समाजशास्त्रियों, नेताओं, सरकारों, प्रबुद्धजनों ने कहा, लिखा और हमने पढ़ा-सुना कि बच्चे देश और समाज का भविष्य हैं। देश के विकास का स्वरूप, इसकी दिशा-दशा क्या होगी, सब बच्चों-युवाओं की सोच पर निर्भर है, चूंकि सोच के अनुरूप कार्य होंगे और फल मिलेगा। उम्रदारों की संख्या सभी देशों में बढ़ रही है, उनकी खैरियत का दारोमदार भी नव पीढ़ी पर है। गए महीने पृथ्वी दिवस की चर्चाओं में बताया गया, यह धरती दर असल हमारी नहीं, आने वाली पीढ़ी की अमानत है हमारे पास; इसलिए हमें इसकी समुचित संवार करनी है।
लगता है बच्चों-युवाओं को, और जो भी हम से कमतर उम्र के हैं, उन्हें ज्ञान प्राप्ति हो गई है कि आने वाले दिनों उनकी और उन्हीं की धकियानी है। यानी उनके दिन अच्छे ही अच्छे हैं। छोटे और बहुत छोटे बच्चों को भी मानो पूर्वाभास हो गया है कि जमाना उन्हीं का है, इसीलिए उनमें अधिसंख्य नखरे और जिद करना अपना अधिकार नहीं, परम धर्म समझते हैं। वे उन चीजों और सुविधाओं की भी बेशर्मी और उद्दंडता से डिमांड करते हैं जो न केवल अनुचित है बल्कि उनके सीमित आय वाले मातापिता की सामथ्र्य में नहीं हैं।
ऐसे परिवेश में अनेक उम्रदारों ने कमतर उम्र वालों को सर-आंखों पर रखना अपना नैतिक और सामाजिक दायित्व मान लिया है। बच्चों पर इतराने में वे अभ्यस्त हो गए हैं। उनकी सोच है कि यह सभी का राष्ट्रीय कर्तव्य भी है, क्योंकि केंद्र और राज्य सरकारों ने अलहदा से बाल विकास युवा मामलों के मंत्रालय या विभाग गठित किए हैं। बच्चों की इच्छाओं-आकांक्षाओं को आंखें मूंदे सिंचित, पल्लवित होने दें। उनको अप्रिय कुछ घटित नहीं होना चाहिए। विभिन्न कार्यक्रमों, नियमों-विनियमों, अधिनियमों के जरिए अभिभावकों, सयानों और उम्रदारों को आगाह किया जाता है कि सुधर जाओ, इज्जत प्यारी है तो कमतर उम्र वालों से पंगे नहीं लो, अन्यथा लेने के देने पड़ जाएंगे। छोटे बाएं चलें, दाएं चलें; अपनी मरजी से वे उल्टा पहनें, सीधा पहनें, चुप्पी साध लें। उन्हें उत्पात, धृष्टता और उद्दंडता के अधिकार से वंचित करना अनुचित और निंदनीय है, दंडनीय करार किया जा सकता है। सवा पांच सौ बरस पहले दूरद्रष्टा महाकवि कबीर ने भी छोटों के उत्पात को जायज और उन्हें क्षमा करना उम्रदारों का कर्तव्य ठहराया था – ‘‘क्षमा बड़न को उचित है, छोटन को उत्पात’’। छोटों की धृष्टता को जितना तिरछी नजरों से देखा जाएगा, उसी अनुपात में उम्रदारों को सजा मिलने की सुनने में आ रही है।
नई पीढ़ी का विचार है कि सभी प्रकार की शालीनता और लोकलाज को दरकिनार करने का उन्हें अधिकार है। उन्हें संगिनी के साथ किसी भी अभद्र या आपŸिाजनक मुद्रा में, कोई भी हरकत के असीम अधिकार हैं, स्थान कोई भी हो – गली-कूचों के नुक्कड़, पेड़ की आड़; बस, मेट्रो की सवारी के दौरान; माॅल, पार्कों या सांझ के धुंधलका, आदि। वे चाहें तो भरी संसद में आंखें मटका सकते हैं। संसदीय गरिमा जिसके लिए होगी वही उसे ढ़ोते फिरें। अपनी इज्जत अपने हाथ। उस रोज भीड़ वाली बस में चप्पल पहने एक बेचारे बुजुर्ग का पांव एक युवा का भारी-भरकम जूते से कुचल गया। कहने वाले ने हल्के से साॅरी कह दिया किंतु शायद बुजुर्ग की कमजोर हड्यिां दर्द सहन नहीं कर पा रही थीं। वह हौले-हौले कराह रहा था, युवा को उसका कराहना नागवार गुजर रहा था। बजाए अफसोस महसूस करने के, वह गुर्राते चीखा, ‘‘जानबूझ थोडे पांव दबाया था, साॅरी भी कह दिया, अब मेरी जान ले लोगे क्या?’’ यह बुजुर्ग को परोक्ष चेतावनी थी, कैसे भी करके कराहना बंद करो, वरना ठीक न होगा।
बाल अधिकारों पर स्थानीय, आंचलिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समझौतों, नीतियों और संस्तुतियों का मजनून यही रहता है कि बच्चों की आकांक्षाएं यानी फरमाइशें पूरी की जाती रहें, वरना ठीक न होगा। उनकी जरूरतों, उमंगों, जज्बातों, नखरों का खयाल न रखने पर सख्त कानूनी कार्रवाही का प्रावधान है, इनमें और कड़ाई की सुनने में आ रही है। उनके पाक-नापाक इरादों की राह में रोड़ा न बनें। स्मरण रहे, उनका सब कुछ – मोबाइल, लैप टाॅप, बाइक, कोट-पैंट, जूता आप से ज्यादा धांसू होना है। घर में बड़े भाई-बहिन सहित सभी उम्रदारों पर वैश्विक संगठन तक नजर गड़ाए हैं, मार-पिटाई तो दूर, जोर से तो नहीं बोल रहे आप, मानवाधिकार के प्रावधान प्रभावी हो जाएंगे। उम्रदार अपनी औकात में रहें, अपनी अक्ल अपने पास रखें। औचित्य बरतने या आपके समझाने के दायित्व से ऊपर छोटों के बेलाग आचरण का हक है। स्कूली मास्टर सहमे हैं, उन्हें नौकरी बचाना भारी पड़ रहा है। छात्र अपनी मरजी के मुताबिक ऐसा करें वैसा करें, यहां जाए वहां जाए, मास्टर गुर्राना तो दूर, ‘‘ऊफ’’ भी करेगा तो उसकी खैर नहीं। सभी परीक्षाओं में उन्हें खुले दिल से नंबर देने हैं। परीक्षाई बोर्डों ने साल-दर-साल बच्चों की निखरती-सुधरती योग्यता का लोहा माना है, इसलिए उन्हें दनादन नंबर मिल रहे हैं। यह देखने वाले का दृष्टिदोष है कि शानदार नंबर लाने वाले की वह कद्र न करे। यह दूसरी बात है कि छात्र को पूर्व-पश्चिम का नहीं पता या दस और पांच जोड़ने के लिए कैल्कुलेटर चाहिए और डिटिंक्शन लाने पर क्लर्की भी न मिले। उसकी प्रतिभा पर बोर्ड की मुहर लगी है। मास्टर लोग गुस्ताखी न करें इसीलिए सीसीटीवी सब दर्ज कर रहा है। यो भी हर तीन-चार शहरी स्कूल के शिक्षक के खिलाफ पुलिस का मामला दर्ज है।
घर-परिवार में अपेक्षा न रखें कि छोटे भाई, बहन जमीन-मकान खरीदना, रिश्ते तय करना, नौकरी बदलने वगैरह अहम मसलों में आपको आरंभिक चरणों में सूचित भी किया जाए, पहले मशविरा करना तो दूर की बात ठहरी। मुमकिन है, शादी का कार्ड मिलने पर ही आपको जानकारी मिले। एक अल्पबुद्धि आयारामजी का मन था कि मातापिता की इच्छा की अनुपालना में पैत्रिक जमीन को बेचा नहीं जाए बल्कि उसे आबाद रखा जाए। उन्होंने पितरों की इच्छा भाई-बहनों के समक्ष क्या रखी कि उन पर जूत बरसने लगे। पहले उन्हें जताया गया कि इस बाबत वे एकछ़त्र ‘‘बचकाना’’ निर्णय नहीं ले सकते, इस पर सभी पोते-पोतियों, नाती-नातिनों का हक है। और यदि उनके पक्ष में जमीन होती है तो उन्हें निश्चित समयावधि में मकान बनवाना पड़ेगा। परोक्ष संदेश यह था कि अन्यथा पोते-नातियों से निबटना होगा।
बुढ़ाती संतान के लिए सुयोग्य पार्टनर की तलाश़ में मैट्रिमाॅनियल काॅलम और साइटें खंगालते, परिचितों-अपरिचितों से चर्चा छेड़ते, जाने अनजाने शहरों-कस्बों की गलियां-कूचे नापते बदहवास हो कर आप अहसान नहीं करते, अपना फर्ज भर निभाते हैं, उन्हें पैदा करने से जुड़ा। यह जरा सी बात मंदबुद्धि गयारामजी के पल्ले नहीं पड़ी। दुनिया को मुट्ठी में लिए, सातवें आसमान में विचरण करते अपने होनहार को पूछने की जुर्रत कर डाली, ‘‘जब तुम आकार, वजन और पगार में, और इसीलिए बुद्धि में, मुझ से इक्कीस होने का दावा करते हो, जीवनसाथी के निर्णय में सक्षम होने का डंका बजाते फिरते हो, स्वविवेक से इस बाबत अंतिम फैसला कर ही चुके हो, तो मेरे आशीर्वाद की बैसाखी तुम्हें क्यों चाहिए?’’ पता चला, गयारामजी को शराफत से अपने कहे पर माफी मांगनी पड़ी थी।
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दैनिक वीर अर्जुन के बिंदास बोल स्तंभ में 12 मई 2019 को प्रकाशित
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