश के पशु-पक्षी और पेड़-पौधों से अपनत्व होना न तो अस्वाभाविक है न ही अनुचित। किंतु बाह्य वस्तुओं से आसक्ति का भाव ईश्वरीय विधान का उल्लंघन है, इसीलिए दंडनीय भी। पुत्र या पुत्री मेरी है, फलां मेरा मित्र है, फलां वस्तु मेरी है, यहां तक तो एक बात हुई किंतु यह मात्र मेरे निमित्त है, यह धारणा अनेक दुखों का कारण बनती है। फलां जीव या वस्तु आपकी है तो बगैर किसी प्रतिफल की अपेक्षा से उसकी संवृद्धि और सुरक्षा करना आपका कर्तव्य है।

उपलब्ध वस्तुओं, साधनों, संपत्ति, परिसंपत्तियों से विरक्ति भी उचित नहीं। सोच ऐसी हो कि विरक्त भाव से सांसारिक सुखों का आस्वादन लिया जाए। दो दिन की जिंदगी में क्या मेरा, क्या पराया। सांसारिक सुख-सुविधाओं से आसक्ति मनुष्य को क्षणिक तुष्टि दे कर उसकी पिपासा और बढ़ाती है। उसका अंतःकरण दीर्घावधि तक तृप्त रह सकता है तो परम सत्य के प्रतिरूप प्रभु में चित्त लगा कर, उसकी साधना में रह कर, उसमें आसक्ति से। तमाम भौतिक अस्मिताएं अपने क्षणभंगुर स्वरूप के कारण हमें फुसला भर सकती हैं। विचार करना होगा, सांसारिक घटनाओं और व्यक्तियों से जुड़ाव किस स्तर का है, और यह जुड़ाव उस प्रयोजन की सिद्धि में कितना सहायक है जिस निमित्त हम इहलोक में आए हैं। अस्थाई, आभासी सुखों में आसक्त रहने और ईश्वर की साधना से विचलित करने की पर्याप्त सामग्री हमारे समाज-परिवेश में मौजूद है। विवेकपूर्ण विचार से यह परखना होगा, अंततः हमारे हित में क्या है।
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नवभारत टाइम्स के स्पीकिंग ट्री कालम में ‘‘सांसारिक सुखों से आसक्ति संताप का कारण बनती है’’ शीर्षक से 13 फरवरी 2020 को प्रकाशित।

लिंक- आनलाइन संस्करणः https://navbharattimes.indiatimes.com/astro/spirituality/religious-discourse/know-important-and-spritual-thoughts-of-life-73909/
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