पूजा-अर्चना आत्मविकास की श्रेष्ठ विधि है किंतु लक्ष्य यदि शक्ति अर्जित करना है तो व्यक्ति सही गंतव्य तक नहीं पहुंच सकेंगे। सुफल उसी कार्य का मिलता है जो स्वेच्छा से, बगैर बाहरी बल या प्रभाव के निष्पादित संपन्न होता है।
अटके काम कैस सुलझाएंः मामला सरकारी महकमे का हो, घर-परिवार, समाज या कारोबार में उलझन का – कोई फच्चड़ फंस जाए तो क्या करेंगे? तीन विकल्प हैं।
पहला, अगला तर्क से न माने तो उससे भिड़ जाएं, उसे धमकाएं, रुतबा दिखाएं; उस पर दबाव बनाएं। दूसरा उसकी मिन्नत करें, गिड़गिड़ाएं, उसे जताएं कि आप हीन हैं और अगले की कृपा चाहते हैं। तीसरा, झुक कर या उसे प्रेम से समझाएं।
दुनिया के बड़े कार्य बल के प्रयोग से नहीं सधते। अनमने या दबाव में कोई आपका कार्य कर डालता है तो उस कार्य को विधिवत नहीं करेगा, और इसीलिए उसका सुफल नहीं मिलेगा।
शक्ति अर्जन स्वयं में उच्च लक्ष्य नहीं हैः पूजा अर्चना में शक्ति मार्ग का उपासक इस भ्रम में जीता है कि विश्व में जो भी सर्वोत्तम है उसे शक्ति के सहारे अर्जित किया जा सकता है। स्वयं में आत्मकेंद्रित, उसे लगता है कि सभी उपलब्ध सुख-सुविधाएं उसी के निमित्त हैं। शक्ति संपन्न होने से इतर उसे कुछ नहीं सूझता। वह अपनी संपूर्ण ऊर्जा अपना प्रभावक्षेत्र विस्तृत और सुदृढ़ करने में झोंक देता है। शक्ति पाने के लिए में वह कोई भी हथकंडा अपनाने में नहीं हिचकता। अध्यात्म के आसनों पर विराजमान ऐसा व्यक्ति को अपने चरणों में सभी कदों के भक्तों-आगंतुकों को लोटते देख, और उन्हें आशीर्वाद दे कर तृप्ति मिलती है। राजनीति में है तो तो अपनी जयजयकार के सारे तामझाम करेगा; संपादक है तो अपने नाम के उल्लेख बगैर रचनाएं उसे नागवार गुजरेंगीं।
प्राकृतिक विधान है कि मनुष्य सहित सभी जीवों के नैसर्गिक आचरण और उनके सहज, उन्मुक्त विकास में बाधा न पहुंचाई जाए। किसी को प्रभावित करने या किसी के प्रभाव में आना, दोनों से इस विधान का उल्लंघन होता है। प्रभाव में रहने वाला कैसे खुल कर, बेधड़क बोलेगा, लिखेगा, सोचेगा या जिएगा भी। पूजा-अर्चना जैसे पुनीत कार्यों में निरीह जीव की बलि जैसी अमानवीय प्रथा का समावेश शक्ति उपासकों की ही देन रही होगी।
शक्ति, प्रसिद्धि, धन व्यक्ति को भटका सकते हैंः ब्रह्मांड के अथाह, अबूझ स्वरूप से अनभिज्ञ चिंदी सा मनुष्य तनिक बल, ज्ञान, प्रसिद्धि, धन पा कर स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल करता है। सत्य से अनभिज्ञ, शक्ति का उपासक अहंकार से सराबोर होता है। उसकी बातें ‘मैं’ से आरंभ हो कर ‘मैं’ से आगे बढ़ती हैं और ‘मैं’ पर समाप्त होती हैं। वह विश्वस्त सा रहता है कि पद, प्रतिष्ठा, विरासत या पैसे के बूते वह महान नहीं है, वह है ही महान। एक छोटा, सीमित दायरा उसकी संपूर्ण सृष्टि बन जाती है। वह दूसरों को हेय समझता है, उनके सुख-दुख, हर्षोल्लास में सहभागी नहीं होता। उसका सहज विकास अवरुद्ध हो जाता है, उसके हृदय में प्रेम, आनंद और शांति के भाव नहीं उपजते। वह न अपने अंतःकरण से सांमजस्य में रहेगा, न ही परिजनों से अंतरंग संबंध बना सकेगा।
अहंकार और ईश्वर, दोनों साथ नहीं टिकतेः अहंकार के चलते रावण और दुर्योधन जैसी शक्तिशाली हस्तियों का विनाश हुआ। अहंकार अनेक देवताओं को ले डूबा, मनुष्य की क्या बिसात! वह तो प्रभु की प्रतिलिपि मात्र है। अहंकार दैविक विधान के प्रतिकूल है, इसीलिए आत्मघाती है। वेन डायर ने कहा, हृदय में आप ईश्वर या अहंकार, किसी एक को प्रतिष्ठित कर सकते हैं।
विनम्रता का सुफलः विनम्रता, प्रेम, सौहार्द दैविक गुण हैं। जो कार्य नम्रता से सध जाते हैं, शक्ति से कदाचित नहीं। अहंकार से देवता राक्षस बन गए। विनम्रता में मनुष्य को देवता बनाने की सामर्थ्य है। बड़प्पन दूसरों से शक्तिशाली बनने में नहीं, जो आप पहले थे, उससे बेहतर बनने में है।
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इस आलेख का मूल संक्षिप्त रूप दैनिक हिन्दुस्तान (संपादकीय पेज, अनुलोम-विलोम कॉलम) में 24 अक्टूबर 2023, मंगलवार को ‘‘ताकत से हम अहंकारी बन जाते हैं’’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। अखवार के ऑनलाइन संस्करण का लिंकः https://www.livehindustan.com/blog/cyberworld/story-hindustan-cyber-world-column-24-october2023-8887984.html
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