धर्म या सत्य की प्रकृति सहजता, सौम्यता, शांति, और ठहराव की है। इसकी तुलना में अधर्म, झूठ और फरेब की बुनियाद चमक-दमक, होहल्ला और मारधाड़ है; इनमें जबरदस्त सम्मोहन होता है। सत्य और धर्म की राह में ऐसा खिंचाव नहीं। इसीलिए झूठे और फरेबी की जयजयकार होती है। अधिकांश जन अपने मूल (दिव्य) स्वरूप को बिसार कर सत्य को प्रतिष्ठित करने के बदले आसुरी शक्तियों का दामन थाम लेते हैं, और पाप के भागी बनते हैं।
हैवानी ताकतों का बोलबाला
आदिकाल से धर्म-विधर्म के द्वंद्व में आसुरी शक्तियों का वर्चस्व रहा। नेकी और धर्म के अनुयायियों को नाना प्रकार के कष्टों, यातनाओं, जवाबदेहियों और बाधाओं से जूझना पड़ा। हालांकि अंत में विजय धर्म (सत्य) की हुई किंतु आरंभिक चरणों में सत्य को उपहास, उलाहना, प्रताड़ना और अपमान झेलने पड़े। विश्वामित्र व अन्य ऋषियों को उकसाने-भड़काने के लिए उनके यज्ञकुंड में मांस, रक्त आदि डाले जाने, और तपस्यालीन साधकों को विचलित करने के लिए अप्सराएं प्रस्तुत किए जाने के उल्लेख शास्त्रों में मिलते हैं।
असत्य की बुनियाद फरेब है
असत्य की प्रवृत्ति आसुरी होती है, इसका आधार सम्मोहन, आडंबर, फरेब और चमकदमक है। सत्य की विडंबना है कि यह आकर्षक या लोकप्रिय नहीं होता है, न ही स्वयं में इतना सशक्त कि उसका लोहा स्वतः मान लिया जाए। तथापि सृष्टि में व्यवस्था बनाए रखने और इसके सुचालन के लिए सत्य की प्रतिष्ठा अनिवार्य है, इसीलिए विधान है कि सत्य को जिताया जाए चूंकि यह स्वयं नहीं जीतता। यही हमारे राष्ट्रीय प्रतीकचिन्ह के शब्द हैं, ’सत्यमेव जयते’, ’सत्यमेव जयति’ नहीं। सत्य (स्वयं) जीतता तो ’’सत्यमेव जयति” लिखा जाता!
शौर्य, पराक्रम, बुद्धि और संगठनात्मक कौशल में असुर देवताओं से कमतर न थे। उनके कुकृत्यों से मर्त्यलोक में हाहाकार मचा तो मां दुर्गा अवतरित हुईं। किंतु स्वयं के सहारे राक्षसों का संहार करना देवी के लिए संभव न था। अनेक देवी-देवताओं ने दुर्गा को अपने-अपने दिव्य, अचूक अस्त्र प्रदान किए। तब जा कर वे असुरों के विनाश और धर्म की स्थापना में सफल रहीं।
धर्म की राह कठिन है किंतु परिणति सुखद
धर्म और औचित्य की राह सहज, निर्विघ्न नहीं होती। राही को निष्ठा, समर्पण, अविरल अथाह श्रम से कार्य करना होता है हालांकि इसकी परिणति अत्यंत आनंदमयी, तुष्टिकारी और सुखद होती है। सामान्य व्यक्ति चकाचौंध, भौतिक समृद्धि, अहंकार और पद-प्रतिष्ठा की चाहत जैसी आसुरी शक्तियों से आकर्षित हो कर धर्म के मार्ग से विमुख हो कर अपना जीवन व्यर्थ गंवा देता है। अधर्म की जयजयकार में अपने मूल दिव्य स्वरूप की उपेक्षा कर व्यक्ति आसुरी शक्तियों का साथ देने लगता है तथा पाप का भागी बनता है।
सत्य मार्ग पर चलते साधक को कदाचित संशय होता है, प्रभु परम शक्तिशाली हैं। लोककल्याण की दृष्टि से तथा विशेषकर अपने उपासकों के हित में वे आसुरी शक्तियों का नाश स्वयं क्यों नहीं करते। स्मरण रहे, सदाचारी और कदाचारी दोनों प्रभु की संतति हैं। पूर्व कर्म के अनुसार एक ने सत्य का मार्ग चुना तो दूसरा असत्य की ओर प्रवृत्त हो गया। आसुरी वृत्ति का व्यक्ति कर्मफल के कारण अभिशप्त है, अतः वह घृणा या वैमनस्य का नहीं, दया का पात्र है। इसी आशय से तुलसीदास बालकांड में प्रभुवंदना में उन कदाचारियों को भी नमन करते हैं जो सत्कार्यों में विघ्न डालते रहते हैं।
यों सदाचारी के हृदय में भी कदाचित कुविचार उठ सकते हैं, ’’सुमति कुमति सबके उर रहहिं।“ अहम यह है, हम किन विचारों और मनोभावों को मनमंदिर में प्रतिष्ठित करते हैं। जिन विचारों को हम संजोएंगे, पल्लवित करें उसी अनुसार फल पाएंगे।
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इस आलेख का संक्षिप्त रूप दैनिक हिन्दुस्तान के संपादकीय पेज के कॉलम ‘मनसा, वाचा, कर्मणा’ में 1 अक्टूबर 2022, शनिवार को “सत्य को जिताना पड़ता है” शीर्षक से प्रकाशित हुआ। अखवार के ऑनलाइन संस्करण का लिंकः https://www.livehindustan.com/blog/mancha-vacha-karmna/story-hindustan-mansa-vacha-karmana-column-01-october-2021-7158941.html
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