भय से मुक्ति

हमारा आचरण जितना सहज, बेबाक उन्मुक्त होगा, उतना ही निर्भीक प्रसन्न रहेंगे।

मनुष्य प्रभु की अनुकृति है। उसके व्यवहार या आचरण में न्यूनाधिक त्रुटियां या कमियां स्वाभाविक हैं। इस अधूरेपन के अहसास बिना त्रुटियों का निराकरण संभव न होगा? तथापि अपूर्णता का अहसास दिल में घर जाना विकृति है; ऐसे व्यक्ति में असुरक्षा की भावना पनपेगी और भय मुखर होगा। भय मनुष्य की अंदुरुनी कमजोरी का द्योतक है, उसकी सोच को परिसीमित करता है। लोकलाज, व्याधि और आयु ढ़लने पर संभरण व देखरेख आदि की चिंतां में डरते-डरते जीना कुछ व्यक्तियों की नियति बन जाती है। वास्तविक कष्ट से कई गुना पीड़ादाई उसका विचार होता है। सबसे बड़ा भय मृत्यु का रहता है। जो जान ले कि मनुष्य युगों-युगों से संसार के असंख्य आगंतुकों में एक है, उसका मुख्य स्वरूप दैविक है, और उसे एक दिन शरीर छोड़ देना है, तो वह प्रतिदिन तिल-तिल कर नहीं मरेगा। हृदय में किसी प्रकार का भय नहीं रखता नन्हां बालक सहज, प्रफुल्लित और आनंदित रहता है। सहज, उन्मुक्त और निर्भीक आचरण प्रकृति की योजना की अनुपालना में है। मायावी सोच में उलझ कर मनुष्य छल, दुराव और स्वार्थपरकता का सहारा लेता है, उसके कृत्य और आचरण पारदर्शी नहीं रहते, वह संकुचित, कुंठित, भयग्रस्त जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हो जाता है। किसी का अहित किया हो, या ऐसा विचार रहा हो तो हृदय भयाकुल रहेगा।

निश्छल अंतःकरण निर्भीकता और उत्साह का वास है। ऐसे व्यक्ति को भय नहीं सालता कि ‘‘लोग क्या कहेंगे” चूंकि उसके लिए लोकलाज से अधिक अहम अंतरात्मा की आवाज है। धन-संपदा या प्रियजन के न रहने के भय से क्षुब्ध हो जाना दूरदर्शिता का अभाव दर्शाता है। जो छिन गया वह हमारे निर्मित नहीं था, जो वास्तव में हमारा है वह पुनः हमारे पास आएगा। निर्भय व्यक्ति दुष्कर प्रतीत होती परिस्थिति के समक्ष घुटने नहीं टेकता, उससे बचने के बहाने या तर्क नहीं तलाशता-जुटाता। भय आदिम संवेग है, साहसी व्यक्ति भी भयमुक्त नहीं होता किंतु अपने पौरुष को पहचानते हुए हौसले से वह भय को शिकस्त देता है। यह जानते हुए कि उन्नति का मार्ग भय के गलियारों से गुजरता है, वह और अधिक निर्भीक रूप में प्रस्तुत होता है।

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…दैनिक जागरण के (संपादकीय पेज पर) ऊर्जा स्तंभ में 13 मार्च 2021 को प्रकाशित।

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