परिजनों, साथियों तथा अन्य सहजीवियों से मेलजोल तथा प्रेम बनाए रखने पर व्याख्यान देने वाले जितने धर्मगुरु, कथावाचक, बाबा और फकीर मिलेंगे उन्हें सुनने को बेताब भक्त उनसे हजारों गुना मिल जाएंगे। ये सार्वजनिक मंचों से चेतन, अवचेतन पर गोलीबारी करते हुए ज्ञान बांटने वालों से अलहदा एक वर्ग उनका है जो निजी दायरों में आदिग्रंथों के रोचक प्रसंग सुनाने या उनकी नई नई विवेचना में पारंगत हैं। इन भाषणों-अभिभाषणों में अक्सर मनगढ़ंत या कोरी कल्पना परोसी जाती है तो भी दूसरे छोर पर कुछ वाचकों का अनुशीलन वास्तव में व्यापक और गहन, और उनकी प्रस्तुतियां वास्तव में सुबोध, तर्कसंगत और जनोपयोगी रहती हैं।
निस्संदेह सद्विचारों का वाचन, श्रवण, चिंतन और प्रसार सभी पक्षों के लिए हितकर रहता है। इनसे जुड़ाव सकारात्मक परिवेश के निर्माण में सहायक होता है और इनमें सहभागिता रखने वाले व्यक्ति कुकर्म करने से पहले दस बार सोचने को विवश होगें।
दिलचस्प है कि जिस मंच से लौकिक सुखों से अनासक्त रहने का पाठ पढ़ाया जाता है उसी मंच से भाषण के समापन पर दिल खोल कर दान देने और संप्रदाय की आजीवन या कम से कम वार्षिक सदस्यता ग्रहण करने की जोरदार अपील की जाती है।
सजग श्रोता परदे के पीछे की मंशाएं ताड़़ लेते हैं। दिलचस्प है कि किसी भी पंथ में गिनेचुने पीठ होंगे जिनके स्वामित्व या के विवाद कचहरियों तक नहीं पहुंचे। ये वही सत्तालोलुप दावेदार हैं जो जनता को सहिष्णुता, सुलह, मेलजोल और शांति का पाठ पढ़ाते नहीं अघाते। जिन धार्मिक संगठनों में विभिन्न पदों के लिए चुनाव होते हैं वहां जीत के लिए वही तिकड़में प्रयुक्त होती हैं जो राजनीति में।
सभी पंथों में जहां धन, स्वास्थ्य या बुद्धि में स्वयं से हीनों के प्रति दया, सहानुभूति और उन्हें संबल प्रदान करने की पुरजोर पैरवी है वहीं दिवंगतों, वरिष्ठजनों तथा अन्यों के प्रति दुराव या वैमनस्य की भर्त्सना है। कर्म के अनुसार सद्गति या अधोगति मिलने के सिद्धांत पर उन लंबे-लंबे भाषण देने वाले को धिक्कार है जो अपने जीवित मातापिता या स्वजनों को सम्मान देना तो दूर, उनकी उपेक्षा करते रहे और कमतर, निर्बल व्यक्तियों की मदद से कतराते रहे बल्कि उन्हें नीचा दिखाने से नहीं चूके।
ऐसा व्यक्ति उच्च आध्यात्मिक शक्तियों का प्रतिनिधि नहीं हो सकता जिसके आचरण और संदेश बेमेल हों, न ही वह जिज्ञासुओं को ज्ञान देने का अधिकारी है। सत्चरित्र की सुगंध और कदाचार की दुर्गंध छिपती नहीं है। शब्दों के अभ्यास और प्रस्तुतिकरण को निखार कर भले ही वह श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर ले किंतु उसकी अभिव्यक्तियों में आत्मिक और नैतिक बल नहीं होगा चूंकि वह अंतर्मन में जानता है वह ईमानदार नहीं है। दिल में परहित और सेवाभाव नहीं होगा तो उदगारों में निश्छलता नहीं आ सकती। ऐसा छद्म व्यक्ति आध्यात्मिक शक्तियों से विहीन होगा।
सेवाभावी का लक्ष्य लोकप्रियता अर्जित करना नहीं होता, इसीलिए वह या आख्यान देने में चित्त नहीं लगाता, वह जानता है उसके स्वयं के, और जनहित में अहम वह आचरण या कार्य है जो हम मनोयोग से संपन्न करते हैं। शांतिकुंज हरिद्वार के संस्थापक श्रीराम शर्मा अभिभावकों द्वारा प्रायः दिए जाते संदेशों के बाबत कहते थे, ‘‘बच्चों को जो सीख हम देते रहते हैं वैसा स्वयं करने लगें तो संपूर्ण विश्व स्वर्ग में परिवर्तित हो जाएगा’’। इसी तर्ज पर लोकप्रिय जैनमुनि तरुण सागर की सम्मति थी, ‘‘मुझसे बेहतर बोलने और लिखने वाले आए और चले गए। अर्थ उस आचरण का है जिसे हम दैनंदिन जीवन में ढ़ाल लेते हैं’’।
हमारे समाज में बेशुमार बोलने और ऐलान करने का चलन है, और शब्द है कि भ्रमित अधिक करते हैं, यह समझते हुए सुधी व्यक्ति वहां दो या अधिक शब्दों को प्रयोग नहीं करता जहां एक से कार्य हो सके। वह जानता है कि किसी को समझने के लिए उसके शब्दों या आश्वासनों पर नहीं बल्कि उसके कार्यों पर पैनी नजर रखना आवश्यक होता है।
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यह आलेख संक्षिप्त रूप में नवभारत टाइम्स, 20 सितंबर 2021, सोमवार के स्पीकिंग कॉलम में ‘‘अच्छे चरित्र की सुगंध और बुरे की दुर्गंध छिपती नहीं’’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। ऑनलाइन अखवार का लिंकः
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कथनी और करनी के महीन फर्क़ समझने के लिए यह लेख बहुत ही महत्वपूर्ण है. बड़ी सरल भाषा में इस तथ्य को समझाया गया है. अति सुन्दर लेख है. . मजा आ गया.