प्रत्येक मनुष्य कुदरत की बेजोड़, नायाब रचना है। उसे प्रभु नेअथाह सामर्थ्य दी है जिसके बूते वह ऐसे गजब कर सकता है कि स्वयं चकरा जाए। किंतुअफसोस, वह देखादेखी अपना मूल स्वरूप छोड़ देता है और भीड़ का हिस्सा बन कर रह जाता है।
मनुष्य का एकाकी स्वरूप
अनगिनत गुणों से भरपूर मनुष्य जैसा अन्य कोई जीव नहीं है। मायावी चकाचौंध और चूहादौड़ में वह अक्सर भूल जाता हैं कि उसकी मूल प्रवृत्ति एकाकी है। वह एक स्वतंत्र शरीर और स्वतंत्र मन के साथ अकेला जन्म लेता है, और एक दिन अकेला ही परलोक के लिए प्रस्थान कर जाता है। जुड़वा संतानों के स्वभाव, आचरण, रंगरूप और डील डीलडौल एक सा नहीं होता; मौत भी एकसाथ नहीं आती। किसी की पुतलियों और उंगलियों की छाप विश्व में किसी अन्य व्यक्ति से मेल नहीं खाती। मनुष्य प्रकृतिकी उत्कृष्ट, अदभुत, पाक रचनाहै। वैज्ञानिक बताते हैं, प्रत्येक मनुष्य की बायोकैमिक संरचना (लोकभाषा में कहें तो ‘माटी’) में खासी भिन्नताएं होती हैं।
दूसरों के सानिध्य में, उन्हीं की तरह अनावश्यक प्रतिस्पर्धाओं में रमता-उलझता मनुष्य अपनी प्रकृतिदत्त सहजता और जीवंतता खो देता है। इस प्रक्रिया में न वह स्वयं पूर्णरूप से विकसित हो पाता है न ही समाज को अपने विशिष्ट योगदान से लाभान्वित करता है।
निस्संदेह, मेलजोल बगैर गुजर नहीं। अपनी संवेदनाएं, सुख-दुख, पीड़ाएं मनुष्य कहीं तो साझा न कर सके तो वह मन से बीमार हो जाएगा। कहा गया है, अंतरंग साथी हो तो बीमारी में, खासकर मानसिक बीमारी में वह दवा से अधिक कारगर साबित होता है। किंतु इतना ही सच यह है कि ऊंचाइयों के रास्ते निपट अकेले तय किए जाने होते हैं। प्रेम और मित्रता का आकर्षण जबरदस्त हो सकता है, इस तानेबाने से निर्मित भ्रमजाल में जीते हम प्रायः मनुष्य की एकाकी प्रवृत्ति की अनदेखी करते हैं।
स्वयं को ईश्वर का अंग मानें
प्रभु या उच्चतर शक्ति पुंज का अभिन्न अंग मानने वाला अनेक प्रतिरोधी शक्तियों से निबटने में सक्षम इसलिए बन जाता है चूंकि उसे प्रभु का संबल मिलता रहता है। औचित्य और सदाचार की अनुपालना में लोक मान्यता न मिलने पर वह विचलित नहीं होता बल्कि अपनी राह पर अविरल प्रशस्त रहेगा। उसे ज्ञान रहता है कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में ब्रह्मांड है, अतः सांसारिक मर्यादा कीअपेक्षा अंतरात्मा की सुनना श्रेयस्कर है। एकांत का अर्थ समाज से विरक्ति या सांसारिक गतिविधियों से दूरी बनाना नहीं, यह न संभव है न वांछनीय। इसका अर्थ उनमें जकड़े न रहना है। अनेक व्यक्तियों से मेलजोल में रहता एकांतप्रिय व्यक्ति मौन की आवाज सुन सकता है। एकांतप्रिय व्यक्ति सहज, स्वछंद और साहसी प्रवृत्ति का होगा। उसका मनोबल उच्च, तथा नियत लक्ष्य के अनुसार स्वतंत्र सोच और कार्यनीति होगी। भीड़ के अनुगामी में अकेले टिकने का माद्दा नहीं होता। दिशाहीन भीड़ के संभागी को नहीं पता होता कि सभी किधर जा रहे हैं। एकाकी राही भीड़ में नहीं उलझेगा। अपने फैसले स्वयं लेने में दूसरों से प्रभावित नहीं होगा। वह समय समय पर स्वयं से साक्षात्कार भी करता है, भीड़ का व्यक्ति इस लाभ से वंचित रहता है। वह भीड़ में अपनी स्वतंत्र अस्मिता का विलय नहीं होने देता। यह जानते हुए कि आत्मोद्धार के लिए एकांत से बेहतर साधन नहीं है, भीड़ का एक पुरजा बन जाना उसे मान्य नहीं होता।
(नोटः इस आलेख की प्रेरणा मुझे मित्र जयप्रकाश नौटियाल जी से मिली, उनका आभार।)
….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. …..
आलेख का संक्षिप्त प्रारूप ‘एकांत का सुख’ शीर्षक से दैनिक जागरण के ऊर्जा कॉलम (संपादकीय पेज) में 1 फरवरी 2023, बुधवार को प्रकाशित हुआ।
….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. ….. …..