भूचाल आने पर गांव से भागने वालों में सबसे आगे पोटली सिर पर लादे, ‘‘बचाओ, बचाओ’’ चिल्लाती एक बुढ़िया थी। पता चला, वही बुढ़िया रोज मंदिर में माथा टेकते मिन्नत करती थी, ‘‘हे प्रभु, मुझे इस दुनिया से उठा लो।’’ जिंदगी को दैनंदिन कोसने वाले भी प्राण रक्षा के लिए कोई कसर नहीं छोड़ते, गुल खिलाने वाली अस्मिता है जिजीविषा; जान पर खतरा मंडराते देख मरियल सा शख्स भी गामा पहलवान बन जाता है। स्तोत्ररत्नावली में आयु ढ़लने पर काया के जीर्णशीर्ण, दंतविहीन हो जाने, हाथ में छड़ी लिए व्यक्तियों का उल्लेख है जिनका मायाजाल से मोह नहीं छूटता। प्राण बचाने की खातिर लोगों ठिकाने और धर्म तक बदल डाले। आत्महत्या करने वाला जीवन से नहीं बल्कि उस पीड़ा, शर्म, तड़पन या तिरस्कार से निजात चाहता है जो उसे न मरने देती है न जीने देती है।
यह नहीं कि नैराश्य, बेबसी और कुछ न सूझने की स्थिति संयत, विवकेशील व्यक्ति के जीवन में नहीं आती। नौबत यहां तक आ सकती है कि प्राण त्यागना ही उसे एकमात्र विकल्प दिखता है। लोकप्रिय जैनमुनि तरुण सागर कहते थे, विरले ही ऐसे होंगे जिन्होंने कभी आत्महत्या का प्रयास नहीं किया या ऐसा गंभीरता से ऐसा नहीं सोचा। ऐसे दुष्कर लमहे हर किसी की जीवनयात्रा में क्यों आते हैं?
मन प्रकृति की ऐसी अबूझ अस्मिता है जिसकी कार्यप्रणाली का सही आकलन धर्मग्रंथ, विज्ञान, या तर्क से संभव नहीं; बाह्य या आंतरिक परिस्थितिवश कब, कौन विचार उसके दिलोदिमाग में हावी हो जाए, यह सदा पहेली रही है। एक कवि ने लिखा, ‘‘मैं इक जंगल हूं और मेरा जगजाना स्वरूप एक साफसुथरी बगिया के समान है’’। मनुष्य में निहित जीवंत, दिव्य तत्व के चलते उसे समूचे तौर पर समझने का प्रयास भर किया जा सकता है। एकबारगी के बुलंद कलाकार, लेखक, पत्रकार, प्रौद्योगिकीविद, विचारक या कारोबारी के पटरी से विचलित हो जाने या ऊटपटांग निर्णय लेने के किस्सों से हम सुपरिचित हैं।
समझना होगा, जब वे दिन नहीं रहे तो ये दिन भी नहीं रहेंगे। वर्तमान क्षण कितना भी पीड़ादाई हो, सरकना इसकी नियति है। धैर्य और सुविचार बगैर जीवन सुचारु रूप से नहीं चलेगा। अंततः सुखी वह रहेगा जो धैर्य बरतेगा है। भारी ग्लानि, असह्य प्रतीत होता पश्चाताप या लाइलाज बीमारी से थक-हार कर इस दिव्य जीवन के शेष दिनों को हेय मान लेना दूरदर्शिता नहीं है। न भूलें, कइयों के रोल माॅडल हैं आप, जिनके दिल में सदा आप सरीखे बनने की कसक रही है। और फिर सुनहरे भविष्य का रास्ता कंटीली, उबाऊ गलियों से ही गुजरता है। संकट और अड़चनें प्रभु उसके मार्ग में छितराते हैं जिन्हें वे बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए उपयुक्त मानते हैं, ताकि इनसे जूझ कर वह अधिकाधिक परिष्कृत, परिमार्जित हो सके। एक वृहत प्राकृतिक व्यवस्था का अभिन्न अंग समझते हुए वह स्वयं को एकाकी न समझे।
अतीत की प्रत्येक विफलता में सफलता के बीज होते हैं। विफलता सफलता का विलोम नहीं, सफलता की पूर्वावस्था है। मशाल थामे आगे चलते, दूसरों का मार्ग रौशन करने व्यक्ति के अतीत का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे उसका अतीत निर्बाध सीधा-सपाट नहीं रहा। विकट समस्या के समक्ष घुटने टेकना सहज है, अधिसंख्य व्यक्ति यही करते हैं। उन्नति के मार्ग पर प्रशस्त रहने के लिए अतीत की चूकों को समझ कर उन्हें न दोहराने का संकल्प लेना होगा, वैसे भी आगामी पारी में आप नौसिखिए नहीं रहे।
यह दिव्य जीवन हमें गुमसुम, मुंह लटकाए रहने के लिए नहीं मिला है, मन को अभ्यस्त करें कि अप्रिय प्रसंगों के बदले जीवन की छटाओं का आस्वादन लेना है। रामधारी सिंह दिनकर ने ‘रेती के फूल’ में लिखा, ‘‘दुनिया में जितने भी मजे बिखरे हैं उनमें तुम्हारा भी हिस्सा है। वह चीज भी तुम्हारी हो सकती है जिसे तुम अपनी पहुंच के परे मान कर लौट जा रहे हो। कामना का दामन छोटा मत करो, रस की निर्झरी तुम्हारे बह भी बह सकती है।’’